विनोद पाण्डे
नैनीताल के पुराने बाशिंदे आपको माल रोड पर घूमते हुए मिल जायेंगे, तो उसी तरह जंगलों में घूमते हुए भी। उनकी ये पुरानी आदत है। नैनीताल की हर चोटी पर पहुंचने के लिए बटियायें बनी हैं। आसपास के जंगलों में घूमने की मेरी भी आदत अभी तक बरकरार है। यहाँ पैदल चलने का सबसे आनंददायक अनुभव चीना पीक जाने में होता है।
बरसात में घने जंगलों में इतनी चीजें उग आती हैं कि वहाँ जाने का आकर्षण बढ़ जाता है। इनमें एक बड़ा आकर्षण जंगली मशरूम खोजना और उन्हें तोड़ कर लजीज व्यंजन बनाने के लिये घर लाना होता है। परन्तु बरसात में चीनापीक या ऐसे ही घने जंगलों में घुसने में बहुत सावधान रहना होता है। यह सावधानी है जोंकों से बचने की। ये जोंकें पैरों में चिपक कर उन्हें लहूलुहान कर देती हैं। उनके खून पीने का नफा नुकसान जो भी हो, पर खून देख कर अच्छे भलों को दहशत हो जाती है। पिछले कई सालों से हम देख रहे हैं कि नैनीताल में सर्वत्र जोंके बहुत ही कम हो गयी हैं।
कई बार तो घण्टों जंगल में भटकने के बाद भी एक जोंक नहीं लगती। हम सोचते थे कि ऐसा क्यों हो रहा है ? स्वयंभू पर्यावरणवादी होने के नाते हमने इसका कारण खोजा और फतवा भी दे दिया कि इसका कारण नैनीताल का वाहन प्रदूषण है। वाहन प्रदूषण के आदमी पर होने वाले नुकसानों की तो चर्चा होती है। परन्तु इसके पर्यावरण पर होने वाले दुष्प्रभावों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। हमारी इस ‘परिकल्पना’ को सही साबित करने के लिए हमारे पास नेचुरल हिस्ट्री के आधार पर कई प्रमाण थे। क्योंकि प्राकृतिक इतिहास सीधे-सीधे सच बोलता है, इसलिए भारत में इसे ठंडे बस्ते के हवाले किया जा चुका है। इसकी जगह पारिस्थितिकी और पर्यावरण विज्ञान जैसे जटिल विषयों ने ले ली है।
इस बार जब मैं बरसाती भ्रमण के लिये चीना पीक जा रहा था तो अप्रत्याशित रूप से जोंकें न केवल पाँवों में लगने लगीं बल्कि दिखने भी लगी। उनसे परेशानी अवश्य हो रही थी, मगर इस बात का संतोष भी था कि हमारी यह ‘वैज्ञानिक खोज’ सही सिद्ध हो रही है कि जोंकों के खत्म होने का कारण वाहन प्रदूषण ही है। जोंकों की त्वचा बहुत नाजुक होती है। हमारे यहां यदि जोंक शरीर में लग जाये तो उस पर नमक छिड़क दिया जाता है। उससे उसकी त्वचा फट जाती और वह मर जाती है। नैनीताल में गर्मी और बरसात के शुरू होने तक पर्यटक सीजन रहता है। कारों की रेलमपेल में वायु प्रदूषण अपने चरम पर होता है। ये कारें अब नीचे मालरोड तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि वे ऊपरी इलाकों में जंगलों के बीच से भी गुजरती हैं। इस वाहनजनित वायु प्रदूषण में सल्फर की गैसें हवा में प्रचुरता से तैरती हैं।
पहली बरसात में ही जोंकें अपने अंडों से बाहर निकलना शुरू कर देती हैं। उनके अंडों से बाहर निकलते ही उन पर एसिड वर्षा की फुहारें पड़ती है।। इसलिए जोंकें सक्रिय होने से पहले ही मर जाती हैं। बहुत कम ही किसी तरह अपना जीवन चक्र पूरा करती होंगी। परन्तु इस साल लाॅकडाउन के अन्य वरदानों के साथ जोंकों को भी जीवन मिल गया, क्योंकि उन पर एसिड रेन का हमला होने से रह गया।
कुछ लोग शायद जोंकों के कम होने को राहत की बात मानेंगे और पूछेंगे कि उनके दुबारा बढ़ने में खुश होने की ऐसी क्या बात है ? इसका उत्तर यही है कि प्रकृति को संकीर्ण नजरिये से न देख कर समग्रता में देखा जाये। ऐसा नहीं होना चाहिये कि जो हमारे काम की या स्पष्ट कहें कि उपभोग की चीज हैै, वह तो ठीक और अगर कोई चीज हमें नुकसान पहुँचाती दिखती है, उसे तुरंत नष्ट कर दो। रासेल कार्सन की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘साइलेंट स्प्रिंग’ का सार यह है कि अमेरिका में खेती को बचाने के लिए जब जम कर कीटनाशक छिड़के जाने लगे तो वसन्त आने पर प्रकृति में वीरानगी छा गयी, क्योंकि नुकसानदायक कीटों के साथ ही बाकी जीव भी मारे गये। यहीं से प्रकृति को समग्रता में देखने की धारा प्रबल हुई; पर्यावरणवाद शुरू हुआ और डी.डी.टी. जैसे कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगा।
