बच्ची सिंह बिष्ट
एक धारा मुक्तेश्वर महादेव के ठीक नीचे जटा गंगा से और दूसरी धारा कसियालेख नीलकंठ मंदिर से कुछ आगे से निकलती है और फिर कोकिलबना के ठीक नीचे जुड़ जाती है और यह हमारी सेलवानी नदी बनकर तमाम जलधाराओं को अपने में समेटे तल्ला रामगढ़ की तरफ जाती है और जुड़ती हुई यह नदी रामगाड बनकर कोसी को समृद्ध बना देती है। कुछ भाग बुडिबना का, फिर सुनकिया, दाड़ीमा, गढ़गांव, मियोडा, नथुवाखान लोषज्ञानी, नैंकना के जुड़ते चलते हैं और इधर से बुड़ीबना, सुनकिया,कोकिल बना, सूपी, lod, गल्ला, सतबूंगा के जुड़ते हैं। तल्ला रामगढ़ से आगे भी तमाम गांव इस नदी के द्वारा जुड़ते और समृद्ध होते हैं।कितनी ही सहायक नदियां, छोटी जलधाराएं इससे जुड़कर इसे नदी का स्वरूप देती हैं।
नदी का वरदान हम सबने लिया। हमारी वन पंचायतों में लोगों के बचाए जंगलों ने उसे निरंतर जीवंत बनाए रखा। सेलवानी तो हमारी मुक्तिवाहिनी है। हमारे पितरों को सदियों से स्वर्गारोहण करवाने वाली गंगा है। सेलवानी का दुर्भाग्य यह है कि इसे इसके जन्म स्थान से ही मानवीय बाधाओं और लोगों की हवस का शिकार होना पड़ रहा है। इसके रास्ते को घेर कर खेत बना दिए हैं, इसको समृद्ध बनाने वाले जलस्रोतों पर लोगों का कब्जा हो चुका है और इसको भरने वाले जंगलों के सभी श्रोतों का पानी बिल्डरों, होटल स्वामियों और लोगों के घरों में पहुंच चुका है।पोखरों को पाट दिया गया है और जलीय जीवों की हत्या कर थोड़े से पानी वाली इस नदी को जीवनहीन बना दिया गया है।समाज की चेतना का यह कुंद स्वरूप बिल्कुल सामने है और लगातार रेता बजरी खनन से सेलवानी की हत्या का अंतिम प्रयास चल रहा है।राज की नीतियां इस जैसी जीवन दायिनी जल वाहिकाओं से अभी तक नहीं जुड़ी हैं, समाज का क्रूर और विभत्स चेहरा नदी की घायल पड़ी देह को साफ दिखाने लगा है। वे धन्य भागी हैं जिन्होंने इस नदी के पानी को बचाने और इसको जीवंत रखने की कोशिशें की हैं। ऐसे भी लोग हैं और इसके लिए चिंतित व्यक्ति भी हैं। हमारे गांव तो इसी नदी और ऐसी ही जलधाराओं के आसपास पनपे और बचे रहे। उनकी श्रद्धा रही इन नदियों पर। लेकिन एक दौर आया है जब हरेक बूंद को चूसकर लोगों को संतुष्टि नहीं हो रही है। जंगलों से पानी और भोजन देने वाले पेड़ गायब हैं। नदियों से जलीय जीव समाप्त हो चुके हैं। नदियों को लेकर बहुत क्रूर और असंवेदनशील रवैया है लोगों का भी और उसकी चमड़ी को नोच कर भी तसल्ली नहीं है।
उत्तराखंड हिमालय की बड़ी नदियां तो लाखों जलधाराओं का समुच्चय हैं, असली नदी तो यही छोटी जल धाराएं हैं।जिनके आसपास लोग रहते हैं, खेती किसानी पनपती है और जीवन के रंग बढ़ते हैं। करोड़ों रुपए के सरकारी, गैर सरकारी विकास परियोजनाओं के परिणाम ऐसी जलधाराओं को जीवंत रखने में असफल सिद्ध हुए हैं, गैर बर्फानी हों या हिम आधारित नदियां आज उनका जीवन संकट में है। एक तरफ जलवायु में आता बदलाव और दूसरी ओर राज और समाज का नदी जलधाराओं के प्रति बदलता व्यवहार, यह आने वाले खतरे की बड़ी आहट है। लाखों हाथ जुड़ेंगे तो ही ऐसी नदिया अतिक्रमण, गंदगी और शोषण से मुक्त हो पाएंगी। हमारी आवाजें नक्कारखाने में तूती की तरह हैं, कोई नहीं सुनना चाहता है।
आज जिनको घायल कराहती नदियों की पीड़ा का अहसास नहीं है। जिनको छोटी जलधाराओं के हकों की समझ नहीं आ रही है, जिनको नदी की हत्या सामने होती नहीं दिख रही, अफसोस उनके होने का. महिला दिवस के अवसर पर जब कार्यक्रम करेंगे,बातें होंगी और बधाइयां बांटेंगे तो तमाम नदियों की चीत्कार को अवश्य महसूस करें। खास तौर पर जब गंगा, हिमालय, नंदा की यह भूमि आज धीरे धीरे रौखड़ बनने की ओर बढ़ रही है.