विनीता यशस्वी
पिछले कुछ वर्षों से मैं यह लगातार सुनती आ रही थी कि शिप्रा नदी को फिर से साफ करने और उसके पानी को वापस लाने के लिये ‘शिप्रा कल्याण समिति’ के द्वारा प्रयास किया जा रहा है। नाला बन चुकी शिप्रा में जब पानी नजर आने लगा तो लगा कि काम सच में हो रहा है। इसके बारे में ज्यादा जानने-समझने के लिये मैं लाल सिंह चौहान और जगदीश नेगी से मिली।
वे लोग मुझे श्यामखेत वाले जंगल में ले गये। गाड़ी से उतर कर आगे पैदल जाते हुए रास्ते के अगल-बगल उगे छोटे-छोटे बुराँश, काफल, बाँज के पेड़ों को दिखाते हुए चैहान जी ने बताया कि ये वे पेड़ हैं, जिन्हें काट दिया गया था। हमारी मुहिम के कारण अब ये दुबारा उगने लगे हैं। निकट ही एक नाला दिखाते हुए उन्होंने बताया कि पिछले साल तक यह नाला नीचे के प्राइमरी स्कूल में बहुत तोड़फोड़ करता था। मगर फिर हमने नाले के पानी का रास्ता बदल दिया। मेरे द्वारा यह शंका प्रकट करने पर कि पानी डाइवर्ट करने पर तो वह किसी दूसरी जगह तोड़फोड़ करेगा, चौहान जी ने कहा कि अभी बताता हूँ।
उन्होंने समझाया कि बारिश होने पर मिट्टी का सबसे बारीक कण, जो सबसे ज्यादा उपजाऊ भी होता है, सबसे पहले बह जाता है। बारिश का लगभग 50 प्रतिशत पानी बह जाता है और कुछ वाष्पीकरण में चला जाता है। मात्र डेढ़ से दो प्रतिशत पानी ही ऐसा है, जो जमीन के अंदर जाता है। भूगर्भ में जाने वाले इस पानी की मात्रा को बढ़ा कर तीन प्रतिशत तक करने के लिये तरह-तरह की योजनायें बनायी जाती हैं। हमने पानी बचाने की ‘ए.एन.आर.’ यानी ‘एसिस्टेड नैचुरली रिजनरेटड’ तकनीक को अपनाया है। सरल भाषा में कहें तो एक तरह से प्रकृति को मदद करना कि वह स्वयं ही अपने आप को सँवार ले। हम अपनी ओर से टाॅप साॅयल बचाने, पानी की गति कम करने, पानी की मात्रा बढ़ाने और जंगलों को आग और महिलाओं की दरातियों से बचाने जैसे काम करते हैं। इसी यहाँ काफल, बाँज, बुराँश के जंगल अब दुबारा उगने लगे है।
चलते-चलते हम नाले के मुँहाने पर पहुँचे। वहाँ पर नाले के इर्द-गिर्द एक खाल बनायी गयी थी, जिसमें पानी रुक भी रहा था और इधर-उधर जाकर जमीन का कटान भी नहीं कर रहा था। ऊपर जंगल में भी हर जगह ऐसे ही खाल और खन्ती बने हुए दिखायी दिये। यहाँ की मिट्टी भी हल्की-हल्की नमी वाली दिख रही थी। चौहान जी ने बताया कि इस तरह खाल बनाने से फायदा से होता है कि पानी यहीं पर गिरता है और यहीं रुक जाता है। इससे मिट्टी भी बच जाती है और पानी की गति भी कम हो जाती है। नम मिट्टी में यदि कोई बीज पड़ेगा तो उसे जमने में आसानी होगी। एक खन्ती एक बार में डेढ़ हजार लीटर पानी रोक लेती है।
चौहान जी ने बताया कि खाल और खन्तियाँ हर जगह नहीं बनाये जा सकते। जिस जगह इन्हें बनाया जा रहा हो, उस जगह का स्लोप 30 डिग्री से ज्यादा का नहीं होना चाहिये। वहाँ गंधक और चूने की मात्रा नहीं होनी चाहिये। चूना और गंधक होने से वहाँ पर विस्फोट हो जायेगा। इनका एक खास डिजाइन होता है। इन्हें ढालदार बनाया जाता है, ताकि कितना भी तेज पानी क्यों न आ जाये वह इसे काटे नहीं। सामने की ओर यह सीधा होता है और खोदी हुई मिट्टी को उसके सामने चादर की तरह बिछा दिया जाता है। पानी भर जाने