मनु पंवार
क्या आपने एक बात नोटिस की कि उत्तराखण्ड में अब तक की सरकारें या नेताओं की जमात अक्सर किसी नगर पालिका को नगर निगम बनाने का शिगूफा क्यों छेड़ती रही हैं.? ऐसी मांग उठाने के पीछे की वजह क्या है? क्या आपने कभी गौर फरमाया कि हमारी सरकारें और नेता हमारे राज्य के ग्रामीण इलाकों को शहरी इलाकों में शामिल करने में इतनी क्यों दिलचस्पी दिखाती रहे हैं? वो गांवों को शहर बनाने के लिए इतने बेसब्र क्यों रहते हैं?
इसके पीछे का पूरा सच आंखें खोल देने वाला है जिससे पता चलता है कि उत्तराखण्ड में जमीनों की लूट के चोर दरवाजे कैसे निकाले गए? भूमि की इस लूट को संस्थागत स्वरूप कैसे दिया गया? कैसे गांवों को नगर निकायों में शामिल करके वहां की कृषि भूमि को हड़पने का खेल रचा गया.
अगर मैं आपसे पूछूं कि नगर निगम देहरादून, नगर निगम कोटद्वार, नगर निगम श्रीनगर, नगर निगम ऋषिकेश नगर निगम अल्मोड़ा या नगर निगम पिथौरागढ़, इनमें कोई एक समानता बताइए. तो स्वाभाविक रूप से आपका पहला जवाब होगा कि ये सभी नगर पालिका से अपग्रेड होकर नगर निगम बने हैं या बनाए गए हैं. उत्तराखण्ड सरकार ने 2003 से 2024 तक 21 साल में 11 नगर पालिका परिषदों को नगर निगम में बदल डाला। यानी औसतन हर दो साल में एक नया नगर निगम अस्तित्व में आ गया। इनमें 8 नगर पालिकाओं को नगर निगम में बदलने का फैसला बीजेपी सरकार ने लिया जबकि 3 नगर पालिकाओँ को नगर निगम कांग्रेस की सरकार ने बनाया। हमारे पडोसी राज्य हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा मिले हुए 53 साल हो चुके हैं, वहां अब जाकर 5 म्यूनिसिपैलिटीज को नगर निगम का दर्जा मिल पाया है।
आखिर नगर पालिका परिषदों को नगर निगम में बदलने की रफ्तार हमारे यहां इतनी तेज क्यों है ? क्या ये सिर्फ संयोग है या कोई राजनीतिक प्रयोग है?
उत्तराखण्ड में सबसे पहला नगर निगम 2003 में देहरादून को बनाया गया था। 2011 की जनगणना के हिसाब से देखें तो इसका लॉजिक भी समझ में आता है क्योंकि 2011 की जनगणना में देहरादून की आबादी करीब 5 लाख 75 हजार थी. हरिद्वार नगर पालिका का मामला भी समझ मं आ सकता है, क्योंकि 2011 की जनगणना के हिसाब से यहां आबादी 2 लाख 30 हजार के आसपास थी। लेकिन कोटद्वार, श्रीनगर, अल्मोडा, पिथौरागढ़ जैसे पहाड़ी नगरों को भी नगर निगम का जामा किस आधार पर पहना दिया गया ?
गौर करने पर इसका एक सिरा जुड़ता दिखता है उत्तराखंड में जमीनों की खरीद-फरोख्त से। उत्तराखंड के पहले मुख्यमंत्री एनडी तिवारी की सरकार के समय जो भूमि कानून बना था, वो उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950 में संशोधन करके बनाया गया था जिसमें उत्तराखंड से बाहर के लोगों के लिए जमीन खरीद की सीमा पर बंदिश लगा दी गई थी.। इसके तहत बाहरी राज्यों के लोग सिर्फ नगरीय इलाकों में ही 500 वर्ग मीटर जमीन खरीद सकते हैं। गांवों की कृषि भूमि की खरीद-फरोख्त पर रोक थी। 2007 में आई बीजेपी की बीसी खंडूडी सरकार ने दो कदम आगे बढ़ कर बाहरी लोगों के लिए नगरीय इलाकों में जमीन खरीद की 500 वर्ग मीटर से घटाकर 250 वर्ग मीटर कर दी थी।
15 जनवरी 2004 में भूमि कानून को लेकर जो गजट नोटिफिकेशन जारी हुआ था, उसमें लिखा है कि- यह कानून, नगर निगम, नगर पंचायत, नगर परिषद, छावनी परिषद क्षेत्रों की सीमा के अंतर्गत आने वाले और समय-समय पर सम्मिलित किए जा सकने वाले क्षेत्रों को छोड़कर सम्पूण उत्तरांचल राज्य में लागू होगा. यानी यह बहुत साफ है कि इस कानून में जो पाबंदियां हैं, वो उत्तराखण्ड के ग्रामीण इलाकों में ही लागू होंगी.
