विद्या भूषण रावत
उत्तराखंड आन्दोलन में तमाम खामियों के बावजूद एक बात जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया वह था राजधानी का सवाल और ये इसलिए क्योंकि अन्य राज्यों में जहा राजधानियों के सवाल को लेकर लोग उस क्षेत्र के बड़े शहरों को लेकर आसस्वस्त थे वही उत्तराखंड की राजधानी के प्रश्न पर पूरे प्रदेश में एक मतता थी लेकिन इसके बावजूद भी आज तक गैरसैण को उत्तराखंड की राजधानी को स्वीकार करने में सरकारों और उनके मातहत कार्य कर रहे अधिकारियों ने ईमानदारी नहीं दिखाई है.
मैंने हैदराबाद शहर को लेकर तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के लोगो के बीच भयंकर तकरार को सुना और देखा है. झारखण्ड की राजधानी रांची और छत्तीशगढ़ की राजधानी रायपुर होगा इस पर ज्यादा कोई विवाद नहीं था क्योंकि राजधानियों के प्रश्नों को अधिकारियों ने अपनी सुविधा अनुसार ही निपटा दिया था. हैदराबाद का सवाल तेलंगाना के आंदोलनकारियो के इतना महत्वपूर्ण बन गया के वे बाकी राज्य की स्थितियों को भूल गए. दरअसल हैदराबाद में आंध्र के ताकतवर जातियों के इतना इन्वेस्टमेंट, और सम्पति थी के वे इसे कतई नहीं छोड़ना चाहते थे और तेलंगाना के नेताओ और लोगो को लगा के इसके बिना उनका राज्य अधूरा है. फिलहाल, उत्तराखंड में राजधानी को लेकर सबसे बेहतरीन बात ये थी के इसके गढ़वाल और कुमाऊ, दोनों क्षेत्र उसमे एकमत थे. सत्ताधारियो ने हमेशा देहरादून को राजधानी और नैनीताल को हाई कोर्ट देकर दोनों क्षेत्रो को खुश करने की कोशिश की लेकिन फिर भी पहाड़ के लोगो ने देहरादून को मन से कभी राजधानी स्वीकार नहीं किया और ये उत्तराखंड अस्मिता आन्दोलन की सबसे बड़ी ताकत है.
इतने वर्षो से देश दुनिया के आन्दोलनों पर नज़र रखते हुए मुझे उत्तराखंड के लोगो पर राजधानी के सवाल को लेकर बहुत गर्व हुआ. मुझे महसूस हुआ के लोग ऐसी सरकारे चाहते है जो पहाड़ की जनता से सीधे जुड़े और सरकार सही अर्थो में जनता के प्रति जवाबदेह हो. मै तो इससे भी अधिक सोच रहा था. मैंने देखा के हमारे देश में सता का तंत्र तानाशाही, सामंती और जातिवादी है और यदि इसको तोड़ना है तो इसको लोगो के पार्टी जिम्मेवार बनाना होगा और इसे लोगो के साथ दूरी को मिटाना होगा तभी किसी क्षेत्र का विकास होगा. ये बात भी सत्य है के गंगोत्री, बद्री केदार धाम या पिथौरागढ़ से देहरादून आना लोगो के के लिए उतना ही मुश्किल है जैसे एक जमाने में लखनऊ होता था. सबसे बड़ी बात ये के लखनऊ की तरह देहरादून भी ‘बाबुओ’ और ‘दलालों’ की संस्कृति वाला क्षेत्र हो गया जहा गरीब व्यक्ति अधिकारियों से नहीं मिल सकता और जहा आने से पहले उसे कई बार सोचना पडेगा.
