जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड में पांचवीं विधान के चुनाव के लिये अब मात्र एक साल का समय रह गया है। उस पर भी अगर चुनाव अगले साल फरबरी या मार्च में हुये तो आचार संहिता इसी साल दिसम्बर में लागू हो जानी है। इसलिये तब तक प्रदेश में चाहे जो भी मुख्यमंत्री रहे उसके पास अच्छी परफार्मेंस दिखा कर मतदाताओं को प्रभावित करने के लिये एक साल का भी समय पूरा नहीं है। लेकिन इतने कम समय के बचने के बावजूद उत्तराखण्ड में नये साल में नये मुख्यमंत्री को लेकर बनी अनिश्चितता बरकरार है और जनता ही नहीं बल्कि नौकरशाही की निगाहें भी भाजपा के आला कमान पर टिकी हुयी हैं। मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत द्वारा अपनी लोकप्रियता साबित करने के लिये ताबड़तोड़ फैसले लिये जाने के बावजूद वह न तो अब तक के सबसे कमजोर और अनुभवहीन मुख्यमंत्री की छवि को तोड़ पाये हैं और ना ही पार्टी काडर उनके नेतृत्व में चुनावी वैतरणी के पार होने के प्रति आश्वस्त हो पा रहा है।
यद्यपि मुख्यमंत्री खेमे का तर्क है कि अब राज्य में नेतृत्व परिवर्तन का न तो समय बचा है और ना ही देश और सत्तारू-सजय़ पार्टी को चला रही मोदी-ंउचयशाह की जोड़ी अपने फैसलों को बदलती हैं। पार्टी के वरिष्ठ एवं अनुभवी नेताओं को किनारे कर त्रिवेन्द्र रावत को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला इसी सर्व शक्तिमान जोड़ी का ही था। त्रिवेन्द्र की कुर्सी पक्की होने के पक्ष में हरियाणा के मानोहरलाल खट्टर एवं महाराष्ट्र के देवेन्द्र फणनवीस का भी उदाहरण दिया जा रहा है। लेकिन भाजपा के ही त्रिवेन्द्र विरोधी खेमे का तर्क है कि उत्तराखण्ड भी -हजयारखण्ड की राह चल रहा है।
मुख्यमंत्री पर सीधे भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। हाइकोर्ट इन आरोपों की जांच के लिये सीबीआइ को आदेश तक दे चुकी है, भले ही फिलहाल हाइकोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने स्थगनादेश दे रखा है, लेकिन आदेश रद्द नहीं किया है। अगर सुप्रीमोर्ट ने हाइकोर्ट का फैसला बरकरार रखा जांच के दौरान त्रिवेन्द्र को हटाना ही पड़ेगा। मुख्यमंत्री के परिवार, रिश्तेदार और करीबी लोगों पर गंभीर आरोप लगते रहे हैं। हाल ही में मुख्यमंत्री के सलाहकार की कम्पनी का कारोबार अचानक 200 करोड़ तक उछाल मारने और उसमें -सजयाइ लाख लोगों की सदस्यता का मामला विधानसभा से लेकर गलीकूचे में भी चर्चा का विषय बना हुआ है। पार्टी के अन्दर का असन्तोष अब किसी से छिपा नहीं है। पहले पार्टी के वरिष्ठतम विधायक बिशन सिंह चुफाल कुछ विधायकों की नाराजगी को लेकर पार्टी अध्यक्ष नड्ढा के पास गये थे। फिर लोहाघाट के भाजपा विधायक पूरन सिंह फत्र्याल ने भ्रष्टाचार को लेकर अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला। फत्र्याल दबाव के बावजूद अपने स्टैंड पर अब भी अडिग हैं।
फत्र्याल के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व मंत्री लाखी राम जोशी ने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का पत्र लिख कर मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत पर सीधे गंभीर आरोप लगा कर स्पष्ट कर दिया कि अगर इन्हीं के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया तो भाजपा की हार निश्चित है। यही नहीं 2016 में कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में आये नेता भी त्रिवेन्द्र रावत से खासे नाराज हैं। उन्हीं में से एक सतपाल महाराज के विभाग के कार्यों का उद्घाटन या शिलान्यास कार्यक्रम होता है और उन्हीं को कार्यक्रम में नहीं बुलाया जाता। मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत के बीच की तनातनी सार्वजनिक हो गयी है। मुख्यमंत्री न केवल हरकसिंह रावत की उपेक्षा और उनके ही विभाग में उनकी बेकद्री कर रहे हैं अपितु उन्हें फंसाने के लिये तरह तरह के उपक्रम कर रहे हैं। त्रिवेन्द्र रावत पिछले दो सालों से मंत्रिमण्डल विस्तार की अनुमति पार्टी नेतृत्व से न मिलना उनकी कुर्सी के लिये सबसे बड़े खतरे का संकेत माना जा रहा है। पहले मंत्रिमण्डल में दो सीटें रिक्त थीं लेकिन प्रकाश पन्त के निधन के बाद रिक्तियों की संख्या तीन हो गयी है। लेकिन मुख्यमंत्री को अपने कैबिनेट के विस्तार की अनुमति नहीं मिल रही है।
