लगभग 825 किलोमीटर लंबी चारधाम सड़क चौड़ीकरण परियोजना के पर्यावरणीय प्रभावों के आंकलन के लिये सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक समिति हाई पावर्ड कमेटी (एच.पी.सी.) नियुक्त की गई थी और प्रसिद्ध पर्यावरण वैज्ञानिक तथा डैवलपमेंट एक्टीविस्ट रवि चोपड़ा को इस समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था, परन्तु चोपड़ा, जो कि चार दशकों से हिमालई क्षेत्र में पर्यावरण के के मुद्दों पर सक्रिय रहे हैं, ने 27 जनवरी, 2022 को इस पद से इस्तीफ़ा दे दिया। इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के महासचिव को लिखे गए पत्र में उन्होंने सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय (मौर्थ) द्वारा चारधाम राजमार्ग से जुड़ी पर्यावरण संबंधी उपेक्षा पर कड़ी आपत्ति दर्ज की है। इस पत्र में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के 14 दिसम्बर 2021 के फ़ैसले का भी उल्लेख किया है जिसमें भारत चीन सीमा को जाने वाली 674 किलोमीटर सड़क के चौड़ीकरण की अनुमति दी गई है। इस फैसले में ’डबल लेन विद पेब्ड शोल्डर’ (डी.एल.पी.एस.) के आधार पर सड़क की चौड़ाई को 10 मीटर किया जाना है। इस फैसले ने मौर्थ को बची हुई गैर-रक्षा सड़क (151 किलोमीटर) को चौड़ा करने की अनुमति पाने के लिए न्यायालय से मदद लेने की छूट भी दी है। न्यायालय ने यह फ़ैसला चोपड़ा द्वारा दी गई सड़क चौड़ीकरण से होने वाले भूस्खलन और पर्यावरण को क्षति की चेतावनियों के बावजूद दिया।
चोपड़ा ने एक साक्षात्कार में बताया कि किस तरह इन निर्णयों ने एच.पी.सी. की भूमिका को प्रभावहीन करने का प्रयास किया है, और किस तरह गैर-रक्षा सड़कों के चौड़ीकरण के लिये न्यायालय के निर्णय ने मौर्थ के लिए मार्ग खोल दिया है। इन्हीं कारणों ने उनके पास इस्तीफ़ा देने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं छोड़ा।
इस साक्षात्कार के संपादित अंश निम्नवत हैंः
क्या चारधाम परियोजना में आवश्यक वैज्ञानिक अध्ययनों का अभाव है?
अपने राजनैतिक महत्व के कारण इस परियोजना को अवास्तविक समय सीमा के भीतर पूरा करने की जल्दबाज़ी की जा रही है। सावधानी पूर्वक जो आवश्यक भूगर्भीय जांचे की जानी चाहिए वह नहीं की गई हैं। उदाहरण के तौर पर, कई ढलानों में मिट्टी बची रह जाती है जिसमें पेड़ पौधे आदि उगने की सम्भावना बनी रहती है। इस मिट्टी के भीतर काफ़ी पानी रुका होता है। पानी ढलान की स्थिरता का दुश्मन होता है, जिस कारण से उसे सावधानीपूर्वक ढलान से निकालना पड़ता है ताकि ताज़ा कटे हुए ढलान को अधिक नुकसान न हो, परन्तु जहां भी हमने जांचे की सभी जगह स्थिरीकरण के इस बुनियादी उपाय को लागू नहीं किया गया था।
आपकी राय में, इस परियोजना से ऐसा क्या लाभ है जिसके लिए मौर्थ आपदाओं और मौतों का जोखिम लेने के लिए तैयार है, जबकि इस परियोजना के कारण 125 भूस्खलन हो चुके हैं, कम से कम 21 लोगों की मौत हो चुकी है, और चार लोग लापता हैं?