मुझे जैसे लोगो ने सोचा के गैरसैण जैसी राजधानी में सारा तंत्र लोगो को समर्पित होगा. विधान सभा की बैठके होंगी तो विधायक और मंत्री पैदल ही बैठक में भाग लेने जा रहे होंगे. राजपाल भी अपने सरकारी भाषण के लिए पैदल आयेंगे. हमारे सचिवालय में लोग आसानी से अधिकारियों से मिल सकेंगे और पुलिस के तंत्र की आवश्यकता नहीं होगी. लेकिन हमने सत्ता को गन तंत्र में बदल दिया है. आज हमें अपनी बाते लोकतान्त्रिक तरीके से कहने के लिए जगहे नहीं है. दिल्ली के जंतर मंतर पर अब वैसा माहौल नहीं होता जैसे कभी होता था क्योंकि अब आपसे पूछा जाता है के क्यों आन्दोलन करना चाहते हो, बहुत से राज्यों ने तो धरना और प्रदर्शन स्थलों को राजधानियों से इतने दूर बना दिया है के उनके मतलब ही ख़त्म हो गए है. हकीकत ये है ऐसी बाते बाद में हिंसा जो बढ़ावा देती है. उत्तराखंड की राजधानी को लेकर मेरे जैसे बहुत से लोगो के ये सपने थे के गैरसैण में राजधानी होने से जनता अपने आप को इतना निरीह नहीं समझेगी जैसे इस वक़्त बड़े शहरों में होता है और अधिकारी और मंत्री-विधायक-नेता उसके प्रति जिम्मेवार होंगे, सत्ता में आकर बदल नहीं जायेंगे.
राजधानी बनने के बाद से देहरादून शहर भी बदल गया. एक खूबसूरत घाटी में लाल बत्तियो की गाडी की धमक और चौधराहट दिखाई देती है लेकिन आज भी पहाड़ के आम आदमी को इस धमक से निराशा है क्योंकि राजधानी के रूप में गैरसैण उसकी आवाज है. जब जनता राजधानी के सवाल से भटकी नहीं तो सरकारों ने वायदे कर लिए और ‘टेंट’ के नीचे भी विधान सभा का सत्र करवाया. मुझे लगा ये विचार भी अच्छा है कम से कम लोग नेताओं, मंत्रियो से बिना सुरक्षा के भी मिल पाएंगे. मौजूदा सरकार ने तो ये घोषणा कर दी के गैरसैण राज्य की ग्रीष्म कालीन राजधानी होगा. यहाँ विधान सभा के सत्र की बात भी कही गयी लेकिन वो हुआ नहीं.
अभी कुछ दिनों पूर्व मैंने इस क्षेत्र का भ्रमण किया. कर्णप्रयाग से इन्द्रेश मैखुरी जी के साथ मै गैरसैण में ‘राजधानी’ को देखने गया. मेरे आश्चर्य की ठिकाना न रहा जब मुझे पता चला के राजधानी हकीकत में गैरसैण नहीं अपितु उससे कर्णप्रयाग मार्ग पर १२ किलोमीटर दूर दीवालीखाल से बाई दिशा में ४ किलोमीटर आगे एक छोटा सा गाँव भराड़ी सैण है. दरअसल, दीवालीखाल तक तो रास्ता पक्का है लेकिन वहा से भराड़ीसैण के लिए रास्ता अभी बन रहा है जिसके लिए पहाड़ो को काटा जा रहा है और शायद यही कारण है के सरकार यहाँ विधान सभा का सत्र नहीं बुला पायी.
दीवालीखाल से कच्चे रास्ते से गुजरते हमने पहाड़ो का कटान देखा और चारो और धूल की चादर. ये एक बेहद की खूबसूरत इलाका है जहा मौसम बेहद सुहावना रहता है. पूरा इलाका चरगाह या गोचर का लग रहा था. गाँव में दस बीस घर होंगे. एक पशु चिकित्सालय भी था और सामने बड़े हैलीपैड के लिए भी काम चल रहा था. लोग ऐसा बता रहे थे के एक साथ पांच छे हैलिकॉप्टरो के उतरने की व्यवस्था के लिए निर्माण कार्य चल रहा था. जिस रोड से गुजर रहे थे उससे दो गाडियों के एक साथ पास होने की कम सम्भावनाये थी. खैर, रोड बनने के बाद सब ‘ठीक’ हो जाने की आशा है.
