चारु तिवारी
सागर से शिखर का अग्रदूत
हे ज्योति पुत्र!
तेरा वज्र जहां-जहां गिरा
ढहती गई दीवारें भय की
स्वार्थ की, अह्म की, अकर्मण्यता की
तू विद्युत सा कौंधा
और खींच गया अग्निपथ
अंधकार की छाती पर
तुझे मिटाना चाहा तामसी शक्तियों ने
लेकिन तेरा सूरज टूटा भी तो
करोड़ों सूरजों में।
उनकी हत्या के बाद गढ़वाल में शोक की लहर दौड़ गई। अंजणीसैंण (टिहरी गढ़वाल) में उनके द्वारा स्थापित श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम के आनन्दमणि द्विवेदी ने इस कविता से अपने श्रद्धासुमन अर्पित किये। कौन है यह ज्योति पुत्र! निश्चित रूप से स्वामी मन्मथन। इस नाम से शायद ही कोई गढ़वाली अपरिचित हो। साठ-सत्तर के दशक में गढ़वाल में सामाजिक चेतना के अग्रदूत। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक चेतना का रास्ता खोला। स्वामी मन्मथन ने गढ़वाल में सामाजिक चेतना के कई आंदोलन चलाये। महिलाओं की शिक्षा, बलि प्रथा का विरोध, छुआछूत के खिलाफ चेतना, नशे के खिलाफ लोगों को जाग्रत करने के अलावा सत्तर के दशक में गढ़वाल विश्वविद्यालय आंदोलन में उनकी अग्रणी और ध्वजवाहक की भूमिका रही। आज उनकी पुण्यतिथि है। उन्हें शत-शत नमन।
स्वामी मन्मथन। उनका क्या रिश्ता है गढ़वाल से। कह सकते हैं कि वे ‘सागर से शिखर तक’ की चेतना के अग्रदूत थे। स्वामी मन्मथन का जन्म केरल में 18 जून 1939 को हुआ था। उनके पिता शिक्षक थे। उनका मूल नाम था- उदय मंगलम चन्द्र शेखरन मन्मथन मेनन। छोटी उम्र में ही उनमें समाज में व्याप्त असमानता, छुआछूत, शोषण, अंधविश्वास, अभाव और कुरीतियों को लेकर बैचेनी थी। वे अपनी तरह से इनके कारणों को समझने की कोशिश करते रहे। आखिरकार वे मानवता के कल्याण के लिये निकल पड़े। उन्होंने अपना घर छोड़ दिया। पहले वे बंगाल गये। वहां उन्होंने उच्च शिक्षा और शोध कार्य किया। कई चिंन्तन धाराओं का अध्ययन करने के बाद में रामकृष्ण मिशन में शामिल होने के साथ स्वामी विवेकानन्द की धारा के साथ जुड़ गये। बाद में सत्य और ज्ञान की खोज करते पांडुचेरी पहुंचे। महर्षि अरविन्दो के दर्शन को आत्मसात किया। वे सामाजिक असमानता के खिलाफ लड़ना चाहते थे। वे नागालैंड गये। वहां सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाने लगे, लेकिन उनका विरोध हुआ। वे वहां से हिमालय की यात्रा के लिये हरिद्वार पहुंचे। वहां से वे बिजनौर विदुर कुटी में रहने लगे। यहां उन्होंने मछुआरों, निर्धनों और हरिजनों के बच्चों को एकत्र कर विदुर कुटीर में शिक्षा देने का प्रयास किया। आश्रम व्यवस्थापकों को यह पसंद नहीं आया। उन्हें आश्रम छोड़ना पड़ा। लेकिन यहीं उन्होंने गुरुदीपबख्शी के फार्म में समाज के निर्बल बच्चों के बच्चों को एकत्र कर पढ़ाना शुरू किया। वे इन बच्चों को साबुन से नहलाते-धुलाते और उनके कपड़े भी धोते थे। तब उनकी उम्र मात्र चौबीस वर्ष थी। वहीं नूरपुर और चांदपुर के बीच उन्होंने एक प्राइमरी पाठशाला की स्थापना की। उसी समय भारत-चीन युद्ध के दौरान खद्यान्न संकट आ गया। स्वामी मन्मथन ने जरूररतमंद लोगों तक अन्न पहुंचाने का काम किया।
मन्मथन का हिमालय के आने की शुरुआत वर्ष 1964 में हुई। वे पहले अल्मोड़ा गये। बाद में उन्होंने बिजनौर छोड़ने का निर्णय लिया। वे 1965 में बिजनौर को छोड़कर ऋषिकेश आकर समाजसेवा करने लगे। उसके बाद वे चन्द्रबदनी पहुंचे। चन्द्रबदनी मंदिर का प्राचीन काल से ही बड़ा महत्व रहा है। वहां होने वाली बलि प्रथा ने उन्हें बहुत बैचेन किया। इसके खिलाफ उन्होंने जनचेतना का काम किया। इसके लिये उन्हें बड़ा संघर्ष करना पड़ा। स्वामी ने पशुबलि के लिये लाये जाने वाले पशुओं के सामने बैठकर लोगों से कहा कि पहले मुझे काटो। उनके साथ बड़ी संख्या में महिलाओं ने भी धरना दिया। लंबे संघर्ष के बाद 1969 में गांधी शताब्दी वर्ष में यहां से बलि प्रथा पूरी तरह से समाप्त कर दी गई। इसके बाद कडाकोट पट्टी के क्षेत्रपाल मंदिर में भी बलि प्रथा को समाप्त कराया। बाद में कुंजापुरी लोस्तु में घणियालधार में भी बलि प्रथा का अंत हुआ।