पर वह एकदम बहता नहीं, बल्कि सामने की चादर पानी को सोख लेती है। इसे ‘एंगल आफ रिपोज’ कहा जाता है। इस तरह होता है जल संरक्षण। जिस जगह पानी गिरा, उसे वहीं पर रोक दिया गया। इसी तरह जमीन में जगह-जगह 15 सेमी. के गड्ढे खोद पानी इकट्ठा करने के लिये ‘ओवरिंग’ भी की जाती है। मिट्टी में घास लगा कर भी जल संरक्षण किया जाता है। पर अगर यही काम किसी नौले या धारे के पास करना हो तो उसे ‘जल संवर्द्धन’ कहा जायेगा, क्योंकि तब हमारा उद्देश्य नौले के पानी को बढ़ाना होगा।
ये सारे काम इतने वैज्ञानिक तरीके से होते हैं कि हम मजदूरों के भरोसे इन्हें नहीं छोड़ सकते। जब भी खाल और खन्तियाँ बनानी होती हैं, तो हम जगह चुनते हैं और निशान लगाते हैं कि किस साइज की खाल और खन्ती बनेंगी। इस काम में जरा भी लापरवाही हुई तो ये सब बम की तरह हो जायेंगे और तबाही मचा देंगे।
‘वाटर हारवेस्टिंग’ के लिये पहले जल को बोया जाता है। सीमेंट के टैंक बनाये जाते हैं या प्लास्टिक की पन्नियाँ लगायी जाती हैं। इसे ज्यादातर खेतों वाले इलाके में किया जाता है। इससे बरसात का पानी जमीन में न जा कर टैंकों में इकट्ठा हो जाता है, जिसे फिर अलग-अलग कामों के लिये इस्तेमाल किया जा सकता है। इन कामों का असर शिप्रा नदी में नजर आने लगा है और अमृत सरोवर में पानी की मात्रा बढ़ती जा रही है।
बातें करते-करते हम लोग नीचे प्राइमरी स्कूल तक आ गये थे। सर्दियों की छुट्टी के बाद स्कूल का पहला दिन था और बच्चे कम आये थे। एक शिक्षक और शिक्षिका थे। उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि जब से इन लोगों द्वारा ऊपर जंगल में काम शुरू किया गया है, तब से बरसात में नाले में पानी बढ़ना बंद हो गया है और उससे होने वाली टूट-फूट भी रुक गयी है।
भवाली अस्पताल के आगे की जमीन में ‘शिप्रा कल्याण समिति’ द्वारा काफी अच्छा बगीचा तैयार किया गया है। कई सारे फलों के पेड़ लगाये हैं। अब ये अच्छे खासे बड़े हो गये हैं और अनेक में तो फल भी आने लगे हैं। अस्पताल के ऊपर भी एक नाला है, जो पहले अस्पताल के लिये मुसीबत था। अब वहाँ पर भी एक काफी बड़ी खन्ती का निर्माण करके नाले के पानी को उस खन्ती की ओर मोड़ दिया गया है, जिससे पानी भी एकत्र हो जाता है और टूट-फूट भी नहीं होती।
यहाँ से हम घोड़ाखाल रोड की ओर निकल गये, जहाँ नाले से लगी जगह में भी इसी तरह की टूट-फूट़ होती थी और आसपास के इलाकों में खतरा बना रहता था। यहाँ भी इसी तरह जल संरक्षण के काम किया गये है। यहाँ ऊँचाई में एक तालाब भी बनाया गया है, जिसकी क्षमता तीन लाख लीटर की है। खाल और खन्तियों को क्रमबद्ध तरीके से बनाया गया है। लम्बे समय से बारिश न होने के बावजूद उनमें थोड़ा-थोड़ा पानी नजर आ रहा था। खूब झाड़ियाँ और पेड़ पनपने लगे हैं, जिनमें चिड़ियों और तितलियों ने अपना बसेरा बना लिया है। सिर्फ इन्सान ही अपनी फितरत से बाज नहीं आता। कई जगह पेड़ों और झाड़ियों को काटने के चक्कर में नुकसान पहुँचाया गया है।
एक नाले के पास खड़े होकर चौहान जी ने बताया कि चाल बनाने के लिये नाले की सबसे चौड़ी जगह पर कढ़ाही के आकार का गड्ढा खोदा जाता है। जब इसमें पानी भर जाता है तो वह आगे बढ़ जाता है। इस गड्ढे से पानी की चाल में कोई फर्क नहीं पड़ता, पर पानी का संग्रह भी हो जाता है। इसीलिये इसे चाल कहा जाता है।
