बी.डी. सुयाल
जंगली जानवरों का जिक्र आते ही बाघ यानि टाइगर का खयाल स्वभाविक तौर पर दिमाग़ में आ जाता है। हालांकि उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में तेंदुए / गुलदार का राज रहता है। बीते वर्षों में प्रकृति और वन्य जीव संरक्षण के प्रति लोगों में बढती जागरूकता की वजह से तेंदुओं की आवादी में भी बाघों की तरह काफी इजा़फा हुआ है। हाल के दिनों में गुलदार – मानव संघर्ष की घटनाएं काफी बढ़ी हैं। तेंदुआ और बाघ एक ही परिवार की प्रजातियाँ होने के बावजूद भी, बाघ अधिकांश पर्यटन अपनी ओर खींच लेता है। प्रदेश में तेंदुआ / गुलदार आधारित वन्य जीव पर्यटन लगभग शून्य के बराबर है। जबकि इसकी अपार संभावनाएं मौजूद हैं। प्रदेश का वन्यजीव पर्यटन मुख्य रूप में कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान के बाघों के ईर्दगिर्द घूमता है। जिसके परिणामस्वरूप एक सीमित इलाके में अत्यधिक जैविक दबाव झेलना पड़ता है। कई पर्यटक निराश होकर वापस लौटने को मजबूर हो जाते हैं। बाघ का दिख जाना इतना आकर्षक और रोमांचकारी महसूस होता है कि अन्य वन्यजीवों के तरफ किसी का ध्यान ही नहीं जाता। जाने अनजाने मे ही सही, समग्र वन्यजीव पर्यटन के प्रति सैलानियों की रुचि पैदा करने में हम असफल रहे हैं। कार्बेट में पर्यटकों की अप्रत्याशित भीड़ को कहाँ और कैसे समायोजित किया जाय इसका कोई भी संतोषजनक रोडमैप या योजना मौजूद नहीं है।
वैकल्पिक स्थलों को वन्यजीव पर्यटन के लिहाज से विकसित नहीं किया जा सका है। जबकि प्रदेश में वन्यजीवों की भरमार है और उनमें से कई दुर्लभ श्रेणी में आते हैं। पक्षी पर्यटन अनौपचारिक रूप से प्रदेश के कई जगहों पर फल फूल रहा है जैसे, पंगोट, सातताल, रानीबाग, चांफी, चोप्टा, मंडल ,तुंगनाथ इत्यादि हालांकि दिशानिर्देशों या मानक संचालन प्रणाली ( SOP) की कमी का आभास हर जगह होता है। देश में मौजूद लगभग 1300 पक्षी प्रजातियों में से 700 प्रजातियां प्रदेश में पाई जाती हैं। पक्षी बाहुल्य स्थलों को चिन्हित कर पक्षी अवलोकन हेतु आधारभूत सुविधाओं का विकास कर पर्यटकों के लिए आकर्षक बनाया जा सकता है। पक्षी आधारित वन्यजीव पर्यटन सुदूर दुर्गम क्षेत्रों तक पहुंचाया जा सकता है। यह वहाँ रहने वाले लोगों के लिए एक अतिरिक्त आमदनी का जरिया हो सकता है। इसके अलावा ग्रामीण नौजवान जो रोजगार की कमी व अन्य सामाजिक कारणों से नशे की गिरफ्त में आ रहें हैं या पलायन कर रहे हैं, उनमें से कुछ इच्छुक नौजवान वन्यजीव पर्यटन के मार्फत प्रकृति के साथ जुड़ने तथा स्वरोजगार का अवसर पा सकते हैं। वन्यजीव पर्यटन को संजीदगी से विकसित करने और दूरदराज क्षेत्रों तक पहुचाने का जिम्मा जहाँ संभावना हो, प्रदेश में पहले से मौजूद वन पंचायतों को सौंपा जा सकता है। वन पंचायतों का नियंत्रण वन विभाग के हाथों में सौंपने से उनकी स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने के अधिकार को ठेस पहुची है। वन्यजीव पर्यटन एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ वन पंचायतों को स्वयं निर्णय लेने के लिए अधिकृत किया जा सकता है। जिससे उनकी आमदनी बढे़गी,ग्रामीणों को रोजगार मिलेगा और पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ेगी ।
गुलदार का उसके प्राकृतिक वास में अवलोकन बहुत आकर्षक और रोमांचक होने के अलावा कई युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराने में सक्षम है। उदाहरण के तौर पर अल्मोड़ा जिले के कोसी से लगभग 7 किमी कौसानी रोड पर पातलीबगड़ गाँव में कोसी नदी के दूसरे छोर पर पिछले 7-8 वर्षों से एक गुलदार ने अपना आशियाना बनाया हुआ है। गुलदार की एक झलक के लिए दूर दूर से पर्यटक और फोटोग्राफर इस स्थल का भ्रमण कर रहे हैं। पर्यटकों की आवाजाही को ध्यान में रखते हुए वहाँ पर एक गुलदार वैली नाम से एक रिजार्ट भी उभर आया है और अच्छा कारोबार कर रहा है। गुलदार आजकल दो शावकों के साथ है। रोजाना जब गुफा से शिकार के लिए बाहर खुले में निकलता है पर्यटकों को उसके दर्शन हो जाते हैं। लोगों का कहना है कि गुलदार ने पिछले 7-8 वर्षों में कभी किसी इन्सान को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया है हालांकि भेड़ बकरी व कुत्तों का शिकार अवश्य किया है। स्थानीय लोग भी गुलदार के लिए कोई परेशानी पैदा नहीं करते हालांकि सतर्क जरूर रहते हैं।जाहिर है जबतक दोनों अपनी अपनी परिधि में रहते हैं संघर्ष या टकराव की कोई गुंजाइश नहीं रहती। मानव -वन्यजीव सहवास का यह एक अनुकरणीय उदाहरण है। गुलदार एक शक्तिशाली व खतरनाक जंगली जानवर है, जरा सी अशांति या हस्तक्षेप उसके व्यवहार में तब्दीली ला सकता है इसलिए वन विभाग को स्थानीय लोगों के साथ लगातार संपर्क बना कर उन्हें भयमुक्त रखना होगा। घरेलू जानवरों के नुकसान का मुआवजा तुरंत अदा कर और लोगों में जागरूकता पैदा कर इस सहवास के माडल को प्रदेश भर में आकर्षण का केंद्र बनाया जा सकता है। अगस्त माह में इसी गुलदार की मेरे द्वारा खींचीं कुछ तस्वीरें साझा कर रहा हूँ।
फोटो इंटरनेट से साभार