मध्य प्रदेश के जबलपुर से एक रजवाड़े परिवार से संबंध रखने वाली सरोजिनी सिंह पौड़ी के प्रतिष्ठित सुरेन्द्र सिंह बर्तवाल के घर पर उनकी पुत्र वधू बन कर 1958 में आई थीं, किंतु पति वीरेंद्र जो तब नवभारत टाइम्स बंबई के चीफ सब एडिटर थे, के साथ चली गई इसके कारण पौड़ीवासी ठीक से उनकी मुंह दिखाई नहीं कर सके। पुरानी पीढ़ी के भी बहुत कम लोग इन्हें जानते होंगे।
इनकी कहानी भी बहुत रोचक थी। इनके ससुर पौड़ी के जाने माने व्यक्ति थे। कला संगीत के पुरोधा के अतिरिक्त 1923 से 1952 तक जिला बोर्ड के सचिव रहे सुरेन्द्र सिंह का घर पौड़ी के संगीत प्रेमियों का एक प्रमुख ठौर होता था। इन्होंने 1958 में अपने पुत्र सुरेंद्र के लिए सुशील और कला संगीत में निपुण कन्या की तलाश के लिए तब हिंदी अंग्रेजी के अखबारों में एक विज्ञापन प्रकाशित करवाया। इस क्रम में जबलपुर से एक प्रस्ताव भी आ गया। लड़की के भाई तब रीवा मध्य प्रदेश में जिला जज और पिता पुलिस में पुलिस अधीक्षक के पद पर थे। इस तरह कन्या देखने के लिए पौड़ी रुद्रप्रयाग से रिश्तेदारों को लेकर सुरेंद्र सिंह बर्तवाल रीवा जा पहुंचे। यहां पर्दे में रह कर कन्या और सुरेंद्र सिंह के बीच पुत्र के विवाह को लेकर चर्चा हुई। इसके बाद उन्होंने होने वाली बहु सरोजनी जो स्वयं संगीत में निपुण और एम ए परीक्षा पास थी साथ ही सितार में विशेष निपुणता प्राप्त थी,से राग मालकोष पर कुछ सुनने के लिए कहा। इस पर सरोजिनी ने उन्हें अपनी रचना सुना के मंत्र मुग्ध कर दिया। किंतु उन्होंने यह भी कह दिया कि तुमने अपने गायन में माल कोष में दो स्वर कम लगाए। ऐसा सुनकर सरोजनी हतप्रद रह गई, और उन्होंने इस संगीत प्रेमी परिवार से रिश्ता करने में हामी भर दी किन्तु सरोजनी और उनका परिवार सुदूर गढ़वाल में अपनी बेटी को भेजने के लिए दूरी को लेकर चितित था। अंततः विवाह की तैयारियां पौड़ी में शुरू हो गई, बारात छतरपुर शहर गई। आना—जाना लगभग सप्ताह भर का रहा।
पौड़ी का यह ऐतिहासिक विवाह 1958 में हुआ था। दुल्हन बनकर सरोजनी जब कोटद्वार के रास्ते सर्पीले मार्गों से पौड़ी पहुंच कर पस्त हो चुकी थी। पर अगली सुबह हिमालय की सुंदरता ने उन्हें मंत्र मुग्ध कर दिया। अभी कुछ ही दिन हुए थे कि ससुर जी ने उन्हें पुत्र के साथ बंबई जाने के लिए कह दिया। इस तरह सरोजनी मुंबई जा कर रहने लगी,यही उनके पुत्र हेमेंद्र का जन्म हुआ।
कुछ अरसे के बाद उनके पति वीरेंद्र सिंह का ट्रांसफर दिल्ली नवभारत टाइम्स में समाचार संपादक के रूप में हो गया। और फिर वे परिवार के साथ दिल्ली आ गई। उन दिनों नवभारत टाइम्स के फीचर संपादक सुप्रसिद्ध लेखक अज्ञेय जी थे,जो संगीत कला का कॉलम लिखवाने के लिए उपयुक्त व्यक्ति की तलाश में थे। तब उनके सहयोगियों ने बताया कि समाचार संपादक जी की पत्नी सरोजिनी बहुत ही कला संगीत की मर्मग्य और समीक्षक है, उन्हें यह दायित्व दिया जाय। संपादक जी द्वारा वीरेंद्र बर्तवाल जी बड़ी मुश्किल से इसके लिए तैयार हुए।
इस तरह सरोजनी जो अब पूरी तरह देश में अपनी संगीत साधना और कला समीक्षक होने के कारण सरोजिनी बर्तवाल के रूप में प्रसिद्धि पा चुकी थीं,नवभारत टाइम्स के लिए 1970 के दशक से कॉलम लिखने लगी थी। इस तरह शास्त्रीय संगीत कला और नृत्य की समीक्षाएं लिखने वाली सरोजिनी भारतखंडे संगीत महाविद्याएं से संगीत विशारद की डिग्री लेने वाली ऐसी पहली महिला थी, जिन्होंने देश के चर्चित और प्रतिष्ठित घरानों में अपनी संगीत और राग रागनियों के समारोह में भागीदारी कर अपने हुनर से परिचित कराया। उन्होंने लाहौर घराने के प्रसिद्ध उस्ताद दिलीप चंद के साथ शास्त्रीय संगीत की गहन प्रशिक्षण लिया था। इस तरह उन्होंने 1980 के दशक तक नामचीन कलाकारों बेगम अख्तर, मुन्नी बेगम, बिस्मिल्ला खा, विलायत खा, तबला वादक जाकिर हुसैन आदि के संगीत गायन, वादन की समीक्षा लिख कर नवभारत टाइम्स को भी बुलंदियों पर पहुंचाया।
सरोजिनी बर्तवाल का पसंदीदा इंस्ट्रूमेंट सितार, तानपुरा और हारमोनियम था। आखिर इसी कला से उन्होंने अपने ससुर को भी प्रभावित किया था। उनके ससुर और उनके साडू नरेंद्र सिंह भंडारी ने मिल कर पौड़ी रामलीला में नई राग रागनियों से लोक मंच को नई बुलंदियों पर पहुंचाया था। इनके एकमात्र पुत्र हेमेंद्र बर्तवाल देश के चर्चित अंग्रेजी पत्रकारों में रहे है। हिंदुस्तान टाइम्स हरियाणा संस्करण के ब्यूरो प्रमुख के साथ दिल्ली से टेलीग्राफ के भी संवाददाता रहे है। कुछ अरसे तक उन्होंने ब्रिटिश दूतावास में राजनीतिक सलाहकार के रूप में भी कार्य किया।
मैंने सरोजनी बर्तवाल को एक बार ही पौड़ी में गर्मियों में देखा था। उनके पति वीरेंद्र और मेरे पिता बचपन के दोस्त थे। तब हेमेंद्र का नया नया विवाह हुआ था। सरोजनी अब इस दुनिया में नहीं है,पर उनकी स्मृतियों में सितार और सरोद के स्वर उनके पौड़ी स्थित पैतृक आवास के वातावरण में सुनाई देते है। यद्यपि पौड़ी में उनकी उपस्थिति बहुत कम रही पर उन्हें अपनी ससुराल से गहरा प्रेम था। इसीलिए अक्सर गर्मियों में पति और पुत्र हेमेंद्र के साथ पौड़ी की सड़कों पर चहल कदमी करते हुए देखना, किसी जागृत स्वप्न की सुखद स्मृति जैसा था। अब उनके पुत्र हेमेंद्र अपने दादा पिता और मां की स्मृतियों को संजोए हुए है।