प्रतुल जोशी
एक ज़माने तक कुमाऊं की सांस्कृतिक राजधानी माने जाने वाले अल्मोड़ा शहर के मल्ला महल इलाक़े में विगत 17 से 19 अक्टूबर को संपन्न द्वितीय अल्मोड़ा लिटरेचर फ़ेस्टिवल (ALF)का आयोजन कई मायनों में अनूठा था। साहित्य,पत्रकारिता, अध्यात्म, फ़िल्म, लोककला, पुस्तक चर्चा, संगीत जैसी न जाने कितनी विधाओं के कलाकार इस उत्सव में शरीक़ थे। यदि एक मंच पर बच्चों के साहित्य पर परिचर्चा चल रही थी तो उसी समय दूसरे मंच पर किसी अन्य विषय पर बातचीत हो रही थी। लेखक चंदन डांगी के साथ उनकी टीम के सदस्य यदि डॉक्टर शेखर पाठक के नेतृत्व वाले “अस्कोट आराकोट अभियान” के गीतों को सामूहिक स्वर में गाने के पश्चात् यात्रा के अपने अनुभवों को रख रहे थे तो मल्ला महल के दूसरे मंच पर कविता पर परिचर्चा में वरिष्ठ कवि कृष्ण कल्पित के साथ युवा कवयित्री प्रतिभा कटियार शरीक ए गुफ़्तगू थीं। वहीं एक कमरे में वरिष्ठ पत्रकार और संपादक प्रमोद जोशी बच्चों के साथ पत्रकारिता पर वर्कशॉप करने में मशगूल।यदि “लपूझन्ना” और “बब्बन कार्बोनेट” जैसी चर्चित किताबों के लेखक अशोक पांडे से एसएसजे विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग के अवकाश प्राप्त प्रोफ़ेसर डॉक्टर सैयद अली हामिद की बातचीत का लुत्फ़, खुले आसमान के नीचे लेते हुए दर्शक तेज धूप में अल्मोड़ा की एक पहाड़ी पर सूर्य स्नान का आनंद प्राप्त करते हुए नज़र आ रहे थे तो वहीं एक अन्य अवकाश प्राप्त प्रोफ़ेसर (हिन्दी विभाग, एसएसजे विश्वविद्यालय) डॉक्टर दिवा भट्ट अपने हाल ही में प्रकाशित उपन्यास “कोंतली कथा” पर वरिष्ठ पत्रकार- साहित्यकार नवीन जोशी से बातचीत में मशग़ूल दिखाई दे रही थीं। नवीन जोशी जी ने उपन्यास के ढेर सारे पहलुओं को जब ऑडियंस के समक्ष रखा तो दर्शकों के साथ लेखिका महोदया भी चकित थीं।
पूरे आयोजन में सुबह ग्यारह बजे से देर रात्रि तक अल्मोड़ा और देश के विभिन्न हिस्सों से आए हुए अतिथि अल्मोड़ा शहर में साहित्य और संस्कृति की इस नई करवट से आनंदित थे तो हैरान और परेशान भी। इतना परोस दिया था आयोजकों ने कि आगंतुकों को सब कुछ ग्रहण करते नहीं बन रहा था। कुछ ना कुछ छूटा जा रहा था। प्रसिद्ध कुमाऊँनी गायिका श्रीमती वीना तिवारी और अल्मोड़ा निवासी गायक नवीन बिष्ट की लोक संस्कृति पर चर्चा सुनें कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के भूतपूर्व प्रोफ़ेसर डॉक्टर पुरुषोत्तम अग्रवाल जी की महाभारत पर नई खोज से जूझती डॉक्टर दीपा गुप्ता की बातचीत? “खोसला का घोसला” और “ओए लकी लकी ओए” जैसी चर्चित फ़िल्मों के निर्माता दिवाकर बनर्जी को युवा से अधेड़ तक सभी सुनने/देखने को बेचैन लेकिन अल्मोड़ा में बाहर से आए कुछ मेहमानों को यदि अपने स्थानीय संपर्कों से भी मिलना था तो कुछ को इतने हैक्टिक शेड्यूल का अभ्यास नहीं । पूरे आयोजन में दिल्ली निवासी आशुतोष जोशी की फ़िल्म कंपनी “Uncommonsense Films” से जुड़े ढेर सारे युवा आए हुए अतिथियों/ वक्ताओं को अपने कैमरे में रिकॉर्ड करते हुए नज़र आ रहे थे तो अल्मोड़ा निवासी और प्रसिद्ध छायाकार थ्रीश कपूर जी भी लगातार अपने कैमरे में अल्मोड़ा लिटरेचर फ़ेस्टिवल के द्वितीय संस्करण के महत्वपूर्ण पलों को क़ैद करते दिख रहे थे। वहीं अल्मोड़ा के एक अन्य चर्चित छायाकार जयमित्र ने अपने छाया -चित्रों के संकलन के माध्यम से अल्मोड़ा शहर के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित किया एक सत्र में।
