जयसिंह रावत
भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा गत वर्ष तैयार भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील देश के 147 जिलों के मानचित्र में हिमालयी राज्यों में उत्तराखण्ड को सर्वाधिक और उसके बाद दक्षिण में केरल को दूसरे नम्बर पर संवेदनशील दर्शाया गया था। इस मानचित्र में उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग और टिहरी समेत सभी 13 जिले भूस्खलन के लिये संवेदनशील बताये गये थे, जबकि उसी मानचित्र में केरल के सभी 14 में से 14 जिलों को भी संवेदनशील माना गया था, जिनमें केरल के थ्रिसूर को तीसरे, पालाक्काड पांचवें, मालपापुरम सातवें, कोजिकोडा दसवें और बायनाड को 13वें नम्बर पर रखा गया था। इसरो द्वारा किये गये उस वैज्ञानिक अध्ययन का नतीजा हम पिछले साल हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में तो देख ही चुके थे लेकिन अब इसरो की भविष्यवाणी केरल में 30 जुलाइ की प्रातः सामने आ गयी। अगर समय रहते हम वैज्ञानिकों, पर्यावारणविदों और विशेषज्ञ संस्थानों की चेतावनियों की अनदेखी कर बैठे रहेंगे तो इसी तरह के भयावह हादसों को इंतजार करना पड़ेगा। पश्चिमी घाट और हिमालयी राज्यों में भूस्खलन का जोखिम अवश्य ही प्राकृतिक है जिसे हम दूर नहीं कर सकते लेकिन यह जोखिम मानवीय कारकों के कारण काफी बढ़ गया है। इसलिये बचने के लिये जरूरी है कि हम प्रकृति के साथ जीना सीखें और जहां तक संभव हो प्रकृति के साथ छेड़छाड़ न करें।
भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की 2001 की वन स्थिति रिपोर्ट पर गौर करें तो उस समय केरल में 11,772 सघन वन और 3,788 खुले वन थे। विभाग की नवीनतम 2021 की रिपोर्ट में सघन वनों को अति सघन और सामान्य सघन वन के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इस रिपोर्ट में राज्य में 1,944 वर्ग किमी अति संघन, 9,472 वर्ग किमी सामान्य सघन और 9,837 खुले वन दिखाये गये हैं। नवीनतम् रिपोर्ट के सघन वनों की दोनों श्रेणियों को जोड़ा जाय तो वह 11,416 वर्ग किमी बनता है। जबकि 2001 में राज्य में कुल 11,772 वर्ग किमी सघन वन थे। इस तरह राज्य में दो दशकों में 356 वर्ग किमी सघन वन गायब हो गये। वर्ष 2019 की रिपोर्ट की तुलना में भी 2 साल के अन्दर ही केरल में 36 वर्ग किमी सघन वन घट गये और खुले वनों का आकार 136 वर्ग किमी बढ़ गया। सघन वन धरती की एक प्राकृतिक छतरी होते हैं जो कि बारिस की तेज बूंदों को तो थामती ही है साथ ही उन वृक्षों की जड़ें मिट्टी को जकड़े रखती हैं जिससे भूस्खलन रुकता है। भूस्खलन पहाड़ी क्षेत्रों में ही होता है इसीलिये हिमालयी राज्यों के साथ ही पश्चिमी घाट से संबंधित कर्नाटक, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, गोवा और गुजरात के पहाड़ी क्षेत्रों को भूस्खलन के लिये अधिक संवेदनशील माना गया है। केरल के 14 में से 10 जिले पहाड़ी हैं जहां 16, 959 वर्ग किमी क्षेत्र में वन हैं। इन वनों में 15,49 वर्ग किमी अति संघन, 7212 वर्ग किमी सामान्य सघन और 7212 वर्ग किमी खुले वन है। वनों को हा्रस इन्हीं पहाड़ी जिलों में हो रहा है।