यानी जो बाहर के लोग हैं, वो शहरी इलाकों में तो एक निश्चित जमीन खरीद सकते हैं लेकिन उत्तराखण्ड में खेती की जमीन नहीं खरीद सकते थे। ग्रामीण इलाके सिर्फ पहाड़ में ही नहीं हैं, वो देहरादून, हल्दवानी- काठगोदाम, कोटद्वार-भाबर में भी हैं। तराई के ग्रामीण इलाके भी हैं। नेताओं, नौकरशाहों, बिल्डरों, लैंड माफिया, बाहर के धन्नासेठों की तो उसी कृषि भूमि पर गिद्धदृष्टि थी। तो उस कृषि भूमि को कब्जाने के लिए एक जुगत ये निकाली गई कि जो छोटे शहरी निकाय थे, नगर निकाय थे, उनका दायरा बढ़ा दिया गया… यानी जमीन के लुटेरों का गठजोड़ चालाकी से नगरीय क्षेत्रों का विस्तार करता चला गया….उन्हें गांवों की तरफ फैलाता चला गया…और शहरों के नजदीक के हमारे गांवों को और उनकी जमीनों को निगलता चला गया. पिछले दिनों खुद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी जमीनों की लूट की बात सार्वजनिक तौर पर कबूल की थी।
ये सब सरकारी कारश्तानी की वजह से ही हुआ है…जैसे कोटद्वार- श्रीनगर-अल्मोड़ा या पिथौरागढ़ की नगर पालिका परिषद को नगर निगम बना दिया गया. अब नगर निगम के लिए तो आबादी के कुछ मानक होते हैं…नगर पालिका वाले क्षेत्रों में तो वो मानक पूरे नहीं हो रहे थे…क्योंकि एक लाख तक की आबादी चाहिए होती है। पालिका परिषद के निगमीकरण की प्रक्रिया ये है कि अगर किसी शहर में एक लाख के पार आबादी है तो उसे नगर निगम बनाया जा सकता है…लेकिन यहां तो पहले नगर निगम बनाने का फैसला हो जाता है और फिर आबादी के पैमाने को सेट करने के लिए जंकजोड़ किया जाता है। उस आबादी के मानकों को पूरा करने के लिए ऋषिकेश, कोटद्वार, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ या श्रीनगर के आसपास के ग्रामीण इलाकों को नगर निगम क्षेत्र में शामिल कर लिया गया।
कोटद्वार जब नगर पालिका एरिया था, तो 2011 की जनगणना के हिसाब से कोटद्वार नगर पालिका क्षेत्र की आबादी थी करीब 33 हजार। ये नगर निगम के मानकों को पूरा नहीं कर रहा था लेकिन सरकार इसे नगर निगम बनाने पर आमादा थी तो आबादी के मानक को पूरा करने के लिए इसमें दस बीस नहीं, बल्कि 73 राजस्व गांवों को शामिल कर लिया गया। ये वो गांव थे जहां उस वक्त उत्तराखंड में लागू भूमि कानून की वजह से बाहर के लोग कृषि भूमि नहीं खरीद सकते थे। गांवों को नगर निगम में मिलाने के बाद वो पाबंदी अपने आप ही खत्म हो गई। गांवों के शहर में शामिल हो जाने के बाद कोटद्वार नगर निगम एरिया की आबादी भी 1 लाख के पार हो गई. सरकारी अधिसूचना के मुताबिक कोटद्वार को नगर निगम बनाने के लिए आसपास की कुल 4 पट्टियों के 73 गांव शामिल किए गए…इन गांवों की आबादी 2011 की जनगणना के मुताबिक 1 लाख 2 हजार 903 थी. इस निगमीकरण की वजह से कोटद्वार-भाबर इलाके का कुल 4251.763 हेक्टेयर एरिया शहर में आ गया और यहां भूमि कानून की पाबंदियां स्वतः ही खत्म हो गईं।
इसी तरह साल 2017 में ऋषिकेश नगर पालिका का विस्तार कर इसे नगर निगम बना दिया गया। 2011 की जनगणना के हिसाब से ऋषिकेश नगर पालिका क्षेत्र में 70 हजार की आबादी थी। फिर ग्रामसभा ऋषिकेश और वीरपुर खुर्द को नगर निगम में शामिल किया गया। पहले ये ग्रामीण इलाके थे जहां भूमि कानून के तहत बाहरी लोगों के लिए कृषि भूमि की खरीद पर पाबंदी थी। 2017 में हल्दवानी नगर निगम में काठगोदाम इलाके के 36 गांवों को शामिल कर लिया गया।
अल्मोड़ा नगर पालिका परिषद की आबादी 2011 की जनगणना के हिसाब से 34 हजार थी। नगर निगम बनाने के लिये आसपास के 13 गांवों को नगर निगम में शामिल कर लिया गया। हालांकि इसका विरोध भी हुआ लेकिन विरोध तो पिथौरागढ़ के आसपास के गांवों को नगर निगम में शामिल करने को लेकर भी हुआ। श्रीनगर को नगर निगम में अपग्रेड करने के लिये आसपास के जो 21 गांवों, जिनमें श्रीकोट, स्वीत, रतूड़ा जैसे गांव शामिल हैं, को नगर निगम में शामिल कर लिया। सरकार ने दलील ये दी कि श्रीनगर के आसपास के गांवों के लोगों को भी नगरीय सुविधायें मिलेंगी। लेकिन सरकार के मंसूबों की पोल खुल गई उत्तराखण्ड हाईकोर्ट नैनीताल में दायर एक याचिका पर हुई सुनवाई के दौरान।
यह याचिका श्रीनगर नगर पालिका परिषद की तत्कालीन अध्यक्ष पूनम तिवारी की ओर से दाखिल की गई थी। इस केस में साल 2002 में आए फैसले को पढ़ कर आँखें खुल जाती हैं। कोर्ट में सरकारी वकील ने के तर्कों से मालूम हो जाता है कि नगर निगम लोगों की सुविधा के लिए नहीं, बल्कि लैंड माफिया की सुविधा के लिये बनाये जा रहे हैं। एडवोकेट जनरल के अनुसार ऐसे कई गांव हैं जो भूतिया गांव बन गए हैं। मतलब साफ है कि इन गांवों में आबादी बहुत कम है…कई गांवों में तो लोग ही नहीं रहते…इसके बावजूद उन्हें श्रीनगर नगर निगम में मिलाया जा रहा है
