व्योमेश चन्द्र जुगरान
उत्तराखंड सरीखा छोटा राज्य सड़क दुर्घटनाओं की गंभीरता यानी मारक क्षमता के मामले में 62.2 प्रतिशत के साथ देश में आठवें पायदान पर खड़ा है जबकि राष्ट्रीय औसत 36.5 प्रतिशत है। यह जानकारी केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय की हाल में जारी एक रिपोर्ट से सामने आई है। गंभीरता का आंकलन प्रति सौ दुर्घटनाओं में मारे गए लोगों कीसंख्या के आधार पर किया जाता है।देश में औसतन हर रोज 1263 हादसों में 461 मौतें होती हैं। इन आंकड़ों को उत्तराखंड के संदर्भ में देखें तो सड़क सुरक्षा की तस्वीर यहां काफी डरावनी है। सूचनाधिकार से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि राज्य गठन के 24 सालों के भीतर उत्तराखंड में विभिन्न सड़क दुर्घटनाओं में बीस हजार से अधिक लोगों ने जान गंवाई है।
पहाड़ी मार्गों पर होने वाले सड़क हादसे कोई भूकम्प या प्राकृतिक आपदा नहीं हैं कि रोके न जा सकें। ऐसे अधिकांश मामलों में लापरवाही, मानवीय भूल, खस्ताहाल सड़कें, वाहनों की फिटनेस, अधिक भार, तेज रफ्तार, अकुशल ड्राइविंग, ड्राइवरों की मनोदशा, शराब और खराब मौसम जैसी वजहें गिनाई जाती हैं। इनमें एक भी कारण ऐसा नहीं है जिससे पार न पाया जा सके। बावजूद इसके, हर नया साल यहां मौतों का बढ़ा हुआ आंकड़ा छोड़कर विदा हो रहा है। पिछले चार वर्षों को देखें तो 2018 में हुए 1468 सड़क हादसों के मुकाबले 2022 में ये बढ़कर 1674 हो गए। वर्ष 2024 के आंकड़े तो सामने नहीं हैं, पर हाल में पौड़ी-अल्मोड़ा की सीमा पर मरचूला में हुए लोमहर्षक हादसे की पड़ताल से सिद्ध है कि सड़क सुरक्षा को लेकर उत्तराखंड राज्य अपना रिकॉर्ड सुधारने की दिशा में बिल्कुल गंभीर नहीं है।
चार नवम्बर की सुबह जैसे ही यह खबर मिली किनाथ से सुबह छह बजे रामनगर को रवाना हुई बस मरचूला के पास डेढ़ सौ मीटर नीचे खाई में जा गिरी है, पूरी घाटी में चीख-पुकार मच गई। गढ़वाल मोटर यूजर्स की इस बस में आसपास के करीब एक दर्जन गांवों के लोग सवार थे। इनमें 36 मौके पर ही मारे गए जबकि दो ने अस्पताल में दम तोड़ा।इस मार्ग पर यह एकमात्र नियमित बस सेवा है जो अमूमन सवारियों से भरी रहती है। तीज-त्योहार, शादी-ब्याह आदि मौकों परतो दो-दो बसों की सवारी एक ही में भर जाती हैं क्योंकि लोगों के पास कोई विकल्प नहीं होता।उस अभागे दिन भी यही हुआ।दीपावली की छुट्टियों के बाद अपने-अपने काम पर लौटते लोगों का रेला ‘40 सीट बनाम 64 यात्री’ की खतरनाक क्षमता के साथ बस में ठुंस गया। करीब डेढ़ घंटे के बाद ही बस असंतुलित होकर मरचूला के निकट डेढ़ सौ मीटर गहरी खाई में जा गिरी और 38 यात्रियों के अंतिम सफर का शोकगीत लिख गई। इससे पूर्व भी एक जुलाई 2018 को इसी क्षेत्र में धूमाकोट के निकट ऐसी ही एक बस दुर्घटना में 48 लोगों की मौत हुई थी।
ये मौतें बताती हैं कि देश में सबसे अधिक जोखिम भरी पहाड़ की परिवहन व्यवस्था को शासकीय और गैरशासकीय दोनों स्तर पर हल्के ढंग से लिया जाता रहा है। सड़क हादसों की जांच का क्या हस्र होता है, इसका यह उदाहरण काफी है कि मरचूला हादसे में निलंबित परिवहन अधिकारी इससे पूर्व 2018 के धूमाकोट बस हादसे में भी निलंबित हो चुके थे। तब भी सख्ती और कड़े नियम-कानूनों का खूब शोर मचा था, पर ठोस नीतियां लागू किए बिना महज मुहंजुबानी नियम कितने दिन ठहर पाते!
भीतरी पहाड़ों में जिस परिमाण में सड़कों का जाल बिछ रहा है, उस परिमाण में सड़क सुरक्षा और सार्वजनिक परिवहन सेवाओं का विस्तार नहीं हो पाया है। यहां रोडवेज सेवा अंतरमार्गीय परिवहन का मुख्य साधन कभी नहीं रहीं। भीतरी पहाड़ों में परिवहन का असल धर्म गढ़वाल मोटर ओनर्स यूनियन (जीएमओयू), टिहरी गढ़वाल मोटर्स ओनर्स यूनियन (टीजीएमओयू) और कुमाऊं मोटर्स ओनर्स यूनियन (केएमओयू) ने निभाया है। परिवहन में सहकारिता का विलक्षण आयाम स्थापित करने वाली ये सेवाएं ही सही मायने में पर्वतीय परिवहन की प्राणरेखा रहीं हैं। लेकिन हाल के वर्षों में गांव-गांव सड़कों के जाल के साथ ही सरपट दौड़ते जीप परिवहन ने मोटर ओनर्स को लगभग बाहर खदेड़ दिया है।जीपें जवाबदेह पुलिस और परिवहन कर्मियों को ऊपरी कमाई करा नियम कानूनों को ठेंगा दिखाने में माहिर हैं। दूर-दराज के इलाकों में तो ये हर तरह की जांच-पड़ताल से परे होती हैं। एक ओर यदि वैकल्पिक परिवहन फलफूल रहा है, वहीं जीएमओयू जैसी सेवाओं को अपनी उपयोगिता बनाए रखने के लिए खासी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। आज इनकी हालत बहुत खराब है। नई गाडि़यां हैं नहीं और10 से 15 साल पुराने वाहनों से ही गाड़ी खिंच रही है।मरचूला में गिरी बस भी पुरानी थी और बताते हैं कि इसकी फिटनेस मार्च 2025 तक की ही थी।
उत्तराखंड एक पर्यटन राज्य भी है और पर्यटन का सीधा संबंध परिवहन से होता है। बढ़ती सड़क दुघर्टनाओं का संदेश राज्य में आने वाले पर्यटकों के बीच अच्छा नहीं जाएगा। सड़क सुरक्षा के पैरामीटरों परध्यान दिया जाना सरकारों की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। यदि राज्य की शिनाख्त सड़क हादसों की दृष्टि से संवेदनशील श्रेणी में की गई है तो इसका सीधा संबंध ड्राइवरों की मनोदशा,सड़कों के रख-रखाव, राहत व बचाव कार्यों, पैरा मेडिकल और अन्य चिकित्सा सेवाओं, ब्लैक स्पॉट की पहचान और पैराफिट सुरक्षा जैसे कारकों से है। इन सब कारकों का कारगर और सुदृढ़ समन्वय ही एक सुरक्षित परिवहन की गारंटी हो सकता है।