जगमोहन रौतेला
उच्च न्यायालय द्वारा गत 29 अगस्त 2019 को अपने एक निर्णय में उत्तराखण्ड की भाजपा सरकार को निर्देश दिया है कि वह राज्य में मद्यनिषेध को लागू करने के लिए चरणबद्ध तरीके से कदम उठाए और इस मामले में की गई कार्यवाही से उच्च न्यायालय को छह महीने बाद अवगत कराए। गरुड़ (बागेश्वर) निवासी अधिवक्ता डी.के. जोशी द्वारा इस सम्बंध में दायर की गई जनहित याचिका पर मुख्य न्यायाधीश रमेश रंगनाथन व न्यायाधीश आलोक कुमार वर्मा की खण्डपीठ ने याचिका का निस्तारण करते हुए प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि वह उत्तर प्रदेश आबकारी अधिनियम – 1910 के संशोधित अधिनियम – 1978 की धारा – 37(ए) के अनुपालन में प्रदेश में मद्यनिषेध को चरणबद्ध तरीके से लागू करे। न्यायालय ने प्रदेश सरकार को राज्य की सभी शराब की दुकानों एवं बार रेस्टोरेंट में आईपी एड्रेस युक्त सीसीटीवी लगाने और 21 वर्ष से कम उम्र के व्यक्तियों को शराब के सेवन और खरीददारी पर प्रतिबंध वाले प्रावधान को कड़ाई से लागू करने के भी आदेश दिए हैं।
उल्लेखनीय है कि गरुड़ निवासी अधिवक्ता डीके जोशी ने एक जनहित याचिका गत अगस्त 2017 में उच्च न्यायालय में दाखिल की थी। जिसमें सरकार द्वारा शराब को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति पर रोक लगाने की मांग के साथ ही राज्य में पूर्ण रुप से मद्यनिषेध लागू करने की मांग की गई थी। याचिका में यह भी कहा गया था कि एक ओर सरकार शराब से राजस्व प्राप्त करने की बात कहती है, वहीं दूसरी ओर शराब के कारण हो रही दुर्घटनाओं पर प्रभावित लोगों को सही तरीके से मुआवजा भी नहीं दे पा रही है। इस पर प्रदेश सरकार ने न्यायालय में गोल-मोल जवाब देते हुए कहा कि मुआवजा देने के लिए उसने 2 प्रतिशत सेस लगाया है। सरकार के इस जवाब पर न्यायालय ने गत 18 जुलाई 2018 को प्रदेश के आबकारी सचिव को आदेश दिया कि 30 जुलाई 2018 को याचिकाकर्ता के साथ बैठक कर उनके सुझाव पर चर्चा करेंगे।
न्यायालय के आदेश पर याचिकाकर्ता अधिवक्ता डीके जोशी की तत्कालीन आबकारी सचिव रणवीर सिंह के साथ बैठक हुई। बैठक बेनतीजा रही। इसके बाद अगस्त 2018 में याचिकाकर्ता द्वारा याचिका में संशोधन के लिए न्यायालय से अनुरोध किया गया। जिसे उच्च न्यायालय ने अगस्त 2018 में ही अपनी मंजूरी दे दी। इस संशोधन में आबकारी अधिनियम की धारा- 37-ए के प्रावधानों को उत्तराखण्ड में भी लागू करने की मांग की गई थी जिसमें स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि शराबबंदी को सरकार धीरे-धीरे पूरे प्रदेश में लागू करेगी। याचिका में सरकार को यह भी बताने के लिए आदेशित करने का अनुरोध किया गया था कि शराब के कारण होने वाली दुर्घटनाओं को रोकने के लिए सरकार क्या कर रही है ? और दुर्घटनाओं की क्षतिपूर्ति वह किस तरह से कर रही है।
