विनोद पंत
आज भले ही हमारे खेत बंजर हो रहे हैं | हम गुणी बानरों की बात कहकर खेती छोड रहे हों पर एक समय वो भी था जब खेती के लिए लोग नौकरी छोडकर घर आ जाते थे | मैने कई लोग देखे हैं कि तीन भाई हों तीनो की सरकारी नौकरी बाहर लग गयी तो एक भाई घर खेती के लिए नौकरी छोड देता | खेती हमारी रीढ होती थी | इस बात के लिए चाहे लोग मजाक करें कि चाहे पिताजी कोई भी नौकरी में हो विद्यालय के फार्म में उनकी व्यवसाय कृषि ही लिखा करते हैं पहाड के बच्चे | ये मजाक नही है जनाब , ये खेती की महत्ता थी कि उसके आगे सब व्यवसाय फीके थे | आधार तो कृषि ही था |
खेती और खेती से जुडे काम हमारी दिनचर्या से इस कदर जुडे थे कि हम उसके लिए खाना पीना तक छोड देते थे | बच्चे बूढे , जवान , महिला, पुरुष सभी अपने अपने हिसाब से अपनी भूमिका तय कर लिया करते थे | मुख्य कर्ता धर्ता महिला ही होती थी , उसी के जिम्मे खेती का काम था | पहाड में दो प्रकार के खेत होते हैं , तलाऊ और उपरांऊ ( उपांण ) | तलाऊ यानि जहां पानी उपलब्ध हो या न होने पर भी बरसात का पानी गूल द्वारा पहुंचाया जा सके | उपरांऊ यानि जहां पानी नही हो असिंचित खेत |
तलाऊ खेतों का बडा महत्व होता था | धान की फसल के लिए ये उपयुक्त थे | इन्ही खेतों पर रोपाई लगाई जा सकती थी . रोपाई पहाड में काफी मेहनत का काम होता है | इसके लिए किसान को पर्यावरण से लेकर मौसम के पूर्वानुमान की जानकारी होना अति आवश्यक होता था , हालाकि लगभग हर पहाडी वयस्क और बुजुर्ग इसे अपने अनुभव और विरासत में मिले ग्यान से हासिल कर लेता था और निपुण भी होता था | कब तक बारिस होगी ? कितनी बारिस के आसार हैं , कही तेज बारिस से खेत की मिट्टी बहेगी तो नही , इन सभी पूर्वानुमानो से ही रोपाई का कार्य सम्पन्न किया जाता था |
पहाड में भी अन्य जगहो की तरह सीधे जमीन में धान बो देना और रोपाई तो होती ही थी तीसरा तरीका भी होता था जिसे साई धरना या सै धरना बोलते थे | रोपाई में बोये जाने वाली धान की किस्मे – थापचीनी , कौपार् , लाल काली और सफेद जमाई और खजिया प्रमुख हैं | बिना रोपाई सीधे बोये जानी वालों में – चायनाचार , मुठमण , छोट्टिया , नानधानि , कत्यूरी , झडू , जिरुलि , बमकू , बिन्दुलि ( खुशबूदार होता है ) हैं . साई में वही धान बो सकते हैं जिनकी रोपाई लगती है उपरोक्त धान के नाम पहाडी में जो बोलते हैं वही लिखे हैं , इनके हिन्दी नाम कुछ और हो सकते हैं |
थापचीनी मोटा चावल है पर होता स्वादिष्ट और बढिया है , लेकिन मान्यता है कि इसे देव और पितृ कार्यों में प्रयोग नही करते | जमाई धान के खाज् , सिरौले और च्यूडे अच्छे बनते हैं | काली जमाई खीर के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है , इसकी खीर लसपसी और स्वाद बनती है | देव कार्यों जैसे सीक चढाना ( नये चावल भगवान को अर्पित करना ) में प्रयोग चावलो को ताजा कूटकर ले जाने की परम्परा है | यदि समयाभाव के कारण पहले दिन कूट कर रख भी लिए तो अगले दिन ओखली में ले जाकर दो चार मूसल चलाकर उसे रखा जाता है इसे चावल साजि करना यानि ताजा करना कहते हैं | इन चावलो को कूटते समय ये ध्यान रखना होता है कि चावलो को ओखली में बटोरते समय पैर न लगे |
