कमलेश पुजारी
कक्षा 11, आदर्श इंटर कॉलेज, सुरई खेत,
बिठोली, द्वाराहाट, अल्मोड़ा, उत्तराखंड
‘पानी बोओ पानी उगाओ’ अभियान के अंतर्गत हम कक्षा 11 के विद्यार्थियों ने तय किया कि अपने गुरु जी श्री मोहन कांडपाल के नेतृत्व में रिस्कन नदी को जानने व समझने हेतु एक पदयात्रा की जाए। पदयात्रा की तैयारी हेतु पहले एक कार्यशाला आयोजित की गई गुरु जी ने हमसे कहा कि 40 से 45 किमी की यात्रा दो या तीन चरणों में आयोजित करनी चाहिए। कार्यशाला में हम सभी द्वारा रिस्कन नदी को जानने हेतु एक प्रश्नावली व रूपरेखा चर्चा के बाद तय की गई। जिसमें तिथि, समय, रास्ते, गांव भी तय किए गए। तय हुआ कि नागार्जुन, बयेला, तुमडी, थामड, फलद्वाडी, मुसनौला व वलना होते हुए सुरईखेत में यात्रा समाप्त होगी जो लगभग 18 से 20 किमी की दूरी है। रितेश व लक्ष्मण से साथ में फावड़ा लाने का सुझाव भी रखा गया। 7 छात्राओं व 8 छात्रों की ‘पानी बोओ पानी उगाओ’ की टीम द्वारा एक प्रश्नावली तैयार की गई जिसमें नदी का उद्गम, नदी का इतिहास, नदी के जल स्रोत, नदी के जलस्तर घटने के कारण, पानी की कमी से गांव में पड़ रहा प्रभाव, नदी के जलस्तर को बढ़ाने हेतु सुझाव आदि ग्रामीणों से जानने हेतु तैयार किए गए।
हम सभी बहुत उत्साहित थे। आपस में भी चर्चा कर रहे थे। हमारे घर वाले भी कई प्रश्न खड़े कर रहे थे, क्या जरूरत है ? नदी पर जाकर क्या होगा ? कहीं गिर पढ़ोगे आदि। लेकिन मैंने अपने परिवार वालों को समझाया कि हम अपने परिवेश व सामाजिक शिक्षा लेने हेतु जा रहे हैं।कुछ ग्रामीणों से सीखना है और कुछ सीखना है।
तय तिथि को रविवार के दिन पहले चरण की यात्रा हेतु मैं और मेरे दोस्त प्रातः 7:00 बजे सुरईखेत के मैदान में एकत्रित हो गए। सुरईखेत से नागार्जुन की सात—आठ किमी. यात्रा हमने जीप द्वारा की क्योंकि इसके आसपास रिस्कन नदी नहीं बहती थी। रिस्कन नदी का पहला उद्गम नागार्जुन में है। रास्ते में हमने पानी बोओ पानी उगाओ के नारे जीप में से लगाए। नागार्जुन भगवान विष्णु जी के मंदिर में रिस्कन नदी का पहला स्रोत देखा। नागार्जुन में भगवान विष्णु जी के मंदिर में स्रोत व मंदिर के इतिहास को जानने की इच्छा हुई। मंदिर के पास गांव के बुजुर्ग व्यक्ति श्री हरिदत्त उप्रेती जी से विचार विमर्श हुआ। उनके द्वारा हमें बताया गया कि यह मंदिर 250 वर्ष से अधिक पुराना है। मंदिर के ऊपर एक नीम का पेड़ है जिसकी उम्र हमें मालूम नहीं है क्योंकि जब से गांव बसा है यह पेड़ ऐसा ही है। बहुत मोटा व बड़ा पेड़ था। उन्होंने बताया कि इसी पेड़ के जड़ के नीचे भगवान विष्णु की मूर्ति है उनके चरणों से ही यह जल स्रोत निकलता है। यह स्रोत कभी भी सूखता नहीं है लेकिन पानी कम हो गया है। पानी की