डॉ. अतुल शर्मा
धुंध और धुएं की जुगलबंदी में
बीमार हो गयी हैं हवायें
धुंधलके में हैं इंडिया गेट और ताजमहल
पेड़ों पर जम गयी है अराजक अव्यवस्था
मुलायम पत्तियों के फट गये हैं होंठ
रफ्तार के जंगलों में
दौड़ रही है बदहवास दिनचर्या
ये शहर है या कुछ और
मैली सी चादर ओढ़े हुए
अपने-अपने हरसिंगार को सहेज रहे हैं हाथ
सांसों में समा गया है
यह धुंधला समय
पहाड़ों में
बह रही है
साफ और खूबसूरत नदी
जिसमें भर रहा है
उखाड़े जा रहे पहाड़ों का मलबा
आतंकित हैं बचे हुए जंगल