पहाड में बैसाख के महिने में रोपाई के लिए चावल की पौध तैयार करने के लिए धान की नर्सरी तैयार की जाती है जिसे बिन धरना कहते हैं और धान की नर्सरी को बिन् | बिन धरने की शुरुआत से ही मेहनत शुरू हो जाती है | बिन ऐसी जगह पर रखे जाते थे जहां पानी सुलभ हो . चूकि बैसाख में बारिस नही होती इलसिए गाड गधेरे जहां बारोंमास पानी हो वहां एक ताल बना ली जाती है | ताल से गूल द्वारा पानी बिन तक पहुंचाते थे . बिन के खेत की जुताई कर पानी डाला जाता है और खूब गोबर की खाद डाली जाती है | बिन को लगभग कीचड सा बना दिया जाता है और उसमें धान की बीज छिडक दिया जाता है वो भी खूब घना घना | बिन को लगभग तीन चार दिन के अन्तराल में पानी से खूब तर करते रहना पडता है | बिन में बोने के लिए धान के बीज को एक बडी तौली में भिगोकर कुछ दिन के लिए रखा जाता है जब अंकुरित हो जाय तब वो बिन में बोने के लिए तैयार माना जाता है | लेकिन बिन के लिए धान को अंकुरित करने का एक पुराना तरीका भी हुवा करता था |
एक बडा सा डोका लिया जाता था , इसका आकार तीस चालीस नाली तक भी होता था | डोके में बीज का धान भरकर एक टोकरी से बन्द कर दिया जाता था | बीच रखने के इस डोके को बिनार या ब्यूनार डोका कहते थे , इसके अलावा गोबर की खाद ढोने वाले डोके को पोरसौल्ली डोका और इन्ही की तरह के एक बडे डोके जिसमें पात पतेल सुतर लाते थे या तैयार फसल की बालियां जमा करते थे, को ब्यान कहते थे | बिंयार डोके में बीज भरकर गांव के नजदीक एक सामुहिक तालाब में ये डोके डाल दिये जाते थे | तालाब में न पानी कम हो ना ज्यादा , डोका एक विशेष स्थिति में गीला होता रहे | इस तालाब को ब्यूखाव या बींखाव कहा जाता था | इस बींखाव की विशेष देखभाल की जाती थी | पानी कम हो तो इस तक पानी पहुचाना ज्यादा हो तो पानी तोड देना और यदि कभी तेज बारिस के आसार बने तो बीज के डोके बाहर सुरक्षित रख देना ताकि बीज के डोके अतिवृष्टि से बह न जाये | इसी बींखाव में पहाड लोगो की सामुदायिकता और परस्पर भाईचारे की मिसाल भी देखने को मिलती थी |
इस बीज के तालाब का रखरखाव गांव का कोई भी आदमी जाकर कर देता था , किसी का डोका ठीक स्थिति में करना हो या तालाब का पानी कम ज्यादा करना हो या बरसात की आशंका पर बीज सुरक्षित रखना हो | ये नही कि अपना डोका ठीक किया और बाकियो का सडे मेरी बला से या मेरा बच जाय किसी का बहे तो बहे | कभी किसी के डोके का बीच चोरी हो जाय .. ये तो सोचना भी नही हुवा , पहाड हुवा साहब , यूं ही यहां की ईमानदारी के बारे में थोडे की लोग बोलते हैं |