मुख्यमंत्री पहले ही कई दर्जन विभागों के बो-हजय तले दबे हुये थे और अनुभवहीनता के कारण उनका काम उनके अनाड़ी सलाहकार और नौकरशाह कर रहे थे। लेकिन अब वित्त और संसदीय कार्य विभाग की अतिरिक्त जिम्मेदारियों ने स्थिति और भी बिगाड़ दी है। स्वास्थ्य विभाग भी स्वयं मुख्यमंत्री के पास है और इस विभाग की दुर्दशा का आलम यह कि कोरोना स्व्यं त्रिवेन्द्र सिंह रावत को अपनी व्यवस्था पर भरोसा नहीं है अगर होता तो वे मामूली कोरोना संक्रमण पर देहरादून में ही इलाज कराने के बजाय दिल्ली के एम्स में भर्ती नहीं होते। हाल ही में पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्ढा के उत्तराखण्ड प्रवास ने नेतृत्व परिवर्तन की चर्चाओं को नयी हवा दे दी है। अध्यक्ष का एक साल में विभिन्न राज्यों में 120 दिन के प्रवास का कार्यक्रम तय है।
जिसकी शुरुआत के लिये उत्तराखण्ड को ही चुना गया। जिस बंगाल को जीतने के लिये मोदी-ंउचयअमित शाह की जोड़ी ने पूरे घोड़े खोल दिये हैं, उस बंगाल के लिये नड्ढा का केवल दो दिन देना और उत्तराखण्ड जैसे छोटे से और आसान से राज्य को चार दिन देने का मतलब राज्य में सबकुछ ठीकठाक न होने से लगाया जाना स्वाभाविक ही है। उत्तराखण्ड में तो चुनाव 2022 में होना है जबकि पश्चिम बंगाल सहित पांच राज्यों में चुनाव 2021 में ही होने हैं। जाहिर है कि पूरन फत्र्याल, बिशन सिंह चुफाल और सतपाल महाराज जैसे नाराज नेताओं ने नड्ढा से मुलाकात के दौरान त्रिवेन्द्र की सराहना तो नहीं की होगी।
नड्ढा से हरिद्वार प्रवास के दौरान साधू सन्तों ने भी महाकंुभ की तैयारियों को लेकर अपनी अप्रसन्नता प्रकट की है। यही नहीं देवप्रयाग में शराब कारखाना लगाने आदि मामलों में भी साधू सन्तों की नाराजगी छिपी नहीं है। नड्ढा के देहरादून प्रवास के दौरान रही सही कसर उनकी आरएसएस कार्यालय की विजिट ने पूरी कर दी।
इस विजिट में नड्ढा ने त्रिवेन्द्र को साथ चलने की अनुमति नहीं दी ताकि आरएसएस के नेता त्रिवेन्द्र के बारे में खुलकर राय प्रकट कर सकें। माना जाता है कि आरएसएस नेताओं ने शराब व्यवसाय को प्रोत्साहन, विभिन्ना घोटालों से हो रही बदनामी और अपने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा के साथ ही चारधाम देवस्थानम बोर्ड के गठन पर अपनी नाराजगी प्रकट की। उत्तराखण्ड में नेतृत्व परिवर्तन कोई नयी बात नहीं है। यहां नारायण दत्त तिवारी के सिवा कोई भी अन्य मुख्यमंत्री पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। पिछला रिकार्ड बताता है कि भाजपा तो अपने मुख्यमंत्रियों को मात्र दो या तीन महीने पहले भी बदल सकती है। दूसरी निर्वाचित विधानसभा के कार्यकाल में तो रमेश पोखरियाल निशंक को मात्र 184 दिन पहले बदल दिया गया था। उनकी जगह भुवनचन्द्र खण्डूड़ी को 11 सितम्बर 2011 को दुबारा सत्ता मिली तो 30 जनवरी 2012 को चुनाव हो गये। चुनाव से पहले आचार संहिता लग जाने के कारण खण्डूड़ी को काम दिखाने के लिये दो महीनों का भी समय नहीं मिला। इसी प्रकार 30 अक्टूबर 2001 को जब स्वामी की जगह कोश्यारी मुख्यमंत्री बनाया गया तो 14 फरबरी को विधानसभा चुनाव हो गये। इस प्रकार आचार संहिता के कारण कोश्यारी को भी लगभगे तीन महीने ही मिले। त्रिवेन्द्र को बदले जाने की चर्चाएं गत मार्च में काफी जोरों पर शुरू हुयीं थीं लेकिन कोरोना संकट ने उनके विरोधियों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया।
कोरोना संकट गया भी न था कि चीन ने पूर्वी लद्दाख में नये बखेड़ा खड़ा कर दिया जिस कारण देश युद्ध की कगार पर लगभग पहुंच ही गया था। ऐसी परिस्थितियों में किसी राज्य में राजनीति अस्थिरता पैदा करना कोई भी सम-हजयदार नेतृत्व नहीं चाहता। लेकिन अब तो चुनाव सिर पर आ गये और भाजपा आला कमान के लिये त्रिवेन्द्र के खिलाफ माहौल भी गलेगले तक आ गया। राज्यवासियों को उम्मीद है कि नये साल में राज्य का नेतृत्व चाहे जो भी करे मगर सही -सजयंग से सही दिशा में करे।