वायनाड का नवीनतम् भूस्खलन केरल की कोई नयी त्रासदी नहीं है। यहां भूस्खलनों के लिये प्राकृतिक कारण तो अवश्य हैं मगर इसके लिये मानवीय कारण कम जिम्मेदार नहीं हैं। राज्य में सन् 2001 में कोट्टायम जिले में भी एक बड़े भूस्खलन में कई लोग मारे गए और व्यापक क्षति हुई थी। मानसून के मौसम में, इडुक्की जिले और अन्य क्षेत्रों में भूस्खलन के कारण जान-माल का नुकसान के उदाहरण मौजूद हैं। सन् 2018 की बाढ़ के साथ राज्य भर में कई भूस्खलन हुए। उस समय खासकर इडुक्की, वायनाड और मलप्पुरम के पहाड़ी जिलों में भारी नुकसान हुआ था। इसी तरह 2019 में भी विभिन्न जिलों में भीषण भूस्खलन हुआ। उस समय वायनाड में पुथुमाला और मलप्पुरम में कवलप्पारा जैसे इलाके गंभीर रूप से प्रभावित हुए थे। अगस्त 2020 में इडुक्की जिले के पेट्टीमुडी इलाके में एक भयावह भूस्खलन हुआ, जिसमें कम से कम 66 लोग मारे गए।
केरल में मानसून के मौसम में भारी और तीव्र वर्षा होती है जिससे मिट्टी की धारण क्षमता कमजोर होने से भूस्खलन होता है। कोचीन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (सीयूएसएटी) में वायुमंडलीय रडार अनुसंधान केन्द्र के एक अध्ययन के अनुसार अरब सागर के गर्म होने से घने बादल तंत्र बन रहे हैं, जिससे केरल में कम समय में ही अत्यधिक भारी वर्षा हो रही है और भूस्खलन की संभावना बढ़ रही है। अध्ययन में कहा गया है कि वर्षा की तीव्रता में वृद्धि मानसून के मौसम में पूर्वी केरल में पश्चिमी घाट के उच्च से मध्य-भूमि ढलानों में भूस्खलन की संभावनाएं बढ़ रही है। वनों को कृषि और शहरी क्षेत्रों में बदलने से मिट्टी को स्थिर करने में मदद करने वाला प्राकृतिक वनस्पति आवरण कम हो रहा है। केरल के पहाड़ी क्षेत्रों में कुछ स्थानों पर जनसंख्या का केन्द्रीकरण, तेजी से शहरीकरण और बुनियादी ढांचे के विकास होने से प्राकृतिक भूभाग और जल निकासी पैटर्न को बिगड़ रहा है, जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है। विशेषज्ञों के अनुसार मानवीय गतिविधियों या प्राकृतिक घटनाओं के कारण प्राकृतिक जल निकासी पैटर्न में परिवर्तन से जल संचय और छिद्रों में पानी का दबाव बढ़ रहा है, जिससे ढलान अस्थिर हो रहे हैं।
भारत सरकार द्वारा भूस्खलन पारिस्थितिकीविद् माधव गाडगिल के नेतृत्व में ‘‘गठित पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल’’ ने 2011 में केंद्र को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें सिफारिश की गई थी कि पूरी पहाड़ी श्रृंखला को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जाए और उनकी पारिस्थितिक संवेदनशीलता के आधार पर पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में विभाजित किया जाए। लेकिन उन सिफारिशों की अनसुनी कर दी गयी।
भूस्खलन देशभर के पहाड़ी क्षेत्रों में एक आम भूवैज्ञानिक जाखिमों में से एक है। भारत में लगभग 0.42 मिलियन वर्ग किमी या 12.6 प्रतिशत भूमि क्षेत्र बर्फ से ढके क्षेत्र को छोड़कर, भूस्खलन के लिये संवेदनशील है। इसमें से 0.18 मिलियन वर्ग किमी उत्तर पूर्व हिमालय में पड़ता है। पश्चिमी घाट और कोंकण पहाड़ियों (तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र) में 0.09 मिलियन वर्ग किमी और आंध्र प्रदेश के अरुकु क्षेत्र के पूर्वी घाट में 0.01 मिलियन वर्ग किमी भूस्खलन संवेदनशील चिन्हित किया गया है।
दरअसल केरल या उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि हिमालय के साथ ही दक्षिण के सभी पहाड़ी इलाके भूस्खलन की जद में हैं। इसरो ने देश के 17 राज्यों और दो केन्द्र शासित 147 जिलों को संवेदनशील माना है। इसरों के जाखिम मानचित्र के अनुसार वर्ष 2014 से लेकर 2017 के बीच मीजोरम में 12,385, उत्तराखण्ड में 11,219, त्रिपुरा में 8,070, अरुणाचल में 7,689 जम्मू-कश्मीर में 7,280 और केरल में 6039 भूस्खलन दर्ज हुये। पूर्वोत्तर के जिलों में वनावरण का ह्रास भी भूस्खलन का एक प्रमुख कारण है।