डॉ. सुशील त्रिवेदी
हरिसुमन बिष्ट उत्तराखण्ड के शीर्षस्थ साहित्यकार हैं। उनके उपन्यास, कहानी, नाटक और यात्रा वृतांत पूरे हिन्दी क्षेत्र में अपनी मिट्टी की सुगंध बिखेरते हैं और जल के कल-कल निनाद को ध्वनित करते हैं। उनका नवीनतम उपन्यास ‘‘बत्तीस राग गाओ मोला’’ उत्तराखण्ड के इतिहास के मध्यकाल की समाप्ति के बाद के प्रारंभिक आधुनिक काल की घटनाओं को आधार बनाकर, उस काल खण्ड के एक प्रमुख कवि और चित्रकार मोला राम के जीवन की गाथा कहता है। यह बात अलग है कि बिष्ट जी इसे ‘‘मोला राम का अधूरा किस्सा’’ माना है क्योंकि मोला राम के सम्पूर्ण जीवन पर उपन्यास लिखना उन्हें संभव नहीं लगा। बहरहाल, यह उपन्यास मोला राम के जरिए इतिहास के साथ बदलते सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को उजागर करता है।
इतिहास की रेखा सरल नहीं होती और वह अबूझ वृत्तों में घूमती है। इतिहास की इस रेखा का अनुगमन करना आसान नहीं होता क्योंकि तथ्य कभी भी एकदम साफ नहीं होते और इसी कारण घटनाओं का सरल क्रम नहीं बनता। इस उपन्यास के कई आयाम हैं, पहला- कुमाऊँ और गढ राज्य पर सन् 1790 से लेकर 1815 तक की अवधि में गोरखा शासन की ऐतिहासिक घटनाएं ; दूसरा- इस क्षेत्र में होने वाली घटनाओं से आए सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन ; तीसरा- उपन्यास के नायक मोला राम का संश्लिष्ट जीवन चरित ; और मोला राम की चित्रकला और कविता का विश्लेषण। अपने उपन्यास में घटनाओं और परिवर्तनों को वर्णित करते हुए बिष्ट जी इन चारों ही आयामों को साधने का प्रयास करते है।
इस उपन्यास में नायक मोला राम की जीवन में होने वाली घटनाओं का आधार बनाया गया है। घटनाओं के क्रम से समाज में समस्याओं का बवंडर आ जाता है जो आर्थिक व्यवस्था को उलट-पलट कर देता है। इतना ही नहीं इससे सांस्कृतिक गतिविधियां भी विपर्यय की भंवर में फस जाती हैं। बिष्ट जी ने अपने उपन्यास में इस झंझावत को बहुत सहजता से उभारा है। कुछ अप्रत्याशित घटनाएं नायक मोलाराम को दुखी और भ्रमित करती हैं। इस उपन्यास सार्थकता इसी में है कि यहां घटनाओं और नायक में पारस्परिक संबंध बना रहता है। किन्तु उपन्यास में घटनाओं की प्रधानता नहीं रहती बल्कि नायक मोला ही प्रधान बना रहता है।
मोला राम एक प्रतिष्ठित जागीरदार है लेकिन उससे बढ़ कर वह संवेदनशील चित्रकार और कवि है। उसकी विद्वता, कविता और चित्रकला की ख्याति चहुंदिश है। उसका कल्पना लोक है जो यथार्थ का आधार लेकर चित्रों और कविताओं में साकार होता है। उसके अनुभव और ज्ञान, उसके विचारों की पारदर्शिता और चिन्तन की गहराई तथा आध्यात्मिक विमर्श पर समाज और शासन दोनों को ही भरोसा है। उसका अपना परिवार है, पत्नी और बच्चे हैं किन्तु वह परिवार में नहीं है। राज्य शासन में चलने वाले कूटनीतिक दांवपेंच, सत्ता की लोलुपता, सैन्य और राजस्व के संचालन की गतिविधियों के कारण उसके जीवन और सम्मान की स्थिति में बार-बार उतार-चढ़ाव आते हैं। एक सन्यासिनी सोमा और एक गणिका लक्ष्मी से उसके संबंध आदर्श और यथार्थ, ऐन्द्रिक और आध्यात्मिक तथा व्यक्तिगत और सामाजिक परिस्थितियों के भंवरजाल में डूबते और उतराते हैं। इसी पृष्ठभूमि में मोला राम का चरित्र बहुवर्णी चित्रित है। बिष्ट जी ने इस चरित्र के माध्यम से कला और संस्कृति की मध्यकालीन नैतिकता के प्रारंभिक आधुनिक कालीन चेतना में रूपान्तरण को अभिलेखित किया है।