उत्तर प्रदेश आबकारी अधिनियम-1910 में संशोधन कर के 1978 में धारा- 37-ए जोड़ी गई थी। जिसमें राज्य में मद्यनिषेध को बढ़ावा देने की बात कही गई थी। याचिकाकर्ता का कहना था कि प्रदेश सरकार द्वारा मद्यनिषेध की ओर बढ़ने की बजाय राजस्व प्राप्ति के लिए लगातार शराब की बिक्री को प्रोत्साहित किया जा रहा है। सरकार द्वारा ऐसा किया जाना संविधान के प्रावधान के खिलाफ भी है। जिसके अनुच्छेद-47 में एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा घोषित की गई है। उक्त जनहित याचिका में 3 मई 2019 के आदेश के क्रम में राज्य सरकार द्वारा दाखिल प्रति शपथ पत्र दाखिल किया गया। जिसमें 2019-20 के लिए बनाई गई आबकारी नियमावली (जिसे 7 फरवरी 2019 को जारी किया गया था) में आबकारी प्रावधानों के विपरीत प्रस्तर 28.4 (ए) जिसमें सम्बंधित जिलाधिकारियों को यह सुनिश्चित करने को कहा गया था कि पुरानी दुकानों को बंद करने का निर्णय लेने से पहले यह सुनिश्चित करना अनिवार्य है कि ऐसी स्थिति में न तो सम्बंधित जिलों को आवंटित राजस्व कम होगा और न ही कोई क्षेत्र दुकान रहित होगा। इसी तरह प्रस्तर- 28.4(बी) में भी किसी मदिरा की दुकान के स्थानान्तरण के निर्णय से पहले सम्बंधित जिलाधिकारियों को सुनिश्चित करना होगा कि अन्य निकटवर्ती मदिरा की दुकान के राजस्व पर कोई असर न पड़े और कोई क्षेत्र बिना मदिरा की दुकान रहित न हो।
राज्य सरकार के उपरोक्त निर्णय पर उच्च न्यायालय ने कड़ी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि आबकारी अधिनियम की धारा-37-ए के तहत राज्य सरकार मद्यनिषेध लागू करने के लिए बाध्य है, न कि यह विषय राज्य सरकार के विवेक पर निर्भर है। उल्लेखनीय है कि राज्य सरकार द्वारा वर्तमान में आबकारी नीति के तहत प्रस्तर -32 में मदिरा के उपभोग के लिए न्यूनतम 21 वर्ष की आयु निर्धारित की गई है। प्रस्तर-33 के अन्तर्गत प्रत्येक आसवानी, बॉटलिंग प्लान्ट, मदिरा की दुकान, बार इत्यादि में आईपी एड्रेस युक्त सीसीटीवी लगाया जाना अनिवार्य है। जिससे सम्बंधित अनुज्ञापी की समस्त गतिविधियों पर आयुक्त कार्यालय स्थित कंट्रोल रूम से नियंत्रण रखा जा सके। याचिकाकर्ता की ओर से इन प्रावधानों का कड़ाई से पालन नहीं होने की बात कहते हुए इनका सख्ती से अनुपालन करवाए जाने का अनुरोध न्यायालय से किया गया था।
न्यायालय द्वारा उत्तराखण्ड में मद्यनिषेध को लागू करने के लिए नीति बनाने के बारे में प्रदेश सरकार को छह महीने का समय दिया गया है। याचिका कर्ता अधिवक्ता डीके जोशी कहते हैं कि न्यायालय के इस आदेश के बाद प्रदेश में शराब कारोबार की उल्टी गिनती शुरु हो गई है। प्रदेश सरकार ने अगर मद्यनिषेध की नियमावली बनाने में ढिलाई बरती और न्यायालय द्वारा छह महीने की तय समय सीमा के अन्तर्गत ऐसा नहीं किया तो वे प्रदेश सरकार के खिलाफ न्यायालय की अवमानना की याचिका उच्च न्यायालय में दाखिल करेंगे। अगर प्रदेश सरकार उच्च न्यायालय के निर्णय के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय जाती है तो वे वहाँ भी प्रदेश सरकार के खिलाफ कानूनी लड़ाई लडेंगे, लेकिन हर हाल में उत्तराखण्ड को शराब मुक्त बना कर ही दम लेंगे। अधिवक्ता जोशी सरकार के उस कथित तर्क को नहीं मानते , जिसमें वह कहती है कि शराब बंदी से प्रदेश को राजस्व का घाटा होगा। इसके लिए वह कहते हैं कि प्रदेश सरकार को ‘ग्रीन बोनस’ लेने की लड़ाई केन्द्र सरकार से लड़नी चाहिए। एक सुरक्षित हिमालय की आवश्यकता उत्तराखण्ड को ही नहीं, बल्कि पूरे देश को है। हिमालय पूरे देश के शुद्ध आक्सीजन, पानी और ढेर सारा खनिज, लवण भी अपनी नदियों के माध्यम से देता है। इसके बदले में उत्तराखण्ड को अगर 25 हजार करोड़ का ‘ग्रीन बोनस’ मिल जाय तो शराब से मिलने वाले 3,000 करोड़ का राजस्व इसके सामने कुछ भी नहीं है।