चन्द्रशेखर तिवारी
कथाकार मुकेश नौटियाल पहाड़ के युवा पीढ़ी के अग्रज कथाकार हैं। ‘सीमांत लोक की कहानियाँ’ नाम से उनका एक सद्य प्रकाशित कथा संग्रह हाल ही में आया है। पहाड़ के लोक में रची-बसी 24 छोटी-छोटी कहानियों की श्रंखला हमें इस संकलन में मिलती है. मुकेश नौटियाल जी ने अपने बालपन में दादी और माँ से सुने किस्सों और यथार्थ में भोगे उस सुनहरे दौर को अपने शब्द-रंगों से बहुत बारीकी से कागज़ में उकेरने का प्रयास किया है। कथा संग्रह में शामिल इन एक से बढ़कर एक किस्से-कहानियों को पढ़कर आभास होता है कि कथाकार का उद्देश्य इन कहानियों के माध्यम से पाठकों को साहित्यिक मनोरंजन देना भर ही नहीं है अपितु उससे इतर सैकड़ों सालों से समाज में स्थापित लोक विज्ञान की मान्यताओं को सामने लाने की एक ईमानदार कोशिस भी है।
कथाकार ने लोक विज्ञान में निहित इन विविध शैक्षणिक भावनाओं को बहुत संजीदगी के साथ स्थानीय परिवेश के पात्रों व शानदार बिम्बों के जरिये उजागर किया है। इन किस्से-कहानियों से साफ पता चलता है कि सदियों से अनवरत चली आ रही प्रकृति व समाज आधारित इन मान्यताओं से हमारा तथाकथित आधुनिक समाज किस कदर दूर होता जा रहा है। इस कथा संकलन में आयीं ‘गाँव को ठेंगा’, ‘इकतारा बोले’, ‘आमों वाला गाँव’, ‘नीचे विलसन ऊपर बाघ’, ‘हजार बरस पहले की बात’,‘घर आई गौरैया’, ‘गंजा पहाड़’, ‘बिसराता गाँव’, ‘आयेगा एक दिन’ और ‘भगवान के उजाले’ जैसी कहानियों को कमोवेश इसी परिधि में रखा जा सकता है। पहाड़ी ढाल से उतर कर घाटियों और मैदानों में बसने की प्रवृति, पलायन क़ा दंश, लुप्त होते परम्परागत बीज, हमारे आसपास से दूर होते परिंदे और डांडी-कांठो से गायब होती हरियाली के प्रति कथाकार के मन में जो गहन टीस उभरकर आयी है उसे उसने ‘इकतारा बोले’, ‘गांव को ठेंगा’, ‘घर आयी गौरैया’ व ‘गंजा पहाड़’ कहानियों के ताने-बाने में बुनकर परिलक्षित किया है।
बदरीनाथ को पैदल जाते जोगी के इकतारे की धुन पर झूमती हरी कद्दूओं की बेलें और दादी की सहृदयता को लेकर मुकेश नौटियाल ने ऐसा अद्भुत बिम्ब खींचा है कि एक बार में ही गांव क़ा समूचा दृश्य उभर कर आँखों के सामने आ जाता है। ‘इकतारा बोले’ शीर्षक से यह कहानी जहाँ पहाड़ के हमारे परम्परागत बीजों के संरक्षण प्रति पाठक का ध्यान खींचती है वहीं यह सरल रूप में बच्चों व किशोर उम्र के विद्यार्थियों को भी इस बात का आभास कराने में सक्षम है कि मानव बिरादरी की तरह पादप बिरादरी के भी अपने-अपने पुरखे होते हैं। जैसे बेल पर झूमते युवा कद्दूओं ने अपने उस बिरादर बूढ़े कद्दू (जो जोगी के इकतारे में लगा था) को आसानी से पहचान लिया।
‘गाँव को ठेंगा’ कहानी दरअसल मानव के जंगल,खेती तथा वन्यजीव के आपसी साहचर्य के संबंधों को गहराई के साथ रेखांकित करती है। बदलते दौर में जहां गाँव के लोग जंगलों के निकट की बसाहट से हटकर अब सिंचित खेतों व बाजार की तरफ रूख करने लगे हों तो वहाँ के भू-उपयोग के साथ-साथ मानव और वन्यजीवों के व्यवहार व अनुकूलन में भी बदलाव आना स्वाभाविक है। तभी तो कथाकार कहता है कि आदमियों की संख्या बढ़ने और पैदावार घटने के साथ जो नई बात हुई वह ये कि अब बंदरों व लंगूरों में दोस्ती हो गयी है। वो एक साथ आते हैं, दावत उड़ाते हैं और गाँव को ठेंगा दिखाकर वापस लौट जाते हैं. हम बस! देखते ही रह जाते हैं।