यह मेरे लिए एक रहस्य है जिसको जांचने की आवश्यकता है। इस समय देश में बिना पर्याप्त समझ के कई आधारभूत ढांचे तैयार किये जा रहे हैं। किसी भी युग में तकनीक आधारित प्रौद्योगिकी पर निर्भर परियोजनाओं से भारी रोज़गार प्राप्त नहीं होता है। आजकल निर्माण के अधिकांश कार्य भारी मशीनरी से किये जा रहे हैं। चार धाम मार्ग में जिन होटलों और ढाबों के मालिकों और कर्मचारियों का कारोबार है उन्हें बायपास किया जा रहा है। इस परियोजना के मार्ग में जो भी निर्माण रास्ते में आ रहे हैं उन्हें ध्वस्त कर दिया जा रहा है, जिस कारण कारोबार और रोज़गार दोनों छिन रहे हैं। यह परियोजनाएं समाज के उस छोटे से वर्ग के लिये हैं जो इतने धनाढ्य हैं कि पैसा खर्चने से पहले उन्हें सोचने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
यह परियोजना उत्तराखंड आने वाले तीर्थयात्रीयों और पर्यटकों के लिये प्रारम्भ की गई थी और इसका उद्देश्य सड़कों को इतना चौड़ा करना था कि प्रतिदिन 9,000 वाहनों को समायोजित करने के लिए ये मार्ग पर्याप्त हों। मौर्थ का एक अन्य उद्देश्य यह भी था कि इन राजमार्गों को चुंगी (टोल टैक्स) वसूलने लायक बनाया जा सके।
अपनी 2020 की रिपोर्ट में एच.पी.सी. ने सड़क की चौड़ाई 5.5 मीटर तक सीमित रखने, मलवा आदि निपटाने, अवैध पेड़ काटने, और अनावश्यक पहाड़ी काटने पर प्रतिबन्धों हेतु जो संस्तुतियों की थीं, क्या मौर्थ ने उन पर कार्यवाही की?
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है कि डी.एल.पी.एस. स्टैन्डर्ड के मुताबिक सड़क चौड़ीकरण की अनुमति तभी मिलेगी जब एच.पी.सी. की संस्तुतियों को लागू किया जाएगा। यह सुनिश्चित करना अब ’ओवरसाइट कमेटी’ (जो कि न्यायालय द्वारा गठित की गई है) एवं एच.पी.सी (जिसका कार्यक्षेत्र अब 151 किलोमीटर रह गया है) की ज़िम्मेदारी है।
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को आपके द्वारा लिखे गए 13 अगस्त, 2020 के पत्र में अवैध पेड़ों की कटाई, मलबा निपटान और पहाड़ी काटने, सीमा सड़क संगठन को दी गई पुरानी मंज़ूरी के आधार पर किए जा रहे परियोजना कार्य सहित उल्लंघनों का उल्लेख है। उस पत्र के बाद पर्यावरण मंत्रालय द्वारा क्या कार्रवाई की गई?
हमारे द्वारा दी गई संस्तुतियों और डेटा प्राप्त करने के लिय अनुरोधों को जिस प्रकार से सरकारी पदाधिकारियों द्वारा नज़रअंदाज़ किया गया, उसी प्रकार मेरे पत्र में अनुरोधित कार्रवाई को भी नज़रअंदाज़ कर दिया गया।
मैंने अपने त्याग पत्र में कहा है कि कैसे विभिन्न संस्तुतियों पर ध्यान नहीं दिया गया। इसलिए, एक अप्रभावी समिति का हिस्सा बने रहने का मेरे लिए कोई मतलब नही था।
चौड़ी सड़कों की मांग के मामले में रक्षा मंत्रालय के अचानक हस्तक्षेप पर आपका क्या कहना है, जो 8 सितंबर, 2020 के सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के बाद हुआ जिसमें पर्यावरणीय प्रभावों, और आपदा को कम करने के लिए सड़क की चौड़ाई 5.5 मीटर तक सीमित करने के निर्देश दिए गए थे?