श्रीनगर नगर निगम बनाने के लिए कुल गांव शामिल किए गए- 21। कुल आबादी शामिल की गई- 4462। कुल क्षेत्रफल आया- 1244 वर्ग किलोमीटर। तो इक्कीस गांव और आबादी कुल साढ़े चार हजार….जबकि नगर निगम के कब्जे में आ गई करीब साढ़े बारह सौ वर्ग किलोमीटर जमीन…जिसमें कृषि भूमि भी है…21 गांवों को शामिल करने से भी 90 हजार की आबादी वाला मानक पूरा नहीं हुआ, इसके बावजूद 31 दिसंबर 2021 को अधिसूचना जारी करके धामी सरकार ने श्रीनगर को नगर पालिका परिषद से नगर निगम बना दिया…जबकि 2011 की जनगणना के हिसाब से श्रीनगर नगर पालिका परिषद कैटेगरी-3 की नगर पालिका ही डिजर्व करती थी…शायद श्रीनगर आबादी के लिहाज से उत्तराखण्ड का सबसे छोटा नगर निगम होगा. श्रीनगर के आसपास के गांवों को नगर निगम का हिस्सा बना दिया गया..तो वहां पंचायती राज खत्म हो गया..प्रधानी के दिन जाते रहे….अब इन गांवों के बाशिंदे भी शहरी कहलाने लगे हैं। तो गांवों को जब नगर निगम के अधीन ला दिया गया तो वहां वहां भी शहरी कानून लागू हो गया, जहां बाहरी लोगों के लिए जमीन खरीद पर पाबंदी नहीं है। उत्तराखण्ड में जमीनों की लूट का एक चोर दरवाजा खोला गया ..जिसमें सरकार की तरफ से वैधता की मुहर लगा दी गई।लेकिन इसमें एक लोचा हो गया, जिन लैंडमाफिया की, जिन ब्यूरोक्रेट्स की, जिन धन्नासेठों की, जिन नेताओं की गांवों कि जमीन पर गिद्धदृष्टि थी और उनको कुछ इलाकों में जमीन के कुछ सौदों में दिक्कत आने लगी…पता चला कि जो कृषि भूमि शामिल किए गए गांवों से नगर निगम में लाई गई, उनमें से कइयों के केस कोर्ट में चल रहे हैं…अब जाहिर सी बात है कि लैंडमाफिया ने ये बात अपने आकाओं तक पहुंचाई होगी…
तो फिर हुआ ये कि सरकार ने उन लोगों को सहूलियत देने के लिए भूमि कानून में एक और संशोधन किया…धामी सरकार ने 12 सितंबर 2024 को एक और अधिसूचना जारी की…जिसमें लैंड एक्ट में संशोधन किया…तारीख याद रखिएगा. 12 सितंबर 2024… जी हां, बिल्कुल हाल की बात है…आप में से बहुत से लोगों को तो हवा ही नहीं लगी होगी क्योंकि हमारे पहाड़ के लोग हिंदू मुसलमान, लैंड जिहाद, लव जिहाद, थूक जिहाद जैसे कृत्रिम मुद्दों में उलझे हुए थे…आपको इस सो कॉल्ड जिहाद से फुर्सत मिलती तो आपको पता चलता कि सरकार अंदर ही अंदर क्या खेल कर रही है…
वो जो नोटिफिकेशन हाल में जारी हुआ है, उसमें सीएम धामी साहब की तरफ से लिखा गया है कि-नगर निकाय क्षेत्रों के विस्तार के बाद शामिल किए गांवों की कृषि भूमि नगर निकाय में आ गई….ऐसी जमीन उत्तराखंड में 2004 से लागू भूमि कानून की परिभाषा से बाहर हो गई…लेकिन ऐसी कई जमीनों के मामले कोर्ट में निपटारे में दिक्कत आ रही है, इस वजह से भूमि कानून की धारा-1 संशोधन किया गया…अब ये संशोधन क्या किया गया, जरा ये भी समझ लीजिए….उसमें एक उपधारा 2-क जोडी गई जिसके मुताबिक यदि कोई क्षेत्र 7 जुलाई 1949 के बाद किसी नगर निकाय में शामिल किया जाता है…तो वो भी शामिल माने जाएँगे जब तक कि लैंड एक्ट के तरह जमीन पर से कृषि भूमि का टैग नहीं हट जाता। मतलब ऐसा नहीं होगा कि किसी कृषि भूमि में डिस्प्यूट है तो उसे शहर में शामिल नहीं माना जाएगा. नहीं..वो जमीन भी शहरी निकाय में शामिल होगी. भले ही उसे कृषि भूमि से अकृषि भूमि बनने में समय लगे। मतलब हर हाल में कृषि भूमि पर नजर है….
तो सरकार का नगर पालिका परिषदों को नगर निगम में बदलने का ये ऑपरेशन, ऐसा लग रहा है कि जमीनों की लूट की राह को आसान बना रहा है….उसे सरलीकृत कर रहा है। हालांकि सरकार इसके पीछे कई दलीलें देती आ रही है। इनमें एक रटा-रटाया तर्क है कि इससे हमारे नगरों और उनके आसपास के गांवों का भरपूर विकास होगा और लोगों को बेहतर सुविधाएं मिलेंगी… देहरादून, हल्क्दवानी, हरिद्वार जैसे नगर निगमों के अधीन आने के बाद वहां के पूर्व ग्रामीण इलाकों को क्या सुविधायें मिल रही हैं, या उनके सामने क्या नई दिक्कतें आ गईं… ये तो वही जानें..लेकिन शक इसलिए गहरा रहा है क्योंकि पहाड़ के नगर पालिका क्षेत्रों में तो इतनी आबादी ही नहीं है कि वहां नगर निगम बनाने की जरूरत पडे….लेकिन फिर भी सरकार गांवों को जबरन नगर निगम में शामिल करने पर आमादा है…मैं इसीलिए कह रहा हूं कि ये बेहद शातिराना चाल है…हमारी सरकारें उस शुतुर्मगुर्ग की तरह बर्ताव करती रही हैं जोकि रेत में सिर घुसेड़कर आश्वस्त हो जाता है कि अब कोई उसे देख नहीं रहा है…
लेकिन बड़ा सवाल ये पैदा होता है कि क्या छोटी नगर पालिकाओं को सीधे नगर निगम में तब्दील किया जा सकता है?… जब मैंने इस बिंदु पर पड़ताल की तो मुझे 8 अक्टूबर 2010 को उत्तराखंड सरकार द्वारा जारी एक शासनादेश मिला जिसमें राज्य के नगर निकायों के लिए जनसंख्या के मानक तय किए…उसी जनसंख्या के हिसाब से नगर पालिकाओं की कैटेगरी तय की गई – जैसे
कैटेगरी-4 – वो नगर पालिका परिषद जिसकी आबादी 25 हजार है
कैटेरी-3- वो नगर पालिका परिषद जिसकी आबादी 35 हजार तक है
कैटेगरी-2 वो नगर पालिका परिषद जिसकी आबादी 50 हजार तक है
कैटेगरी-1 -वो नगर पालिका परिषद जिसकी आबादी 50 हजार से 1 लाख तक है..