कुछ दिन बाद इन तालाब यानि खाल में रखे बीजो के नथुर फूट जाते थे ( अंकुरित हो जाते थे ) तो डोके के छेदों से अंकुर बाहर निकलने लग जाते तो ये बीज बिन में बोये जाने को तैयार हो जाते थे | बिन के लिए ये बीज भिगाकर अंकुरित करने की समयावधि धान के प्रकार और प्रजाति पर निर्भर होती थी | जैसे – बैसाख में जमाई , जेठ में थापचीनी , कौपार आदि के बिन रख लिए जाते थे | कुछ विकास के धान के बीज पन्द्रह दिन में ही रोपाई को तैयार हो जाते थे लिहाजा ये रोपाई से पन्द्रह दिन पहले बिन में बोये जाते थे | बिन के समय चूकि कुछ जगहों पर गांवो में पानी की समस्या रहती थी इसलिए पानी के स्तोत या गाड गधेरे के खाल से आई गूल को तोडकर पानी अपने बिन में डालना और पानी के लिए आपसी खींचतान या कई बार गावागाव मैकामैक भी हो जाया करती थी | कई जगह पानी के लिए बारी भी लगती , रात की बारी में कोई पानी तोड न दे इसलिए रात को पहरेदारी भी की जाती थी | बिन में पौंध तैयार होने पर रोपाई की तैयारी की जाती थी | ये काम आषाड के महिने में मुख्यत: शुरू हो जाता था | तब तक बरसात भी होने लग जाती थी तो रोपाई के लिए पानी सुलभ हो जाता था | गाड गधेरों या स्त्रोतो का पानी भी बढ जाता था | जैसे ही गांव के किसी भी खेत में पहली रोपाई लग जाय उस दिन को पांग पडना कहते थे | इस दिन से मन्दिरों में पूजा पाठ वर्जित हो जाती थी | इसका कारण ये भी हो सकता है कि सब रोपाई में व्यस्त हो जाते थे तो मन्दिर जाने का टैम किसको ?
रोपाई का काम पहाड में बिलकुल पहाड जैसा होता है | इसके लिए आपको हर विभाग के लिए कुशल आदमी या महिलाऐ चाहिये होती हैं | रोपाई की तुलना आप किसी मकान में डल रहे लिंटर से कर सकते हैं | हर काम समय पर और परफैक्ट होना चाहिये | चूंकि रोपाई का सीजन हुवा तो गांव में किसी न किसी के खेत में रोपाई चलती रहती है इसलिए आदमियो का इन्तजाम एक मशक्कत ही हुई | हल जोतने वाला , खेत के ओने कोने खोदने वाला खेत की गीली मिट्टी को बराबर या समतल करने वाला जिसे बौस्सी कहते हैं , रोपाई में बीज रोपने वाले जिन्हें पुत्यार कहते हैं और बिन से बीज उखाडने वाले जिन्हे बिनार कहते हैं प्रमुख होते हैं |
इसके अलावा पानी की गूल सही करना , बिन से खेत तक पौंध पहुचाने वाले , घर से चाय पानी लेकर आने वाले लोग भी चाहिये होते हैं | पुत्यारों की जरूरत ज्यादा होती है , ये खेत के आकार पर निर्भर होता है | जिसके खेत में रोपाई हो उसका पूरा परिवार ही कुछ न कुछ करता ही रहता है | पहले से अगझाव करके गोबर की खाद डालकर तैयार खेत में पानी की गूल छोडी जाती है | फिर उसमें हल चलाने वाला जिसे हलिया कहते हैं खेत की जुताई शुरु कर देता है , इसी के साथ काम शुरू हो जाता है बौस्सी का जो कि खेत के कोने जहां हल की फाल ( नस्यूड ) न पहुंचे वहां बडे कुदालनुमा यन्त्र जिसे बौस कहते है से खोदता है | बौस चलाने के कारण ही उसे बौस्सी कहते हैं | बौस्सी की महत्ता का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि बौस्सी को खाने में अन्य सब के अतिरिक्त दो रोटी ज्यादा देते हैं जिसे बौस्सी बान् कहा जाता है | हालाकि भोजन तो सबको पेटभर ही मिलेगा पर यह सम्मानस्वरूप या उसकी मेहनत की कद्र करने का एक तरीका मान सकते हैं | बौस्सी हल चलने के साथ बौस से पानी सब जगह पहुचाने के लिए खेत के बीच ही छोटी गूल से बनाता है , ताकि पानी बराबर पहुंचे , लिंटर की ढाल सही करते कागीगर की तरह खेत का ढलान समतल करता है , कही अगर पुरानी फसल की जडे मिल जाय उन्हे किनारे करता है | खेत की मेढ तैयार करता है .