यह बहुत स्पष्ट है कि मौर्थ ने रक्षा मंत्रालय को ढाल के रूप में इस्तमाल किया, क्योंकि 7 सितंबर, 2020 को न्यायमूर्ति (रोहिंटन फली) नरीमन द्वारा मामले की सुनवाई के एक दिन पहले मौर्थ ने एक हलफ़नामा दायर किया जिसमें कहा गया था कि वह एक डबल-लेन सड़क बनाना चाहते हैं, जिसका अर्थ है सात मीटर चौड़ाई वाली सड़क। फिर, 7 नवंबर को रक्षा मंत्रालय ने मामले में हस्तक्षेप किया और यह कहते हुए एक आवेदन दायर किया कि वह चाहता हैं कि अदालत 8 सितंबर, 2020 के आदेश पर पुनर्विचार करे, क्योंकि उसे रक्षा उद्देश्यों के लिए डबल-लेन सड़क की आवश्यकता है।
जब सड़क की चौड़ाई पर पुनर्विचार करने के लिए एच.पी.सी. की बैठक चल रही थी, तब 15 दिसंबर को डवत्ज्भ् ने अपने 23 मार्च, 2018 के उस परिपत्र में एक संशोधन प्रकाशित किया जिसमें पहाड़ो में सड़क की चौड़ाई को 5.5 मीटर तक सीमित कर दिया गया था। इस संशोधित परिपत्र में कहा गया है कि सीमा की ओर जाने वाली सड़कों में डी.एल.पी.एस. स्टैंडर्ड के अनुसार विस्तार किया जाना चाहिए, जिसका मतलब है कि सतह की चौड़ाई 10 मीटर हो और जिसके लिए सड़क को 12 से 14 मीटर चौड़ा किया जाना आवश्यक है।
पिछले साल 15 जनवरी को रक्षा मंत्रालय ने एक हलफ़नामा दाखिल किया था, जिसमें डी.एल.पी.एस. कॉन्फ़िगरेशन पर सहमति जताई गई थी। स्वाभाविक रूप से, अगर चौड़ी सड़कें मिल रही थीं तो रक्षा मंत्रालय आपत्ति क्यों करेगा? उस अर्थ में, मौर्थ ने रक्षा मंत्रालाय को ढाल के रूप में इस्तमाल किया। अंत में सुप्रीम कोर्ट ने रक्षा मंत्रालाय के अंतिम हलफ़नामे के आधार पर सड़कों के लिए डी.एल.पी.एस. कॉन्फ़िगरेशन प्रदान कर दिया।
आप भारत-चीन सीमा की ओर जाने वाली सड़कों को डी.एल.पी.एस. मानकों तक चौड़ा करने के पक्ष में नहीं थे। क्या आप अपने रुख और इसके पीछे के तर्क के बारे में विस्तार से बता सकते हैं?
एच.पी.सी. सदस्यों की बैठकों के मिनिट्स से स्पष्ट है कि सभी सदस्यों ने रक्षा आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी है। मुद्दा यह था कि रक्षा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बेहतरीन रास्ता ढूंढा जाए। एच.पी.सी. के सदस्यों के एक वर्ग ने कहा कि आवाजाही में आसानी के लिए चौड़ी सड़कों की ज़रूरत है, और दूसरे वर्ग ने कहा कि सैनिकों और उपकरणों की आवाजाही के लिए सड़क की चौड़ाई पर्याप्त होनी चाहिए, लेकिन वह चौड़ाई आपदा-प्रतिरोधी होनी चाहिए। एच.पी.सी. ने सर्वसम्मति से सहमति व्यक्त की थी कि सड़कों को चौड़ा करने के लिए जितना अधिक पहाड़ियों को काटा जाएगा, ढलान उतने ही अस्थिर और भूस्खलन के प्रति संवेदनशील होंगे। भूस्खलन से क्षतिग्रस्त सड़कें, या बाढ़ में बह गई सड़कें, रक्षा कार्यों सहित किसी के भी काम नहीं आ सकतीं।
परियोजना की प्रारम्भिक चिंताएं पर्यावरण से संबंधित थीं, पर मई 2020 में जब गलवान घाटी में चीन के साथ सीमा विवाद प्रारम्भ हुआ, उसके बाद जून 2020 में जब एच.पी.सी. के सदस्यों ने सड़कों की चौड़ाई के संबंध में मतदान किया तो 13 सदस्यों ने डी.एल.पी.एस. के समर्थन में मतदान किया और अन्य पांच सदस्यों, जिनमें मैं भी था, ने 5.5 मीटर सड़क के पक्ष में मतदान किया। हम केवल मौर्थ के 2018 के उस प्रपत्र का समर्थन कर रहे थे जिसमे पहाड़ों की सड़कों की चौड़ाई 5.5 मीटर तक सीमित की गई थी।
674 किलोमीटर के लिए डी.एल.पी.एस. स्टैंडर्ड की अनुमति देने, और शेष 151 किलोमीटर (गैर-रक्षा सड़क) को चौड़ा करने की गुंजाइश छोड़ने का निर्णय उत्तराखंड में हो रही आपदाओं और उनसे संबंधित मौतों के लिए क्या मायने रखता है, खास तौर पर जब जलवायु परिवर्तन उत्तराखंड के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन चुका है?