तो कायदे से जब किसी नगर पालिका की शहरी आबादी 1 लाख की सीमा पार कर जाएगी तभी किसी नगर पालिका को नगर निगम का दर्जा दिया जाना चाहिए थे..हालांकि 2010 के उस शासनादेश के 3 साल बाद यानी 2013 में इसमें एक संशोधन किया गया और वो ये कि पर्वतीय क्षेत्र के लिए नगर निगम में 90 हजार की आबादी का मानक बनाया गया..यानी जिस नगर पालिका परिषद क्षेत्र में 90 हजार की आबादी हो, उसे नगर निगम बनाया जाएगा…
वरना इससे नीचे की आबादी वाली नगर पालिकाओं की सिर्फ कैटेगरी बदलती रहनी चाहिए थी…मतलब अगर 25 हजार आबादी है तो कैटेगरी-4, 35 हजार हो गई तो कैटेगरी-3, 50 हजार हो गई तो कैटेगरी-2 और 50 हजार से ज्यादा हो गई तो कैटेगरी-1….लेकिन रहेगी नगर पालिका परिषद ही….
लेकिन यहां पूरा खेल ही उल्टा हुआ…सरकार ने पहले तय कर लिया कि फलां शहर को नगर निगम बनाना है, अब आबादी का इंतजाम करो…मतलब मंडप सजा दिया गया, बेदी सजा दी गई लेकिन ब्योला-ब्योली यानी दूल्हा-दुल्हन को उसके बाद ढूंढा जा रहा है…इसके लिए क्या किया गया, आसपास के गांवों को जबरन शहर बनवा दिया गया…इसके पीछे सरकार की या नेताओं की जो भी मंशा रही हो, लेकिन एक बात जरूर हुई है… उन गांवों के शहर बन जाने के बाद वो ग्रामीण इलाके भूमि-कानून की बंदिशों से मुक्त हो गए और वहां की जमीनों पर नजरें गढ़ाए धन्नासेठों के लिए जमीन की लूट का रास्ता खुल गया…हालांकि साल 2018 में बीजेपी की त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने उत्तराखण्ड के भूमि कानून की जैसी दुर्दशा की, उसका जैसा बुरा हाल किया, उससे पूरा उत्तराखंड अब तक आंदोलित है। वो त्रिवेंद्र सिंह रावत ही जिन्होंने 2017 में सरकार में आते ही उत्तराखण्ड की दो नगर पालिकों को नगर निगम बनाने का फैसला किया था…इनमें एक है ऋषिकेश और दूसरा कोटद्वार…यानी हमारी हर सरकार ने बाहर के लोगों को जमीनों की अंधाधुंध लूट का वैध रास्ता दे दिया…दिलचस्प बात ये है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत के भूमि कानून पर किए फैसले को न उनके बाद आए तीरथ सिंह रावत ने बदला, न उनके बाद आए पुष्कर सिंह धामी ने बदला और न ही 2022 में सत्ता में वापसी करने के बावजूद धामी आज तक बदल पाए…
तो क्या ये माना जाए कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व में उत्तराखंड में जमीनों की लूट को लेकर मौन सहमति है? अगर ऐसा है तो उत्तराखण्ड के लोगों को एक बार जरूर सोचना चाहिए कि ये पूरा खेल क्या चल रहा है? नगर पालिकाओँ को नगर निगम में बदलने से कई लोगों को ये लग सकता है कि नए पार्षद चुने जाएंगे तो उनको भी नेतागिरी का मौका मिलेगा..लेकिन इससे सिर्फ इतना होगा कि ये नगर निगम उत्तराखंड में नेताओं नई पौध के उत्पादन का कारखाना ही साबित होंगे…हमारे गांवों को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी…गांव-गांव नहीं रहेंगे और आपके और हमारे पैरों के नीचे से हमारी जमीन चली जाएगी।
याद रखिएगा, जब आपकी आने वाली पीढ़ियां आपसे पूछेंगी कि जब हमारी जमीनें लूटी जा रही थीं, तब आप क्या कर रहे थे…जब हमारे जंगल, जल जैसे संसाधनों पर डाका डाला जा रहा था, तब आप क्या कर रहे थे…जब हम पहाड़ियों को अपनी जड़ों से काटने की साजिश बुनी जा रही थी, तब आप क्या कर रहे थे…तो आप ये नहीं बता पाएंगे कि आप तब हिंदू-मुस्लिम करने में व्यस्त थे, आप तक किसी की इबादतगाह पर हमला बोलने वाली भीड़ का हिस्सा थे…आप ये नहीं कह पाएंगे कि आप अलां जिहाद-फलां जिहाद जैसे खेल में उलझे हुए थे…रूस के एक बहुत मशहूर लेखक हुआ करते थे रसूल हमजातोव….उनका एक बहुत ही चर्चित उपन्यास है मेरा दागिस्तान…उसमें वो एक जगह लिखते हैं-अगर तुम अतीत पर पिस्तौल से गोली चलाओगे, तो भविष्य तुम पर तोप से गोले बरसाएगा। समझदार को इशारा ही काफी है.क्या आपने एक बात नोटिस की कि उत्तराखण्ड में अब तक की सरकारें या नेताओं की जमात अक्सर किसी नगर पालिका को नगर निगम बनाने का शिगूफा क्यों छेड़ती रही हैं.? ऐसी मांग उठाने के पीछे की वजह क्या है? क्या आपने कभी गौर फरमाया कि हमारी सरकारें और नेता हमारे राज्य के ग्रामीण इलाकों को शहरी इलाकों में शामिल करने में इतनी क्यों दिलचस्पी दिखाती रहे हैं? वो गांवों को शहर बनाने के लिए इतने बेसब्र क्यों रहते हैं?