इसी तरह ‘गंजा पहाड़’ कहानी साफ तौर पर पर्यावरण के सतत संरक्षण की ओर इशारा करती है। कहानी का संक्षेप में सार यह है कि पेड़-पौधों से युक्त समृद्ध प्राकृतिक परिवेश के बगैर मानव के सुखमय जीवन की कल्पना सम्भव नहीं की जा सकती। हरियाल गाँव के मुखिया गम्फू की सूखी धरती में पेड़ लगाने की सनक एक दिन गांव के सिहराने खड़े नंगे पहाड़ को पेड़ पौधों से झक्क हरा-भरा कर देती है। गांव वालों के लगातार सामूहिक मेहनत सहयोग से वहां अब देवदार क़ा घना जंगल उग आया है. मुखिया गम्फू गांव वालों से कहता है कि गंजे पहाड़ के शिखर को अगर हरियाली से भर दिया जाय तो उनका इलाका समृद्धि से लहलहाने लगेगा।मवेशियों को ज़्यादा चारा मिलने लगेगा और जलावन लकड़ी क़ी कमी भी नहीं रहेगी।
कथाकार मुकेश नौटियाल कई सालों से देहरादून में रहते हुए भी गाँव-पहाड़ कि जड़ों से अपने को विलग नहीं कर पाए हैं। यही कारण है कि अमूमन उनकी हर कहानियों में पहाड़ क़ी उपस्थिति बराबर बनी रहती है.उनके कथानकों में दुबका हुआ पहाड़ खुद ब खुद प्रकट हो जाता है, उसका एक-एक दृश्य जीवंत हो उठता है। चाहे वह ऊँचे वन प्रान्तर में दहकते लाल बुरांश की दमक या हिलांस की कूक …हो, दिन ढलते सूरज की मद्धिम ताप स्वीली घाम हो,…घर-घर ऋतुरैण गाते कलावन्त…हों अथवा हूणिया दादा और विविध सामानों से लदी उनकी भेड़ों का लाव-लश्कर हो ,या फिर उपरीखंडा गांव की उस भोली-भाली लड़की के गाल में उभर आयी अंगुलियों की हल्की छाप के निशान हों..!!
सीमांत लोक की कहानियों में एक आम पहाडी समाज़ की पीड़ा भी मुखरित हुई है। सीमान्त जनपद रूद्रप्रयाग मुख्यालय से लगा कथाकार का पुश्तैनी गांव देहरादून में भी उनका पीछा नहीं छोड़ता। लुकाछिपी के इस खेल में कभी उनका गांव पहाड़ आगे तो कभी कथाकार पहाड़ के पीछे आ जाता है। कथाकार अपनी इसी रचनाधर्मिता के उपक्रम में बचपन की अनमोल यादों किस्से-कहानियों के सहारे पहाड़ में बिताये बचपन को जीवंत बनाये रखने में सफल रहा है। इसी वजह से मुकेश नौटियाल की हर कहानियां पहाड़ को आत्मसात करने, जानने और समझने को उद्यत करती हैं।
मेरी नजर में ‘स्कूल में अन्ना‘, ‘मुहांसा‘ और ‘छाप‘ इस कथा संग्रह की कहानियों में सर्वोत्तम कहानियां है। इन कहानियों में कथाकार ने मानवीय रिश्तों और उनकी संवेदनाओं को बड़ी गहराई के साथ चित्रित किया है। ’स्कूल में अन्ना’ कहानी चाचा और तीन साल के छोटे अबोध बालक के निच्छल प्रेम को अत्यंत मार्मिक रुप से उजागर करती है। अन्ना को परिवार से मीलों दूर उसकी मां के साथ पढ़ाई के लिए भेज दिया जाता है। वह वहां एकाकीपन में अपने को असहाय पाकर स्कूल के सामने खड़े अखरोट के बेजुबान पेड़ों से बड़ी मासूमियत के साथ बतियाता रहता है….चाचा जब मैं घर आउंगा तब तुम्हारे लिए अखरोट लाऊंगा।……तुम दादी को परेशान करोगे तो तुमको भी यहां स्कूल में छोड़ दिया जायेगा…..।