वर्ष 1971 में विश्वविद्यालय के लिये आंदोलन छिड़ गया। उनके कई मित्रों ने उन्हें इस आंदोलन में शामिल होने को कहा। स्वामी मन्मथन इसमें भाग लेने आये और ‘उत्तराखंड विश्वविद्यालय संघर्ष समिति’ का गठन करवाया। इस आंदोलन में वे ध्वजवाहक की भूमिका में आये। लंबे समय तक जेल रहे। इस आंदोलन में उनकी नेतृत्व क्षमता देखने लायक थी। इस आंदोलन में उन्होंने बड़ी संख्या में महिलाओं को आने के लिये प्रेरित किया। आखिरकार श्रीनगर में 1973 में गढ़वाल विश्वविद्यालय स्थापित हुआ। आपातकाल से पहले 1975 में स्वामी कई समाजक कार्यो में संलग्ल रहे। चमोली जनपद के गैरसैंण, सिलकोट और वेणीताल के चाय बगानों में जनता की दशा सुधारने के लिये भी काम करते रहे। आपातकाल में मीसा के अन्तर्गत उन्हें जेल में रखा गया। तब तक स्वामी जी ने गढ़वाल को पूरी तरह से अपना कार्यक्षेत्र बना लिया था।
गढ़वाल विश्वविद्यालय आंदोलन के बाद स्वामी जी की स्वीकार्यता और बढ़ गई। लोग उनमें सामाजिक बदलाव और अपनी प्रगति का रास्ता खोजने लगे। इसी विश्वसनीयता को एक संगठनात्मक रूप देने के लिये स्वामी मन्मथन ने नये तरह के प्रयास शुरू किये। इसके लिये उन्होंने एक आश्रम खोलने की सोची। वर्ष 1977 में अंजणीसैंण में दस एकड़ भूमि मेजर हरिशंकर जोशी ने दी। इसके साथ ही 23 सितंबर 1978 को ‘श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम अंजणीसैंण टिहरी गढ़वाल’के नाम से पंजीकृत संस्था बन गई। पथरीली और कंटीली जमीन को स्वयं और स्वयंसेवकों से खुदवाकर उन्होंने इस आश्रम को सामाजिक, सांस्कृतिक और शिक्षा के नये केन्द्र के रूप में स्थापित कर दिया। इस केन्द्र ने पूरे पर्वतीय क्षेत्र में संवाद का एक नया रास्ता तैयार किया। पहाड़ के तमाम सवालों और मुद्दों पर सेमिनार और संगोष्ठियां होने लगी। महिलाओं के सशक्तीकरण, पर्यावरण, गैरबराबरी और शिक्षा जैसे सवाल ग्रामीण क्षेत्रों तक भी पहुंचने लगे। उन्होंने पर्वतीय महिलाओं की स्थिति को बहुत नजदीक से देखा। उन्होंने आश्रम में बेसहारा महिलाओं और अनाथ बच्चों को संरक्षण देने को प्राथमिकता दी। महिलाओं को स्वावलंबी बनाने के लिये उन्हें जीवकोपार्जन के लिये कई चीजों का प्रशिक्षण दिया गया। अंधविश्वास से बाहर निकालकर उन्हें महिला मंगल दलों और बालबाडि़यों के माध्यम से शिक्षा और नेतृत्व के गुण विकसित करने का काम भी किया। स्थानीय खेती और पशुपालन को बढ़ाने के लिये भी स्वामी जी ने बहुत काम किया। अब श्री भुवनेश्वरी आश्रम एक स्वैच्छिक और गैरराजनीतिक संस्था के रूप में काम कर रही है। अंजणीसैंण के अलावा श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम के उफल्टा (श्रीनगर), खाड्योसैंण (पौड़ी), गुप्तकाशी (रुद्रप्रयाग), गैरसैंण (चमोली), घाट (चमोली) और चन्द्रबदनी (टिहरी गढ़वाल) में उपकेन्द्र हैं।
स्वामी मन्मथन ने गढ़वाल के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में जनचेतना को जो काम किया उनका दायरा बहुत बड़ा है। उनके द्वारा स्थापित आश्रम ने समय-समय पर बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जो कई पीढि़यों तक याद किये जायेंगे। उन्होंने लोगों में अपने अधिकारों को जानने और आत्मसम्मान के साथ खड़े होने की चेतना जगाने का काम किया। जब वे जनता के साथ मिलकर आपसी भाईचारे और सहकारिता के दर्शन को आगे बढ़ा रहे थे तो एक सिरफिरे ने उनकी हत्या कर दी। यह 6 अप्रैल, 1990 को रात्रि 9.00 बजे की बात है। इसके साथ ही दक्षिण से उदय हुये एक चेतनापुंज का उत्तर में अवसान हुआ। उन्हें शत-शत नमन।
( प्रसंग साभारः स्वामी मन्मथन, लेखकः डाॅ. उमा मैठानी)