इसके पीछे का पूरा सच आंखें खोल देने वाला है जिससे पता चलता है कि उत्तराखण्ड में जमीनों की लूट के चोर दरवाजे कैसे निकाले गए? भूमि की इस लूट को संस्थागत स्वरूप कैसे दिया गया? कैसे गांवों को नगर निकायों में शामिल करके वहां की कृषि भूमि को हड़पने का खेल रचा गया.
अगर मैं आपसे पूछूं कि नगर निगम देहरादून, नगर निगम कोटद्वार, नगर निगम श्रीनगर, नगर निगम ऋषिकेश नगर निगम अल्मोड़ा या नगर निगम पिथौरागढ़, इनमें कोई एक समानता बताइए. तो स्वाभाविक रूप से आपका पहला जवाब होगा कि ये सभी नगर पालिका से अपग्रेड होकर नगर निगम बने हैं या बनाए गए हैं. उत्तराखण्ड सरकार ने 2003 से 2024 तक 21 साल में 11 नगर पालिका परिषदों को नगर निगम में बदल डाला। यानी औसतन हर दो साल में एक नया नगर निगम अस्तित्व में आ गया। इनमें 8 नगर पालिकाओं को नगर निगम में बदलने का फैसला बीजेपी सरकार ने लिया जबकि 3 नगर पालिकाओँ को नगर निगम कांग्रेस की सरकार ने बनाया। हमारे पडोसी राज्य हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा मिले हुए 53 साल हो चुके हैं, वहां अब जाकर 5 म्यूनिसिपैलिटीज को नगर निगम का दर्जा मिल पाया है।
आखिर नगर पालिका परिषदों को नगर निगम में बदलने की रफ्तार हमारे यहां इतनी तेज क्यों है ? क्या ये सिर्फ संयोग है या कोई राजनीतिक प्रयोग है?
उत्तराखण्ड में सबसे पहला नगर निगम 2003 में देहरादून को बनाया गया था। 2011 की जनगणना के हिसाब से देखें तो इसका लॉजिक भी समझ में आता है क्योंकि 2011 की जनगणना में देहरादून की आबादी करीब 5 लाख 75 हजार थी. हरिद्वार नगर पालिका का मामला भी समझ मं आ सकता है, क्योंकि 2011 की जनगणना के हिसाब से यहां आबादी 2 लाख 30 हजार के आसपास थी। लेकिन कोटद्वार, श्रीनगर, अल्मोडा, पिथौरागढ़ जैसे पहाड़ी नगरों को भी नगर निगम का जामा किस आधार पर पहना दिया गया ?
गौर करने पर इसका एक सिरा जुड़ता दिखता है उत्तराखंड में जमीनों की खरीद-फरोख्त से। उत्तराखंड के पहले मुख्यमंत्री एनडी तिवारी की सरकार के समय जो भूमि कानून बना था, वो उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950 में संशोधन करके बनाया गया था जिसमें उत्तराखंड से बाहर के लोगों के लिए जमीन खरीद की सीमा पर बंदिश लगा दी गई थी.। इसके तहत बाहरी राज्यों के लोग सिर्फ नगरीय इलाकों में ही 500 वर्ग मीटर जमीन खरीद सकते हैं। गांवों की कृषि भूमि की खरीद-फरोख्त पर रोक थी। 2007 में आई बीजेपी की बीसी खंडूडी सरकार ने दो कदम आगे बढ़ कर बाहरी लोगों के लिए नगरीय इलाकों में जमीन खरीद की 500 वर्ग मीटर से घटाकर 250 वर्ग मीटर कर दी थी।
15 जनवरी 2004 में भूमि कानून को लेकर जो गजट नोटिफिकेशन जारी हुआ था, उसमें लिखा है कि- यह कानून, नगर निगम, नगर पंचायत, नगर परिषद, छावनी परिषद क्षेत्रों की सीमा के अंतर्गत आने वाले और समय-समय पर सम्मिलित किए जा सकने वाले क्षेत्रों को छोड़कर सम्पूण उत्तरांचल राज्य में लागू होगा. यानी यह बहुत साफ है कि इस कानून में जो पाबंदियां हैं, वो उत्तराखण्ड के ग्रामीण इलाकों में ही लागू होंगी.