बिष्ट जी ने अपने उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र मोला राम के सृजन कार्य पर बारम्बार टिप्पणी की है। मोला राम के जीवन का ध्येय लोक कल्याण है। मोला राम ने ऐतिहासिक गाथाएं, पौराणिक आख्यान, नीति और श्रृंगार के पदों की रचना की है तो दूसरी ओर पहाड़ी कलम और मुगल कलम की चित्रकारिता की है। मोला राम के कृतित्व में समाज की छवि उभरती है। बहरहाल, उपन्यासकार ने मोला राम की चित्रकला पर कहीं अधिक जोर दिया है, मोला राम के साथी चैतू और माणकू भी चित्रकार हैं तो उसके दोनों पुत्र ज्वालाराम और अजबराम भी चित्रकार हैं। बिष्ट जी मोला राम के द्वारा बनाये गये चित्रों का तो सूक्ष्म विश्लेषण करते ही हैं, लेकिन घटनाओं के संदर्भ में वे जब प्रकृति और अन्य परिवेश का वर्णन करते है तब भी वह भी चित्रकला की भाषा में करते है। वास्तव में पूरा उपन्यास बिम्बों और बिम्बों के कलात्मक वर्णन के रूप में उभरता है। यह उपन्यास इतिहास की इतिवृत्तात्मकता के सहारे आगे बढ़ता है जो चित्रकला की पहाड़ी कलम से समृद्ध और रसमय होता है।
इस उपन्यास में सन्यासिनी सोमा का चरित्र बहुवर्णी है। वह आकर्षक शारीरिक सौन्दर्य की स्वामिनी है, अध्यात्म की साधिका है, लोक जागरण करने में सक्षम है तो अपनी रक्षा के लिए शस्त्रचालन में कुशल है। कवि चित्रकार और जागीरदार मोला से उसके रचनात्मक संबंध राज्य के हित के लिए प्रासंगिक हैं। बिष्ट जी ने सोमा के चरित्र और मोला से उसके संबंधों की जटिलता को बड़ी बारीक परतों में वर्णित किया है। मोला के साथ गणिका लक्ष्मी के संबंधों पर ज्यादा प्रकाश नहीं पड़ा है।
उपन्यास में यथार्थ साहित्य और चित्रकला के माध्यम की प्रकृति के अनुरूप रूपान्तरित होकर उभरा है। ऐतिहासिक घटनाएं साहित्य दृष्टि में रूपान्तरित होकर आयीं है तो उनका परिवेश चित्रकला की कलम से रूपायित हुआ है। इसकी भाषा केवल अभिधात्मक या सूचनात्मक नहीं है बल्कि विचार, अनुभव और चेतना के विकार का माध्यम है। उसमें सृजनात्मक संभावना और नये रूपाकार की अवधारणा निहित है। इस तरह ‘‘बत्तीस राग गाओ मोला’’ उपन्यास की भाषा बहुआयामी अर्थ और रूप वाली है। इसमें उपन्यासकार ने साहित्यगत यथार्थ को अपना सरोकार बनाया है। उपन्यासकार अपने नायक के जीवन की गाथा को भाषा के बहुस्तरीय प्रयोग की एक विशिष्ट प्रणाली में संप्रेषित करता है।
साहित्य की रचना या यों कहें कि किसी भी कलाकृति की रचना का आधार एक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और भाषाई परिवेश होता है। परिवेश बदलता है तो उसका प्रभाव छाया साहित्य और कला दोनों में ही बदलते बिम्बों और प्रतीकों में, रंगों और रेखाओं में और तानों तथा रागों में दिखाई देता है। अपने परिवेश की मुख्य प्रवृत्ति से या परिवेश की मुख्य चुनौतियों से लेखक या कलाकार का मत अलग हो सकता है लेकिन यह प्रवृत्ति और ये चुनौतियां कलाकृति में अवश्य उपस्थित रहती हैं। बिष्ट जी अपने लेखन में इस प्रवृत्ति और उसकी चुनौतियों को लगातार उजागर करते हैं।
उपन्यास ‘‘बत्तीस राग गाओ मोला’’ साहित्य और उसके परिवेश के संबंधों पर एक बड़ी टिप्पणी है। इस उपन्यास में उत्तराखण्ड और वहां के गोरखा शासन काल का जिस तरह वर्णन किया गया है उससे देश और काल सजीव बन गया है। इसमें स्थानीय रंग और प्रादेशिक विवरण कुछ इस तरह का है कि वह आंचलिक उपन्यास का रूप लेता है।
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