कमी का कारण पूछे जाने पर उन्होंने बताया ऊपरी क्षेत्र में चीड़ के जंगल हैं। उन जंगलों में लगती आग के कारण पानी कम हो रहा है। उनसे विचार विमर्श के बाद हम आगे निकल पड़े। यात्रा में चर्चा करते, नारे लगाते हुए हम चंथरिया के थामड पहुंचे जहां हमने देखा पूरा जंगल सिर्फ चीड़ के पौधों का है अन्य कोई पेड़ नहीं हैं। पिरुल से जंगल भरा हुआ है। जंगल में एक प्राकृतिक जल स्रोत दिखा जो शायद जंगली जानवरों के पानी पीने हेतु था। उसमें भी पिरूल भर गया था। हम सब ने मिलकर उसकी सफाई की और गंदा पानी निकाल दिया। अब वह जानवरों के पीने हेतु ठीक हो गया था। उसके बाद हम आगे बढ़े। घने जंगल में एक जगह बैठकर कुछ बिस्किट आदि खाए। पार की पहाड़ी पर जंगल जल रहे थे। ज्योति ने गुरू जी से पूछा आखिर जंगल में इतनी ज्यादा आग क्यों लग रही है ? गांव वाले बताते हैं पहले से इतने जंगल नहीं जलते थे। गुरु जी ने बताया पहले से गांव में बहुत लोग रहते थे उनका एक व्यवसाय पशुपालन भी था। महिलाएं जानवरों के नीचे बिछाने हेतु पिरुल एकत्रित कर लेती थी जिस कारण सारे पिरुल की सफाई हो जाती थी, इस कारण जंगल में आग कम लगती थी। बढ़ते पलायन के कारण पशुपालन काम हो गया अब जंगलों में पिरुल व लकड़ी लोग नहीं ले जाते हैं। पिरुल ज्वलनशील पदार्थ है यदि आग लग गई तो बुझाना मुश्किल हो जाता है। अब ग्रामीणों की निर्भरता जंगलों पर कम होती जा रही है इस कारण आग लगने की घटनाएं बढ़ रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान भी बढ़ गया है इस कारण भी जंगलों को नुकसान हो रहा है।
इसके बाद हम नारे लगाते हुए आगे बढ़े ग्राम बयेला के तोक थामड पहुंचे। जहां गुरु जी ने हमें तीन समूह में बांटा और कहा कि गांव वालों से अधिक से अधिक जानकारी एकत्रित करें। मैं और मेरे समूह के सदस्यों ने श्री दान सिंह बिष्ट जी के पास जानकारी लेने हेतु गए जिनकी उम्र 60 वर्ष थी। वह जन्म से ही इसी गांव में रहते थे। वह खुद हल जोत कर खेती से अपना घर चलाते थे। उन्होंने हमें बताया कि कुछ ही महीने पहले उन्होंने ₹100000 की गडेरी और कुछ ही हफ्ते पहले ₹50000 से अधिक की मूली बाजार में बेची। उनकी सब्जियां जैविक खाद से तैयार हुई थी अर्थात हम कह सकते हैं कि मेहनत करने वाले लोग पहाड़ में रहकर भी जीवनयापन अच्छे से कर सकते हैं।
हमने जानना चाहा कि गांव में पानी की स्थिति क्या है ? उन्होंने बताया कि गांव के ऊपरी क्षेत्र में जंगल हैं। पहले से हम ऊपर के क्षेत्र से गुल के माध्यम से पानी लाते थे। पानी बहुत था। जंगलों में आग लगने व अन्य कारणों से अब पानी कम हो गया है। अब पाइप से लाकर टंकी में एकत्रित कर सिंचाई करते हैं। गर्मियों में पानी कम होने के कारण ठीक से फसल नहीं हो पा