यानी जो बाहर के लोग हैं, वो शहरी इलाकों में तो एक निश्चित जमीन खरीद सकते हैं लेकिन उत्तराखण्ड में खेती की जमीन नहीं खरीद सकते थे। ग्रामीण इलाके सिर्फ पहाड़ में ही नहीं हैं, वो देहरादून, हल्दवानी- काठगोदाम, कोटद्वार-भाबर में भी हैं। तराई के ग्रामीण इलाके भी हैं। नेताओं, नौकरशाहों, बिल्डरों, लैंड माफिया, बाहर के धन्नासेठों की तो उसी कृषि भूमि पर गिद्धदृष्टि थी। तो उस कृषि भूमि को कब्जाने के लिए एक जुगत ये निकाली गई कि जो छोटे शहरी निकाय थे, नगर निकाय थे, उनका दायरा बढ़ा दिया गया… यानी जमीन के लुटेरों का गठजोड़ चालाकी से नगरीय क्षेत्रों का विस्तार करता चला गया….उन्हें गांवों की तरफ फैलाता चला गया…और शहरों के नजदीक के हमारे गांवों को और उनकी जमीनों को निगलता चला गया. पिछले दिनों खुद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी जमीनों की लूट की बात सार्वजनिक तौर पर कबूल की थी।
ये सब सरकारी कारश्तानी की वजह से ही हुआ है…जैसे कोटद्वार- श्रीनगर-अल्मोड़ा या पिथौरागढ़ की नगर पालिका परिषद को नगर निगम बना दिया गया. अब नगर निगम के लिए तो आबादी के कुछ मानक होते हैं…नगर पालिका वाले क्षेत्रों में तो वो मानक पूरे नहीं हो रहे थे…क्योंकि एक लाख तक की आबादी चाहिए होती है। पालिका परिषद के निगमीकरण की प्रक्रिया ये है कि अगर किसी शहर में एक लाख के पार आबादी है तो उसे नगर निगम बनाया जा सकता है…लेकिन यहां तो पहले नगर निगम बनाने का फैसला हो जाता है और फिर आबादी के पैमाने को सेट करने के लिए जंकजोड़ किया जाता है। उस आबादी के मानकों को पूरा करने के लिए ऋषिकेश, कोटद्वार, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ या श्रीनगर के आसपास के ग्रामीण इलाकों को नगर निगम क्षेत्र में शामिल कर लिया गया।
कोटद्वार जब नगर पालिका एरिया था, तो 2011 की जनगणना के हिसाब से कोटद्वार नगर पालिका क्षेत्र की आबादी थी करीब 33 हजार। ये नगर निगम के मानकों को पूरा नहीं कर रहा था लेकिन सरकार इसे नगर निगम बनाने पर आमादा थी तो आबादी के मानक को पूरा करने के लिए इसमें दस बीस नहीं, बल्कि 73 राजस्व गांवों को शामिल कर लिया गया। ये वो गांव थे जहां उस वक्त उत्तराखंड में लागू भूमि कानून की वजह से बाहर के लोग कृषि भूमि नहीं खरीद सकते थे। गांवों को नगर निगम में मिलाने के बाद वो पाबंदी अपने आप ही खत्म हो गई। गांवों के शहर में शामिल हो जाने के बाद कोटद्वार नगर निगम एरिया की आबादी भी 1 लाख के पार हो गई. सरकारी अधिसूचना के मुताबिक कोटद्वार को नगर निगम बनाने के लिए आसपास की कुल 4 पट्टियों के 73 गांव शामिल किए गए…इन गांवों की आबादी 2011 की जनगणना के मुताबिक 1 लाख 2 हजार 903 थी. इस निगमीकरण की वजह से कोटद्वार-भाबर इलाके का कुल 4251.763 हेक्टेयर एरिया शहर में आ गया और यहां भूमि कानून की पाबंदियां स्वतः ही खत्म हो गईं।
इसी तरह साल 2017 में ऋषिकेश नगर पालिका का विस्तार कर इसे नगर निगम बना दिया गया। 2011 की जनगणना के हिसाब से ऋषिकेश नगर पालिका क्षेत्र में 70 हजार की आबादी थी। फिर ग्रामसभा ऋषिकेश और वीरपुर खुर्द को नगर निगम में शामिल किया गया। पहले ये ग्रामीण इलाके थे जहां भूमि कानून के तहत बाहरी लोगों के लिए कृषि भूमि की खरीद पर पाबंदी थी। 2017 में हल्दवानी नगर निगम में काठगोदाम इलाके के 36 गांवों को शामिल कर लिया गया।
अल्मोड़ा नगर पालिका परिषद की आबादी 2011 की जनगणना के हिसाब से 34 हजार थी। नगर निगम बनाने के लिये आसपास के 13 गांवों को नगर निगम में शामिल कर लिया गया। हालांकि इसका विरोध भी हुआ लेकिन विरोध तो पिथौरागढ़ के आसपास के गांवों को नगर निगम में शामिल करने को लेकर भी हुआ। श्रीनगर को नगर निगम में अपग्रेड करने के लिये आसपास के जो 21 गांवों, जिनमें श्रीकोट, स्वीत, रतूड़ा जैसे गांव शामिल हैं, को नगर निगम में शामिल कर लिया। सरकार ने दलील ये दी कि श्रीनगर के आसपास के गांवों के लोगों को भी नगरीय सुविधायें मिलेंगी। लेकिन सरकार के मंसूबों की पोल खुल गई उत्तराखण्ड हाईकोर्ट नैनीताल में दायर एक याचिका पर हुई सुनवाई के दौरान।
यह याचिका श्रीनगर नगर पालिका परिषद की तत्कालीन अध्यक्ष पूनम तिवारी की ओर से दाखिल की गई थी। इस केस में साल 2002 में आए फैसले को पढ़ कर आँखें खुल जाती हैं। कोर्ट में सरकारी वकील ने के तर्कों से मालूम हो जाता है कि नगर निगम लोगों की सुविधा के लिए नहीं, बल्कि लैंड माफिया की सुविधा के लिये बनाये जा रहे हैं। एडवोकेट जनरल के अनुसार ऐसे कई गांव हैं जो भूतिया गांव बन गए हैं। मतलब साफ है कि इन गांवों में आबादी बहुत कम है…कई गांवों में तो लोग ही नहीं रहते…इसके बावजूद उन्हें श्रीनगर नगर निगम में मिलाया जा रहा है