कई हिस्सों में डी.एल.पी.एस. भविष्य के लिए संभावित खतरे पैदा करेगा। मैं इसे पर्यावरण के प्रति असंवेदनशील परियोजना कहूंगा। उदाहरण के लिए, यदि आप (रुद्रप्रयाग ज़िले में) गुप्तकाशी से सीतापुर की ओर यात्रा करते हैं, तो एक फाटा-रामपुर खंड है जो एक बारहमासी भूस्खलन क्षेत्र है। अत्यधिक वर्षा की संभावना के चलते यह क्षेत्र भविष्य के लिए एक संभावित खतरा है।
एनएच-58 (ऋषिकेश-बद्रीनाथ राजमार्ग) पर, ऋषिकेश और देवप्रयाग के बीच तोता घाटी, और श्रीनगर बांध के पास फरासू गांव अब भूस्खलन के कारण बारहमासी खतरे में हैं। टंगणी के आसपास का इलाका बेहद संवेदनशील इलाका है। खंड के एक हिस्से में आधी सुरंग का प्रस्ताव रखा गया है जो पर्याप्त नही है। फिर आपके पास लामबगड़ है जहां सड़क को चौड़ा करने के लिए नदी के लगभग आधे हिस्से को घेर लिया गया है और अलकनंदा नदी इस घेराव के लिए क्षमा नहीं करेगी।
नदी घाटियों में अवैध रूप से फेंके जा रहे पहाड़ी कटान से निकलने वाले मलबे से छोटी-छोटी पहाड़ी धाराओं में बाढ़ का भी खतरा है।
एच.पी.सी. अध्यक्ष के रूप में आपका अनुभव उस एक्सपर्ट बॉडी (ई.बी.) की अध्यक्षता से अलग कैसे था, जिसने 2013 में उत्तराखंड में बाढ़ से संबंधित आपदा में जलविद्युत परियोजनाओं के प्रभावों की समीक्षा की थी?