रही है। सभी साथियों की चर्चा के बाद हम आगे बढ़े। रास्ते में हमें एक खाव मिला जो मिट्टी से भर गया था। उसमें नाली भी नहीं कटी थी हमारे पास फावड़े थे। हमने उसे खोद कर गहरा कर दिया। इस सामूहिक कार्य में हमें जोश के साथ-साथ आनंद आया। गुरु जी हमें याद दिलाते जा रहे थे की मुख्य बिंदु नोट करो क्योंकि सभी को यात्रा का विवरण लिखना है। आगे बढ़ते हुए हम बलेश्वर मंदिर जो सुरभि नदी के किनारे बना है वहां पहुंचे। नदी में मुंह हाथ धोने के बाद हमने सामूहिक रूप से घर से लाया हुआ खाना खाया। नारे लगाते हुए हम फलद्वाडी पहुंचे। वहां हमारे कुछ साथियों ने कुछ बुजुर्ग महिलाओं से विचार विमर्श किया वे बता रही थी खेती का कार्य बंद होने से गांव में बहुत झाड़ियां हो गई है। इन झाड़ियां में सूअर, तेंदुआ आदि छिपे रहते हैं इस कारण गांव से पलायन बढ़ता जा रहा है जिस कारण खेती भी बंजर हो गई है।
नारे लगाते हुए हम मुसनोला के नौले के पास पहुंचे। सड़क के ऊपर की तरफ सुंदर नौला बना था हम सब ने मिलकर सामूहिक गीत के साथ उसकी सफाई की मुसनोला में कुछ परिवार की महिलाओं से प्रश्न पूछे। महिलाएं बताने में झिझक रही थी। उन्हें स्कूल के बच्चों का गांव में आकर जानकारी लेना कुछ अलग लग रहा था। उसी गांव में हम श्री बालाजी से मिले जिनके साथ बहुत अच्छी चर्चा रही। उन्होंने हमें बताया कि चीड़ के पेड़ों की अधिकता के कारण नदी में पानी कम हो रहा है। पहले पहाड़ियों पर खाव बने थे अब वह सब बंद हो गए हैं जिसके कारण प्राकृतिक स्रोत सूख रहे हैं। उन्होंने बताया कि सुरभि नदी सात स्रोतों नागार्जुन, दरकोट, तिमिल, गैर,नाड़ तुमुडीं व बालेश्वर स्रोतों से बनी है जो विभाडेशवर में नंदिनी जो द्वाराहाट से आती है वहां से आगे यह रिस्कन नदी कहलाती है। चर्चा के दौरान ज्ञात हुआ कि यदि स्रोतों के आसपास जंगली गुलाब, शिवाय, सिसौण आदि की झाड़ियां होती हैं तो स्रोत में पानी बढ़ता है। उन्होंने बताया कि सड़क काटने से आये मलबे के कारण हमारे जल स्रोत दब गए हैं। उसके बाद हम वलना पहुंचे वहां हमारी मुलाकात श्री घनश्याम सिंह जी से हुई उन्होंने बताया कि 18 वर्ष की आयु में मैं दिल्ली चला गया था लगभग 20 वर्ष से दिल्ली में नौकरी करने के बाद कोरोना के समय वापस आ गया ‘चलो गांव की ओर’ अभियान के अंतर्गत गुरु जी ने उन्हें जर्सी गाय दिलायी थी। अब वह गाय पालन कर अपना जीवन यापन करते हैं। अब उनके पास दो गायें हो गई हैं। दूध सुरईखेत के डेरी में देते हैं। उसके बाद हम सुरईखेत की ओर चल दिए। रास्ते में पैदल चलते हुए हमें खूब आनंद आया। सबने मिलकर हमने किताबी शिक्षा से हटकर अपने आसपास के परिवेश को समझने की कोशिश की जिससे बहुत आनंद के साथ-साथ कुछ सीखने को मिला।