अगला मुकाम घोड़ाखाल से लगा जंगल था। यहाँ भी खाल और खन्तियों से पानी को रोका गया है। जंगल में खूब पिरूल है, पर उसके साथ-साथ बाँज, बुराँश, काफल, हिसालू, पहिया, रिंगाल के साथ कई तरह की झाड़ियाँ उगी हुई हैं। उत्तर और दक्षिण, दोनों तरफ बाँज का खूब घना जंगल है। दुबारा पनप रहे पेड़ों की काट-छाँट की गयी है ताकि वे स्वस्थ रूप में बड़े हो सकें। इस काम के लिये स्थानीय निवासियों को ही रखा जाता है। उन्हें एक तरह से रोजगार भी मिल जाता है। इस काम में इन लोगों के पास जो भी पैसा था सब खर्च हो गया और फिलहाल पैसा न होने के कारण काम रुका हुआ है। पर जब कहीं से पैसों का सहयोग मिलेगा तो इस काम को फिर शुरू करेंगे। ये सारे काम ये लोग अपने ही दम पर करते हैं। कुछ लोग मदद करते हैं, परन्तु ज्यादातर पैसा अपनी जेब से ही जाता है। नैनीताल जिले की जिलाधिकारी वंदना सिंह ने भी अपनी ओर से सहयोग किया है। वे शिप्रा में छोटे-छोटे बांध बनवाने वाली हैं ताकि पानी को रोका जा सके।
फिलहाल इन लोगों की चिंता इन पेड़ों को आग से बचाने की है। जंगल में कहीं भी कोई धुँआ उठता दिखता है तो भागे-भागे आते हैं देखने के लिये। रोज का एक-एक चक्कर तो इन जंगलों में लगता ही है। इस काम में गाँव के लोग तो सहयोग करते ही हैं, कुछ अन्य लोग भी आकर मदद करते हैं। पिरूल को इकट्ठा कर बीच में उसका ढेर लगा देते हैं, जिससे आग नहीं लगती। पिरूल में आग तभी लगती है जब कोई उसे जला दे। जमीन के ऊपर पिरूल हो या कोई भी घास, या पत्ते बिछे रहें तो वे गद्दे का काम करते हैं और जमीन को बचाते हैं।
चौहान जी मुझे उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रहे शैलेन्द्र प्रताप सिंह के घर भी ले गये। यहाँ भी चौहान जी ने काफी प्रयोग किये हैं। भवाली गैस गोदाम के पास वाले इलाके में भी नाले के पानी से काफी टूट-फूट हो रही थी, जिसे ‘शिप्रा कल्याण समिति’ ने ठीक किया और पानी की समस्या से भी छुटकारा दिलाया है। यहाँ मौजूद बड़ी सी खन्ती में अभी भी इतनी नमी है कि हिसालू की झाड़ी अच्छी तरह से पनप रही है। इतना शानदार हिसालू शायद ही पहले कभी देखा हो। इस बार उस पर आने वाली तितलियों, मधुमक्खियों, चिड़ियों और बाकी जीव-जन्तुओं की तो दावत पक्की है। चन्ना जी के घर का बगीचे में भी तरह-तरह के फल के पेड़ चैहान जी की तकनीकी सलाह से लगाये गये हैं। यह इलाका थोड़ा गर्म है। इसलिये यहाँ मैदानी क्षेत्र में होने वाले फलों के पेड़ लगाये हैं। कीवी के पेड़ भी हैं, जो जल्दी ही फल देना शुरू कर देंगे।
अंत में हम लोग चौहान जी के घर गये। अपने घर में उन्होंने ‘रूफ टाॅप रेन वाॅटर हारवेस्टिंग’ कर रखी है, जिसके माध्यम से बरसात का पूरा पानी एक बड़ी टंकी में इकट्ठा हो जाता है, जो सूखे के समय में काम आता है। चौहान जी के घर में लगे बेहद मीठे माल्टों की दावत की साथ उनकी पत्नी और पड़ोसियों के साथ बातें करते हुए दिन का समापन हुआ।
शिप्रा नदी को फिर से जिंदा करने में जगदीश नेगी जी और लाल सिंह चौहान जी ने बहुत महत्वपूर्ण काम किया है।