अल्मोड़ा का मल्ला महल (कुमाऊंनी ज़बान में मल्ला का अर्थ है ऊपर) तीन वर्ष पूर्व तक वह स्थान था जहाँ अल्मोड़ा के स्थानीय प्रशासन का कार्यालय था। ज़िलाधीश, एसडीएम, तहसीलदार के कार्यालय थे। लेकिन 3 वर्ष पूर्व इसे ख़ाली करा दिया गया और वर्तमान में यह जगह चंद राजाओं के युग के वैभव की याद दिलाती हुई जगह है। चूंकि मल्ला महल से प्रशासनिक कार्यालयों को नई इमारत में शिफ़्ट हुए बहुत दिन नहीं गुज़रा है इसलिए अभी भी उस दौर की यादें अल्मोड़ा वासियों के ज़हन में ताज़ा हैं। अल्मोड़ा ज़िले के इतिहास के सूक्ष्म निरीक्षक प्रोफ़ेसर अनिल जोशी इस नाचीज़ को निजी गुफ़्तगू में महल के कुछ कमरों के हाल के इतिहास से परिचित कराते हुए स्मित मुस्कान के साथ कुछ मधुर प्रसंगों की भी याद दिला रहे थे। कि किस कमरे में एसडीएम बैठते थे और कहाँ पर ज़िलाधीश, चुनाव के समय मीटिंग लेते हुए अधीनस्थ कर्मचारियों को डांट की एक डोज़ भी दिया करते थे। अपनी तमाम व्यवस्थाओं (और थोड़ी बहुत अव्यवस्थाओ) से गुज़रते हुए तीन दिवसीय अल्मोड़ा लिटरेचर फ़ेस्टिवल का आयोजन अपने आप में अनूठा था। अल्मोड़ा जैसी समृद्ध सांस्कृतिक नगरी में इस आयोजन की शायद लंबे समय से आवश्यकता महसूस की जा रही थी । श्रीमती वसुधा पंत एवं उनके सुपुत्र विनायक पंत एवं टीम ने इस महती ज़िम्मेदारी को बख़ूबी निभाया, बिना किसी राजनैतिक पूर्वाग्रह के। पिछले वर्ष जब प्रथम दफ़े यह आयोजन हुआ था तो मैं उसमें सम्मिलित नहीं हो पाया था। लेकिन इस वर्ष एक सत्र में प्रतिभागी के तौर पर शिरकत करने का मौक़ा हासिल हुआ। कुछ टिप्पणीकारों का कहना है कि इस वर्ष का आयोजन, पिछले वर्ष के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा बड़ा था। शायद अगले वर्ष कुछ और बड़ा करने की योजना हो। लेकिन बेहतर है कि आयोजक इसे और बड़ा करने के मोहपाश में न फँसें । छोटा हो और व्यवस्थित हो। दो मंचों के स्थान पर एक ही मंच पर हो। क्योंकि जब एक बड़े आयोजन में बहुत कुछ प्राप्त होने पर भी बहुत कुछ छूट जाता है तो दर्शकों के मन में कहीं हल्की सी टीस रह जाती है।
आयोजन में सिर्फ़ दो मंचों पर हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रम और एक कमरे में चल रही विभिन्न वर्कशॉप ही नहीं थी बल्कि विभिन्न स्टालों में सजे अलग अलग क़िस्म के उत्पाद थे तो एक हॉल में ढेर सारी किताबें विक्रय के लिए थीं। अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ के डिग्री कॉलेजों में नवनियुक्त अध्यापक कुमारी रश्मि सेलवाल और नीरज पांगती यदि बिना थके दिन दिन भर मंच संचालन में अपना जौहर दिखा रहे थे तो मंच की पूरी देख रेख पूरी संजीदगी से अल्मोड़ा के वरिष्ठ रंगकर्मी मनमोहन चौधरी जी निभा रहे थे।यह त्रिदिवसीय आयोजन दिन भर यदि बौद्धिक विमर्श की बयार अल्मोड़ा की एक पहाड़ी के आंगन में बहा रहा था तो शाम होते होते संगीत और नृत्य के आग़ोश में श्रोताओं और दर्शकों को डूबने के लिए मजबूर कर देता था। भारतखंडे डीम्ड विश्वविद्यालय लखनऊ की भूतपूर्व वाइस चांसलर और कथक नृत्यांगना डॉक्टर पूर्णिमा पाण्डेय के घुंघरुओं की खनक यदि एक लंबे अरसे बाद उनके गृह जनपद के निवासियों को सुनने देखने को मिली तो अल्मोड़ा के बाशिंदे (और अब हल्द्वानी रह रहे) सर्वजीत टमटा की “रहमत ए नुसरत” टीम ने क़व्वाली की सूफ़ियाना रवायतों को मल्ला महल से मंज़रे आम पर ला दिया था।