श्रीनगर नगर निगम बनाने के लिए कुल गांव शामिल किए गए- 21। कुल आबादी शामिल की गई- 4462। कुल क्षेत्रफल आया- 1244 वर्ग किलोमीटर। तो इक्कीस गांव और आबादी कुल साढ़े चार हजार….जबकि नगर निगम के कब्जे में आ गई करीब साढ़े बारह सौ वर्ग किलोमीटर जमीन…जिसमें कृषि भूमि भी है…21 गांवों को शामिल करने से भी 90 हजार की आबादी वाला मानक पूरा नहीं हुआ, इसके बावजूद 31 दिसंबर 2021 को अधिसूचना जारी करके धामी सरकार ने श्रीनगर को नगर पालिका परिषद से नगर निगम बना दिया…जबकि 2011 की जनगणना के हिसाब से श्रीनगर नगर पालिका परिषद कैटेगरी-3 की नगर पालिका ही डिजर्व करती थी…शायद श्रीनगर आबादी के लिहाज से उत्तराखण्ड का सबसे छोटा नगर निगम होगा. श्रीनगर के आसपास के गांवों को नगर निगम का हिस्सा बना दिया गया..तो वहां पंचायती राज खत्म हो गया..प्रधानी के दिन जाते रहे….अब इन गांवों के बाशिंदे भी शहरी कहलाने लगे हैं। तो गांवों को जब नगर निगम के अधीन ला दिया गया तो वहां वहां भी शहरी कानून लागू हो गया, जहां बाहरी लोगों के लिए जमीन खरीद पर पाबंदी नहीं है। उत्तराखण्ड में जमीनों की लूट का एक चोर दरवाजा खोला गया ..जिसमें सरकार की तरफ से वैधता की मुहर लगा दी गई।लेकिन इसमें एक लोचा हो गया, जिन लैंडमाफिया की, जिन ब्यूरोक्रेट्स की, जिन धन्नासेठों की, जिन नेताओं की गांवों कि जमीन पर गिद्धदृष्टि थी और उनको कुछ इलाकों में जमीन के कुछ सौदों में दिक्कत आने लगी…पता चला कि जो कृषि भूमि शामिल किए गए गांवों से नगर निगम में लाई गई, उनमें से कइयों के केस कोर्ट में चल रहे हैं…अब जाहिर सी बात है कि लैंडमाफिया ने ये बात अपने आकाओं तक पहुंचाई होगी…
तो फिर हुआ ये कि सरकार ने उन लोगों को सहूलियत देने के लिए भूमि कानून में एक और संशोधन किया…धामी सरकार ने 12 सितंबर 2024 को एक और अधिसूचना जारी की…जिसमें लैंड एक्ट में संशोधन किया…तारीख याद रखिएगा. 12 सितंबर 2024… जी हां, बिल्कुल हाल की बात है…आप में से बहुत से लोगों को तो हवा ही नहीं लगी होगी क्योंकि हमारे पहाड़ के लोग हिंदू मुसलमान, लैंड जिहाद, लव जिहाद, थूक जिहाद जैसे कृत्रिम मुद्दों में उलझे हुए थे…आपको इस सो कॉल्ड जिहाद से फुर्सत मिलती तो आपको पता चलता कि सरकार अंदर ही अंदर क्या खेल कर रही है…
वो जो नोटिफिकेशन हाल में जारी हुआ है, उसमें सीएम धामी साहब की तरफ से लिखा गया है कि-नगर निकाय क्षेत्रों के विस्तार के बाद शामिल किए गांवों की कृषि भूमि नगर निकाय में आ गई….ऐसी जमीन उत्तराखंड में 2004 से लागू भूमि कानून की परिभाषा से बाहर हो गई…लेकिन ऐसी कई जमीनों के मामले कोर्ट में निपटारे में दिक्कत आ रही है, इस वजह से भूमि कानून की धारा-1 संशोधन किया गया…अब ये संशोधन क्या किया गया, जरा ये भी समझ लीजिए….उसमें एक उपधारा 2-क जोडी गई जिसके मुताबिक यदि कोई क्षेत्र 7 जुलाई 1949 के बाद किसी नगर निकाय में शामिल किया जाता है…तो वो भी शामिल माने जाएँगे जब तक कि लैंड एक्ट के तरह जमीन पर से कृषि भूमि का टैग नहीं हट जाता। मतलब ऐसा नहीं होगा कि किसी कृषि भूमि में डिस्प्यूट है तो उसे शहर में शामिल नहीं माना जाएगा. नहीं..वो जमीन भी शहरी निकाय में शामिल होगी. भले ही उसे कृषि भूमि से अकृषि भूमि बनने में समय लगे। मतलब हर हाल में कृषि भूमि पर नजर है….
तो सरकार का नगर पालिका परिषदों को नगर निगम में बदलने का ये ऑपरेशन, ऐसा लग रहा है कि जमीनों की लूट की राह को आसान बना रहा है….उसे सरलीकृत कर रहा है। हालांकि सरकार इसके पीछे कई दलीलें देती आ रही है। इनमें एक रटा-रटाया तर्क है कि इससे हमारे नगरों और उनके आसपास के गांवों का भरपूर विकास होगा और लोगों को बेहतर सुविधाएं मिलेंगी… देहरादून, हल्क्दवानी, हरिद्वार जैसे नगर निगमों के अधीन आने के बाद वहां के पूर्व ग्रामीण इलाकों को क्या सुविधायें मिल रही हैं, या उनके सामने क्या नई दिक्कतें आ गईं… ये तो वही जानें..लेकिन शक इसलिए गहरा रहा है क्योंकि पहाड़ के नगर पालिका क्षेत्रों में तो इतनी आबादी ही नहीं है कि वहां नगर निगम बनाने की जरूरत पडे….लेकिन फिर भी सरकार गांवों को जबरन नगर निगम में शामिल करने पर आमादा है…मैं इसीलिए कह रहा हूं कि ये बेहद शातिराना चाल है…हमारी सरकारें उस शुतुर्मगुर्ग की तरह बर्ताव करती रही हैं जोकि रेत में सिर घुसेड़कर आश्वस्त हो जाता है कि अब कोई उसे देख नहीं रहा है…
लेकिन बड़ा सवाल ये पैदा होता है कि क्या छोटी नगर पालिकाओं को सीधे नगर निगम में तब्दील किया जा सकता है?… जब मैंने इस बिंदु पर पड़ताल की तो मुझे 8 अक्टूबर 2010 को उत्तराखंड सरकार द्वारा जारी एक शासनादेश मिला जिसमें राज्य के नगर निकायों के लिए जनसंख्या के मानक तय किए…उसी जनसंख्या के हिसाब से नगर पालिकाओं की कैटेगरी तय की गई – जैसे
कैटेगरी-4 – वो नगर पालिका परिषद जिसकी आबादी 25 हजार है
कैटेरी-3- वो नगर पालिका परिषद जिसकी आबादी 35 हजार तक है
कैटेगरी-2 वो नगर पालिका परिषद जिसकी आबादी 50 हजार तक है
कैटेगरी-1 -वो नगर पालिका परिषद जिसकी आबादी 50 हजार से 1 लाख तक है..