जानकार लोग जोंकों से भी फायदा उठाते हैं। दुनियां में बीमारियों का उपचार करने की अनेक प्रचलित विधियों में ‘लीच थिरैपी’ या ‘जोंक उपचार’ भी बहुत लोकप्रिय है। वर्ष 2018 में कनाडा में घटी एक रोचक घटना में कनाडा के एक एयरपोर्ट पर एक व्यक्ति की अटैची में 5,000 जोंकं पकड़ी गई। ‘साइटस’ या अंतर्राष्ट्रीय वन्य जीव व्यापार प्रतिबंध के अन्तर्गत यह एक अपराध था। पकड़ी गई जोंकें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संरक्षित श्रेणी में आती थीं। वह आदमी तो पकड़ा गया। अब उन जोंकों का क्या करें ? वे कनाडा के लिए बाहरी प्रजाति थी। उन्हें न तो खुले में छोड़ा जा सकता था और न ही मारा जा सकता था। अन्ततः अमेरीका के एक ‘जोंक चिकित्सक’ ने 1,000 जोंकें ले लीं और बाकी को मुकदमा चलने तक पाला गया।
जोंकों की विशेषता इनके अर्द्धचक्रीय आरे नुमा दांत और लार में खून न जमने वाला एक रसायन होता है। इसके द्वारा काटने पर अर्द्धचक्रीय दांत एक बारीक काट बना देते हैं और उसमें अपनी लार से वह द्रव उलट देते हैं। काटने की प्रक्रिया एकदम दर्दरहित होती है और द्रव, जिसमें ‘हिरूडिन’ नाम का एक रसायन होता है, खून को जमने नहीं देता। खून के न जमने से उसका अविरल रिसाव होता रहता है, जिसे पीने में जोंक को आसानी रहती है।
जोंक जीवन में एक ही बार भरपेट खून पी लेती है। पर उसके द्वारा बनाये गये घाव में मौजूद ‘हिरूडिन’ के कारण कभी-कभी खून कई दिनों तक बहता रहता है। ‘हिरूडिन’ के इस रासायनिक गुण का प्राचीन काल से उपयोग होता आया है। इसे शरीर के खून में डाल देने से खून का थक्का बनने की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है। इसलिए धमनियों के कई प्रकार के रोगों, हृदय रोगों व गैंगरीन में इसका उपयोग लाभकारी है। यही ‘लीच थिरैपी’ का आधार है।
इसके लिए विशेष प्रकार के जोंकों, जिन्हें ‘मेडिसिनल लीच’ कहा जाता है, को उगाया जाता है। धमनियों में रक्त के थक्के जमना कई बार हृदयाघात, मस्तिष्कघात और प्लास्टिक सर्जरी जैसी सूक्ष्म शल्य चिकित्साओं में घातक तक सिद्ध होता है। इसके उपचार के लिए एक कृत्रिम रसायन हिपैरिन का उपयोग होता था। अब हिपैरिन के स्थान पर “हिरूडिन” को उपयोग किया जाता है। कई औषधि कंपनियां प्रयोगशालाओं में जैनेटिक रीकंबिनेशन से हिरूडिन बनाने लगी हैं। पर वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि जोंक की लार, जिसे वह खून पीते समय उलट देती है, में कई ऐसे रसायन हैं जो अनेक रोगों की चिकित्सा में उपयोगी हैं। नैनीताल के जंगलों में पायी जाने वाली जोंक हिरूडिनेरिया गे्रन्यूलोसा को भी मेडिसनल लीच माना जाता है।
जोंकों का पारिस्थितिकीय महत्व भी है। प्रकृति के भोजन चक्र में जहां ये कई प्रकार के जीवों के भोजन हैं, वहीं दूसरी ओर ये कई प्रकार के रीढ़ वाले व बिना रीढ़ वाले प्राणियों पर परजीवी बन कर उनकी जनसंख्या पर नियंत्रण करती हैं। इस तरह ये प्रकृति के पर्यावरण चक्र का अभिन्न भाग हैं। इनके नष्ट होने का यह नतीजा हो सकता है कि कुछ प्राणियों की जनसंख्या अप्रत्याशित रूप से कम हो जाये और किसी की बहुत ज्यादा बढ़ जाये। यह कहना अप्रासंगिक नहीं है कि कोरोना के बारे में भी वैज्ञानिकों की धारणा यही बन रही है कि यह प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का परिणाम है।
जोंकों की इस साल की बढ़ोतरी के पीछे वातावरण में वाहनजन्य प्रदूषण की कमी को मानने के पीछे कई वैज्ञानिक आधार भी हैं। नैनीताल को संरक्षित करने के नाम पर हजारों करोड़ रुपया खर्च किया जा चुका है, मगर उसमें प्रकृति के संतुलन को लेकर शायद ही कभी कुछ सोचा गया हो। वाहनजनित वायु प्रदूषण पर विमर्श तो बहुत दूर की बात है। मगर गौर से देखा जाये तो नैनीताल की हवा में सल्फर प्रदूषण बुरी तरह मौजूद है और अच्छी खासी ऐसिड वर्षा से बांज के जंगलों में पाये जाने वाला झूला या लाईकेन विलुप्त हो गया है। वाहनों पर कड़ाई से नियंत्रण करने से ही लाइकेन भी बच सकता है और जोंकें भी। पर्यटन के पैरोकार नैनीताल में अधिक पार्किंग बनाने की बात तो करते हैं, मगर बर्बाद होती प्रकृति पर उनका ध्यान नहीं है। बेशक पर्यटन के विकास के लिए सब कुछ होना चाहिये पर ऐसा कुछ नहीं होना चाहिये जो प्राकृतिक सौन्दर्य के धनी इस छोटे से नगर के दीर्घकालीन हितों को ही बर्बाद कर दे। नैनीताल का आकर्षण व जरूरतें तालाब से सीधे जुड़े हैं और तालाब का दीर्घकालीन अस्तित्व नजदीकी जंगल की सघनता व स्वास्थ्य से जुड़ा है।
इसलिए हमें गौर से सुनना चाहिये कि जोंकें क्या कह रही हैं।