’मुंहासा’ और ‘छाप‘ कहानी में स्कूली जीवन में स्वाभाविक तौर से उपजे निच्छल प्रेम का चित्रण बहुत ही मासूमियत ढंग से पाठकों के बीच आया है।बचपन में पढ़ाई के दौरान अपने कुछ प्रिय संगी-साथियों के साथ बितायी वे तमाम चुलबुली यादें कथाकार के मन में दशकों बाद भी गुदगुदी पैदा करती हैं। निश्चित ही यह दोनों कहानियां किशोरवय के उद्दात प्रेम को प्रदर्शित करती हैं। तीस-चालीसेक सालों बाद भी ऑफिस में खाता खुलवाने आयी अधेड़ महिला जशोदा द्वारा आंख के उपर उग आये मुंहासे को छेड़ने से बचाने को रोकने को मारी गयी हथेली की हल्की चपत तथा गांव जाते समय समखंडा बाजार में चायपानी की दुकान चला रही महिला कुंवरी के नरम गालों पर मास्टर जी के आदेश पर न चाहते हुए भी मारे गये थप्पड़ और दो दिन तलक पड़ी उन अंगुलियों के छाप की उस सुनहरी छवि को कथाकार आज भी याद कर भावुक हो उठता है।
कथाकार मुकेश नौटियाल की इन कहानियों को पहाड़ी परिवेश, उनकी गहन संवेदनाओं और नॉस्टेलेजिया तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता। संग्रह में शामिल इनकी कई कहानियां प्रत्यक्ष व परोक्ष रुप से पहाड़ को उसके मूल सामाजिक, सांस्कृतिक व प्राकृतिक परिवेश को किसी न किसी तरह बनाये रखने व उसे बचाने का आह्वान भी करती दीखती हैं।
कहानियां आकार में भले ही छोटी हैं परन्तु अपने ठोस कथानक, सधी भाषा, सतत प्रवाह,स्थानीय बिम्ब, प्रतिमानों के जरिए कथाकार पाठकों तक अपनी बात रखने में कामयाब रहा है। इस संग्रह में शामिल ’हाथी पहाड,’ ’किसके अण्डे’, ’मालदेवता के कौवे’,’इकतारा बोले’,आमोंवाला बाग,’’पीछे-पीछे’,’हजार बरस पहले की बात,’ ‘अंधेरे में उजाले की बातें’, ’बिजूका’ और ’भगवान के उजाले’ एक तरह से सम्पूर्ण बाल कहानियां हैं। यह कहानियां जहां एक ओर बाल व किशोर मन की प्रकृति और विज्ञान आधारित अनेक जिज्ञासाओं और सवालों को अनायास उठाती हैं, वहीं यह उन महत्वपूर्ण बिंदुओं का समाधान भी उतनी ही तत्परता व सहजता से कर देती हैं। इस दृष्टि से यह कहानियां बच्चों में वैज्ञानिक चेतना विकसित करने में भी उपयोगी कही जा सकती हैं।
इस संग्रह में कई जगहों पर छुटपुट स्थानीय दुदबोली के शब्द भी आये हैं। व्यक्ति व स्थान नामों में इन शब्दों की स्थानीय ठसक व मिठास बड़ी भली लगती है। साहित्यकार व चित्रकार शशिभूषण बडोनी के आकर्षक रेखांकनों के समावेश से यह कथा संग्रह निखर उठा है। कहानियों के सभी शीर्षक प्रभावित करते हैं। दो-एक कहानियों को छोड़कर अन्य सब कहानियां लघु रुप में दर्ज हुई हैं।
निष्कर्ष रुप में इस संग्रह में शामिल कहानियां बिना लागलपेट के अपने कथ्य को सरलता के साथ कहने में समर्थ हैं। कथा साहित्य में रुचि रखने वाले पाठकों और कंप्यूटर व मोबाइल युग में बच्चो व किशोरों के लिए यह कथा संग्रह खास साबित होगी ऐसी आशा है। इन कहानियों के मूल में निहित दृष्टि हमारी संवेदनशीलता को हमेशा बनाये रखे, इसी कामना के साथ कथाकार श्री मुकेश नौटियाल और काव्यांश प्रकाशन के श्री प्रबोध उनियाल को इस संग्रह के प्रकाशन पर कोटिशः बधाई व हार्दिक शुभकामनाएं।