खेत बडा हो तो बराबर भाग बनाता है मेढ बनाकर ताकि खेत समतल रहे और बाद में सिचाई में परेशानी न हो | इसी बीच दूसरी तरफ बिन में पौंध उखाडकर उनके छोटे गठ्ठर जिन्हें आंठ कहते है बनाने की प्रकिया चल रही होती हैं . ये काम बिंयार करती हैं | फिर उन पौंध के आंठे को ढोकर खेत तक पहुचाने वाले डलिया , डोके या सुयांठ से खेत तक पहुंचाते हैं | यहां पर भी पूरा सिस्टम होता है | सुयांठ यानि लकडी के एक आदमकद से लम्बे मजबूत डन्डे में रस्सी यानि ज्यौड की मदद से विशेष दक्षता के साथ पौधे माला सी पिरोकर पौधे सारे जाते हैं | एक सुयांठ में लगभग साठ आँठ् पौधे आते हैं जो कि एक नाली खेत के लिए पर्याप्त माने जाते हैं | अगर बीज कम या ज्यादा पड जाय तो बिनार खेत तक खबर पहुंचाती है ताकि पुत्यार लोग बीज (पौंध ) को एडजस्ट कर सकें | अगर कम हो तो फिर डेढ सुयांठ में तीन नाली लगाते हैं |
हलिया पहले हल से जोतकर फिर एक लकडी के यन्त्र जिसे मय या मौय कहते हैं खेत समतल करता है | रोपाई का मौय अलग तरह का होता है | ये बैलो के कन्धे पर रखे जू तक एक रस्सी जिसे मैलड कहते हैं की मदद से बांधा जाता है | खेत की गुडाई यानि दन्याव वाला मौय डन्डे नुमा चीज से जुडा होता है | बौस्सी एक लकडी पर फट्टा जैसे लगी चीज से खेत की गीली मिट्टी को बराबर करता है जिसे तुल्यूण कहते हैं .
उधर तैयार खेत पर पुत्यारी बीज रोपने लग जाती हैं | पानी का ध्यान रखा जाता है कि खेत ज्यादा गीला पतला न हो , तेज बारिस के आसार हों तो और बारिस के पानी से खेत की मिट्टी बहने का अंदेसा हो तो खेत कम गीला करते हैं |खेत की तैयार मिट्टी बहने का मतलब हुवा सारे पोषक तत्व और खाद का बह जाना जो कि रोपाई के लिए बिलकुल सही नही | इसलिए मौसम के पूर्वानुमान की जानकारी होनी जरूरी है | मौसम विभाग तब इतनी डिटेल नही दे पाता था गांवो तक इसलिए गांव वालो का अनुभव की काम आता था |
रोपाई शुरु होने यानि पुत्यारियो के पौध रोपने जिसे पुत डालना कहते हैं पर एक अनोखी परम्परा कुमाऊं में देखने को मिलती है . जिसे हुडकिया बौल कहते हैं | ये पहाड की काम के साथ मनोरंजन की अनूठी चीज है | चूंकि ये संगीतमय चीज है इसलिए और भी आकर्षक होती है| गीले कीचडयुक्त खेत में आगे आगे उल्टा एक या दो आदमी हुडका बजाकर लोकगीतों का गायन करते हैं दूसरी तरफ पुत्यारिने गीत की लाइन भी दोहराऐगी और पूते भी डालती जाऐगी | ये गीत संगीत ऐसा असर करता है कि झुकी कमर से दिन भर पूते डालने पर भी पुत्यारिने अपनी थकान भूल जाती हैं | कुछ लोग तो ये हुडकिया बौल सुनने को ही खेतो तक चले आते थे | लाइन से बराबर दूरी पर पूते डालना पुत्यारिनो का एक कमाल ही है |