विधान सभा सचिवालय और विधान भवन परिसर दूर से नज़र आ जाते है. नीचे करीब एक किलोमीटर पर पुलिस का एक सिपाही आपको रोकता है के गाडी नहीं जा सकती. हम लोग वही उतर जाते है और धीरे धीरे पैदल ही चल पड़ते है. यहाँ अन्दर की सड़क अच्छे से बन गयी है. कर्मचारियों, विधायको के आवास बने है लेकिन खाली पड़े है. ऊपर विधान सभा भवन भी बन गया है जिसकी दूर से तस्वीर लेने पर वो किसी बड़ी कंपनी का ‘मुख्यालय’ नज़र आता है. मैंने तो पहले उसे कॉर्पोरेट हॉस्पिटल समझा. सभी स्थानों पर बड़े गेट है और ताले लगे है, स्टाफ कोई नहीं है. सिवाय काम करने वालो के और कोई यहाँ नहीं है. विधान भवन सबसे ऊंचाई पर है जहा से हिमालय की बहुत खूबसूरत चोटिया दिखाई देती है. यानी अधिकारियों और नेताओं के लिए गर्मियों में ये एक ‘रिसोर्ट’ होगा जब देहरादून के गरम मौसम से बचने के लिए वे ‘दो चार’ दिनों के लिए यहाँ छुट्टी मनाने आयेगे लेकिन वो छुटिया नहीं होंगी, सरकार आपका खर्च वहन करेगी, पूरा तंत्र यहाँ होगी ‘ग्रीष्म कालीन’ राजधानी के नाम पर क्योंकि तंत्र ने ऐसी व्यवस्था कर दी है के जनता उससे दूर होगी. जनता को रोकने के पूरे इंतज़ाम कर दिए गए है और हर जगह पर पुलिस का पहरा होगा. स्थानीय लोगो की जरुरत नहीं होगी. वहा काम कर रहे एक व्यक्ति ने हमें बताया के राजधानी बनने का कोई लाभ उनके लिए नहीं है क्योंकि जब भी कोई अधिकारी लोग यहाँ आते है उनके साथ कर्मचारी सब ‘बाहर’ के होते है इसलिए स्थानीय लोगो को तो रोजगार की कोई संभावना भी नहीं है, हाँ जब मुसीबत आ जाए तो मदद के लिए स्थानीय लोग ही चाहिए होंगे. विधान सभा परिसर सूना था लेकिन कुछ खच्चर और गधे वहा चर रहे थे जो बताता है के ये क्षेत्र हराभरा टीला रहा होगा जहा से हिमालय सामने खडा नजर आता है.
मुझे इस बात का अफ़सोस है के जब विधान सभा सचिवालय प्रकृति की गोद में बनाने की योजना बनी होगी तो क्या इसमें उत्तराखंड के स्थानीयता को क्यों नजरअंदाज कर दिया गया. प्रकृति के गोद में इतनी बड़ी अप्राक्रितिकता क्या उस पर अत्याचार नहीं है. क्या हम ऐसा स्थल नहीं बना सकते जिसमे उत्तराखंड की संस्कृति और भौगोलिकता नज़र आये. लेकिन विकास के नाम पर ठेकेदारों और माफियाओ की चांदी तो प्रकृति के दोहन से ही होनी है और सत्ता तंत्र उस पर आँख मूद कर भरोसा कर देता है.
दीवालीखाल में चाय की ढाबे पर देवेन्द्र जी बताया के उनकी ये दूकान खतरे में है क्योंकि सड़क चौडीकरण के नाम पर उसे तोड़ने की बात थी लेकिन इन्द्रेश मैखुरी जी ने ये प्रश्न उठाया तो बच गए लेकिन वह बताते है के जब भी कभी कोई मंत्री या कोई घटना होती है तो पुलिस की संख्या इतनी हो जाती है के भय का माहौल पैदा करती है. उन्हें अपनी ही दूकान में नहीं आने दिया जाता. सुरक्षा अधिकारी बहुत परेशान करते है. इन्द्रेश मैखुरी बताते है के विधान सभा के सत्र के दौरान यहाँ पूरे राज्य से पुलिस बल बुला लिया जाता है ताकि कोई ‘गड़बड़’ न हो. ये कोई नहीं कह रहा के नेताओं और अधिकारियों के सुरक्षा नहीं होनी चाहिए लेकिन सुरक्षा के नाम पर गाँव में भय का वातावरण पैदा कर देना कौन सा लोकतंत्र है. गैरसैण की आबादी ७,५०० के करीब है और भराड़ीसैण वहा से १६ किलोमीटर दूर है. भराड़ीसैण की आबादी तो १०० घरो की भी नहीं होगी. सभी लोग अपने कार्यो में लगे रहते है. इन इलाको में कभी पुलिस की जरुरत नहीं पडी क्योंकि क्राइम रेट बहुत कम है. पहाड़ो में वैसे भी पुलिस थानों के पास ख़ास काम नहीं होता इसलिए विधान सभा सत्र में किसी भी प्रकार की समस्या से निपटने के लिए पूरे राज्य की पुलिस को यहाँ बुलाने की आवश्यकता नहीं होगी. हालाँकि गैरसैण, कुमाऊ और गढ़वाल से बराबर दूरी पर है फिर भी पहाड़ की भोगोलिक स्थितियों को देखते हुए यहाँ पर दूर दराज के इलाको से लोगो का पहुचना आसान नहीं होगा. वैसे भी भराड़ीसैण जाने के लिए यदि आपके पास अपना वाहन नहीं है तो आप नहीं जा सकते. उत्तराखंड में प्राइवेट टैक्सी ही लोगो के यातायात का सर्वोत्तम साधन है क्योंकि बसों की संख्या बहुत कम है और वे अक्सर लम्बी दूरी की सवारी लेती है. इसका अर्थ यह भी है के यदि लोग किसी बात के लिए आन्दोलन करने के लिए भराड़ी सैण या गैर सैण आते है तो निश्चय ही उनकी कोई विशेष परिस्थितिया या परेशानिया होंगी जिस तरफ वे सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहते हो अतः ऐसी बांतो, मांगो या प्रदर्शनों से सरकार को नहीं घबराना चाहिए और उसे हमारे समाज की जीवन्तता को मानते हुए उनकी बातो या मांगो पर विचार करना चाहिए. .