ई.बी. के सदस्यों के बीच में मुद्दे कम तनाव के साथ हल कर लिये जाते थे। ई.बी. के बाद पर्यावरण मंत्रालय ने (विनोद) तारे समिति की नियुक्ति की, जिसने ई.बी. की तरह ही संस्तुतियां दी थीं। फिर, मंत्रालय ने एक तीसरी समिति नियुक्त की (बी.पी. दास की अध्यक्षता में, जिसने 26 निर्माणाधीन और प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनाओं के कार्यान्वयन का सुझाव दिया)। लेकिन सौभाग्य से, ई.बी. रिपोर्ट का कुछ प्रभाव पड़ा है क्योंकि 24 जलविद्युत परियोजनाएं (जिनमें से 23 को ई.बी. द्वारा रद्द करने का सुझाव दिया गया था) अब भी स्टे ऑर्डर के अधीन हैं।
साथ ही, एच.पी.सी. में हमने जिस तरह के अनादर का अनुभव किया, उसका सामना ई.बी. में नहीं हुआ, जहां हमें सरकारी एजेंसियों से मांगी गई सूचना हमेशा प्राप्त हुई। इस बार सरकारी ढांचे ने कोई सहयोग नहीं किया। न तो ज़िलाधिकारी और न ही मौर्थ हमारे साथ जानकारी साझा करने को तैयार थे। पर्यावरण मंत्रालय ने हमारे अनुरोधों का जवाब नही दिया। असहयोग के बावजूद, हमने अपनी प्राथमिक ज़िम्मेदारी पूरी की और सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार चार धाम परियोजना का मूल्यांकन किया और सुझाव दिये जो न्यायालय में प्रस्तुत किये गए। अब सुझावों का पालन किया जाता है या नहीं, यह सर्वोच्च न्यायालय और मौर्थ को तय करना है।
एच.पी.सी. के बाद चार धाम परियोजना के लिए ओवरसाइट कमेटी का गठन किया गया है। जलविद्युत परियोजनाओं के मामले में भी ई.बी. के बाद दो अन्य समितियों का गठन किया गया था। अनेक समितियों का गठन एक स्वीकार्य प्रथा कैसे बन गई है?
सरकार इस तरह की हरकतें करती जाती है क्योंकि कई लोगों को सही सूचनाएं नहीं मिलती हैं, और अन्य को अपनी इस भूमिका का आभास नहीं होता कि उन्हें गलत के खिलाफ़ बोलना चाहिए। सरकार के लिए लोगों की चुप्पी का अर्थ है उनकी सहमति। जनता को अधिक जागरूक होकर अपनी सहभागिता को बढ़ाना चाहिए, इसके साथ ही सरकार द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में लोगों की भागीदारी खत्म करने की कोशिश को समझा जाना ज़रूरी है।
आप सरकार द्वारा नियुक्त समितियों में को-ऑपटेड सामाजिक कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों के साथ क्या सबक साझा करेंगे?
मैं ’को-आपटेड’ के बजाय ’शामिल’ शब्द का उपयोग करूंगा। लोगों (सामाजिक कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों) के लिए ऐसी समितियों में शामिल होना आवश्यक है ताकि कई सूचनाएं, जो सार्वजानिक नहीं हैं, उन्हें सार्वजनिक किया जा सके, और सूचनाओं को उजागर करने के लिए ऐसे अवसरों का उपयोग करना महत्वपूर्ण है। जब ऐसे सदस्य समितियों के कामकाज और निर्णय लेने में कुछ गलत देखते हैं, तो उन्हें इसके खिलाफ़ बोलना भी चाहिए। लेकिन, जो कोई भी इन समितियों में शामिल हो, वह राजनीतिक रूप से भोला नहीं होना चाहिए। यह मेरी ओर से एक कमज़ोरी रही होगी कि मैंने समिति की राजनीति को शीघ्रता से नहीं समझा। हमेशा कार्यपालिका ही किसी भी समिति के सुझावों को लागू कराती है। हम एच.पी.सी. के सुझावों को लागू नहीं करा पाए, पर मैं उम्मीद कर रहा हूं कि शायद नई ओवरसाइट कमेटी, जिसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश (ए. के. सीकरी) कर रहे हैं, अधिक प्रभावशाली होगी।
एच.पी.सी. अध्यक्ष के रूप में आपने जो काम किया है, उसे आप कैसे आगे बढ़ाएंगे?
अब मैं अत्यधिक बिखरी हुई समिति चलाने के तनाव से मुक्त हूं। पहली बार, मेरे काम ने मेरे स्वास्थ्य पर असर डाला। अब मैं निश्चित रूप से बोलने और लिखने के माध्यम से पर्यावरण के मुद्दों पर सार्वजनिक शिक्षा दूंगा।
न्यूज 9 से साभार लिये गये इस साक्षात्कार की साक्षात्कारकर्ता कविता उपाध्याय हैं
अनुवाद : समाचार डेस्क