तो कायदे से जब किसी नगर पालिका की शहरी आबादी 1 लाख की सीमा पार कर जाएगी तभी किसी नगर पालिका को नगर निगम का दर्जा दिया जाना चाहिए थे..हालांकि 2010 के उस शासनादेश के 3 साल बाद यानी 2013 में इसमें एक संशोधन किया गया और वो ये कि पर्वतीय क्षेत्र के लिए नगर निगम में 90 हजार की आबादी का मानक बनाया गया..यानी जिस नगर पालिका परिषद क्षेत्र में 90 हजार की आबादी हो, उसे नगर निगम बनाया जाएगा…
वरना इससे नीचे की आबादी वाली नगर पालिकाओं की सिर्फ कैटेगरी बदलती रहनी चाहिए थी…मतलब अगर 25 हजार आबादी है तो कैटेगरी-4, 35 हजार हो गई तो कैटेगरी-3, 50 हजार हो गई तो कैटेगरी-2 और 50 हजार से ज्यादा हो गई तो कैटेगरी-1….लेकिन रहेगी नगर पालिका परिषद ही….
लेकिन यहां पूरा खेल ही उल्टा हुआ…सरकार ने पहले तय कर लिया कि फलां शहर को नगर निगम बनाना है, अब आबादी का इंतजाम करो…मतलब मंडप सजा दिया गया, बेदी सजा दी गई लेकिन ब्योला-ब्योली यानी दूल्हा-दुल्हन को उसके बाद ढूंढा जा रहा है…इसके लिए क्या किया गया, आसपास के गांवों को जबरन शहर बनवा दिया गया…इसके पीछे सरकार की या नेताओं की जो भी मंशा रही हो, लेकिन एक बात जरूर हुई है… उन गांवों के शहर बन जाने के बाद वो ग्रामीण इलाके भूमि-कानून की बंदिशों से मुक्त हो गए और वहां की जमीनों पर नजरें गढ़ाए धन्नासेठों के लिए जमीन की लूट का रास्ता खुल गया…हालांकि साल 2018 में बीजेपी की त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने उत्तराखण्ड के भूमि कानून की जैसी दुर्दशा की, उसका जैसा बुरा हाल किया, उससे पूरा उत्तराखंड अब तक आंदोलित है। वो त्रिवेंद्र सिंह रावत ही जिन्होंने 2017 में सरकार में आते ही उत्तराखण्ड की दो नगर पालिकों को नगर निगम बनाने का फैसला किया था…इनमें एक है ऋषिकेश और दूसरा कोटद्वार…यानी हमारी हर सरकार ने बाहर के लोगों को जमीनों की अंधाधुंध लूट का वैध रास्ता दे दिया…दिलचस्प बात ये है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत के भूमि कानून पर किए फैसले को न उनके बाद आए तीरथ सिंह रावत ने बदला, न उनके बाद आए पुष्कर सिंह धामी ने बदला और न ही 2022 में सत्ता में वापसी करने के बावजूद धामी आज तक बदल पाए…
तो क्या ये माना जाए कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व में उत्तराखंड में जमीनों की लूट को लेकर मौन सहमति है? अगर ऐसा है तो उत्तराखण्ड के लोगों को एक बार जरूर सोचना चाहिए कि ये पूरा खेल क्या चल रहा है? नगर पालिकाओँ को नगर निगम में बदलने से कई लोगों को ये लग सकता है कि नए पार्षद चुने जाएंगे तो उनको भी नेतागिरी का मौका मिलेगा..लेकिन इससे सिर्फ इतना होगा कि ये नगर निगम उत्तराखंड में नेताओं नई पौध के उत्पादन का कारखाना ही साबित होंगे…हमारे गांवों को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी…गांव-गांव नहीं रहेंगे और आपके और हमारे पैरों के नीचे से हमारी जमीन चली जाएगी।
याद रखिएगा, जब आपकी आने वाली पीढ़ियां आपसे पूछेंगी कि जब हमारी जमीनें लूटी जा रही थीं, तब आप क्या कर रहे थे…जब हमारे जंगल, जल जैसे संसाधनों पर डाका डाला जा रहा था, तब आप क्या कर रहे थे…जब हम पहाड़ियों को अपनी जड़ों से काटने की साजिश बुनी जा रही थी, तब आप क्या कर रहे थे…तो आप ये नहीं बता पाएंगे कि आप तब हिंदू-मुस्लिम करने में व्यस्त थे, आप तक किसी की इबादतगाह पर हमला बोलने वाली भीड़ का हिस्सा थे…आप ये नहीं कह पाएंगे कि आप अलां जिहाद-फलां जिहाद जैसे खेल में उलझे हुए थे…रूस के एक बहुत मशहूर लेखक हुआ करते थे रसूल हमजातोव….उनका एक बहुत ही चर्चित उपन्यास है मेरा दागिस्तान…उसमें वो एक जगह लिखते हैं-अगर तुम अतीत पर पिस्तौल से गोली चलाओगे, तो भविष्य तुम पर तोप से गोले बरसाएगा। समझदार को इशारा ही काफी है.