सवाल ये है कि सरकारे, नेता और अधिकारी लोगो से इतने डरते क्यों है ? क्यों जनता को शक की दृष्टि से देखते है. क्या मतलब है ऐसी ग्रीष्म कालीन राजधानी और विशेष सत्र का यदि जनता अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन नहीं कर सकती ? विधान सभा परिसर को देखकर मुझे महसूस हुआ के अंग्रेजो ने हमारा शोषण किया हो लेकिन उन्होंने पहाड़ो की संस्कृति और परम्पराओं का ख्याल भी रखा. उस ज़माने के भवन आज भी हम गर्व से देखते है. राजभवन से लेकर नैनीताल हाई कोर्ट तक सभी तो उस राजसत्ता की दें है जिसकी सबसे ज्यादा आलोचना होती है. आज का राजभवन पूरी तौर पर ‘गुजरात’ माडल पर बनी है जिसमे ईंट, गारे, शीशे, संगमरमर, लोहे के बड़े बड़े भवन है लेकिन उसमे ‘दिल’ नहीं है और ना ही पहाड़ की ‘जन भावना’ की कोई भावना. प्रकति की गोद में बने ऐसे अप्राकृतिक स्थलों से पहाड़ की नदियों, गदेरो, नौलो धारो, जंगलो, जैव विविधता और यहाँ की जनता के भाग्य के निर्णय होंगे और वो कैसे होंगे सबको पता है.
सब जानते है के सत्ताधारी देहरादून से बाहर निकलना नहीं चाहते. उनके बच्चो के अच्छे स्कूलों के बाद, दिल्ली, बंगलौर में पढ़ाई आसान है. घूमने फिरने के लिए सब आसान है. बड़े बंगले है और देश दुनिया से आसानी से जुड़े है इसलिए पूरे राज्य को नियंत्रण करना आसान है. हकीकत यह के देहरादून के जरिये सत्ताधारी उसकी पहाडी खशबू को कुंद कर देना चाहते है. १९६० में अमर सेनानी और उत्तराखंड के सबसे बड़े क्रांतिकारी वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने गैरसैण के उत्तराखंड की राजधानी बनने के जिस सपने को देखा था उसे हमारे नेताओं ने अपनी सुविधाओं के हिसाब से चूर चूर कर दिया है. उत्तराखंड की जनता को इस सन्दर्भ में सवाल खड़े करने होंगे आखिर ये प्रदेश पहाड़ो की विशेष परिस्थितियों और आवश्यकताओं के लिए बनाया गया था और अब यदि पहाड़ो के बीच यहाँ के निर्णय नहीं होंगे तो ये उसकी अस्मिता के साथ खिलवाड़ है.
पूर्णकालिक राजधानी के अभाव में भराड़ीसैण का यह विधान सभा परिसर एक ‘रिसोर्ट’ से ज्यादा कुछ नहीं है और जनता के पैसो की गाढ़ी कमाई का पूरा दुरुपयोग है. हम आशा करते है के राज्य का राजनैतिक नेतृत्व जनभावना का सम्मान करते हुए इसे पूर्णकालीन राजधानी घोषित करेगा ताकि सत्ता प्रशासन का सही उपयोग जनहित में हो और दूर दराज के लोग यहाँ आसानी से पहुँच कर अपने कार्य करवा सके.