धान बोने का एक तरीका इस रोपाई से मिलता जुलता है जिसे सै या साई धरना कहते हैं तरीका रोपाई जैसा है खेत ऐसे ही तैयार होता है बस बीज अंकुरित होने पर डारयैक्ट रोपाई जैसे तैयार खेत में छिडक दिया जाता है , बिन में पौध तैयार नही करते | रोपाई वाले दिन खेत स्वामी दिन में चाय के साथ सै ( साई ) एक पहाडी पकवान जो चावल के आटे दही और चीनी से बनता है खिलाता है सबको | रोपाई एक शुभ काम जैसा है इसलिए रात को घर पर हलवा बनाते हैं जिसे तै लगाना कहते हैं | रोपाई वाले खेत की मेढ जो कच्ची होती है में कुछ दिन बाद उडद यानि मांस बोये जाते हैं | यहां एक मजेदार प्राकृतिक चीज होती है , जैसे ही आपने मेढ के किनारे किनारे मांस बोये एक चीज उसके आसपास उग आती है ये मधुमक्खी के छत्ते की एक छोटी टोकरी जैसी होती है जिसके अन्दर बीज से दिखते हैं जिसे स्थानीय भाषा में कहते हैं बुढिया ने मांस भिगाने डाल दिये . ये तभी उगते हैं जब आपने उडद बोने को जमीन में दबा दिये हो |
सावन के बाद घ्यूत्यार के आसपास जब खूब बरसात हो जाती है तब खेत की मेढ तोडकर पानी बहा दिया जाता है अगर ऐसा न किया तो धान बुसी ( खराब ) जाते हैं | रोपाई के बाद उखर उपांण का ध्यान रखना जरूरी हुवा | पहाड में एक कहावत है कि घ्यूत्यार पर _ कुल टुटिबेर गाड और चेलि टुटिबेर मैत . यानि घ्यूत्यार पर कुल यानि गूल टूटकर गधेरे चली जाती है और लडकी अपने मायके चली जाती है | रोपाई एक खेती का तरीका ही नही है ये तो पहाड के लिए सामुदायिकता की एक मिसाल भी है | क्योकि ये बिना और लोगो के सहयोग के असंभव है | पहाड की पहिलाओ की सबसे बडी परीक्षा भी रोपाई का सीजन ही होता है | लगातार पानी के सम्पर्क में रहने पर हाथ पैरो में कांधूं हो जाती है और ग्वाईछीन पड जाती है | दोनो रोग एक प्रकार के हाथ पैरो को गला सा देते हैं | पर इसके लिए शायद ही कोई महिला अस्पताल गयी हो -कांधू पर पध्योड नामक एक पौधे के पत्तों का रस और ग्वाईछीन में पन्यांण से जूठे भात के सीते लगाकर ही सफल इलाज कर लिया जाता था |
रोपाई लगने के दिन पांग पडने के बाद सावन के महिने में पूरनमांसी के बाद नागपंचमी को मन्दिर में पाठ पंचामृत के बाद पांग छोडा जाता है| इस दिन के बाद कोई रोपाई नही लगाता. चाहे वो रोपाई लगा पाया हो या नही . वैसे ऐसा होता नही है | [ये परम्परा मैं अपने क्षेत्र काण्डा कमस्यार की बता रहा हूं और जगह भी ऐसी ही या भिन्न हो सकती है.
रोपाई से जुडी एक परम्परा ये भी है कि रोपाई के लिए तैयार बिन यानि पौधे हर हाल में सराने होते हैं | अगर कभी अबरखंण हो गया यानि सूखा पड जाय , गाड गधेरो से भी पानी न मिल पाये या किसी हारी बीमारी के चलते परिवार रोपाई न लगा पाय तो बिन के पौध को काट देते हैं | बिन का वैसा ही रह जाना या बिन में भी बाली आ जाना अपशगुन समझा जाता है | कभी किसी को बद्दुवा देते हुए कहा भी जाता है – तेर बिन पसिक जौ | बिन न सरा पाने के कारणो में एक कारण जो मैने हारी बिमारी बताया उससे बिन सराना रह जाय ये न के बराबर ही होता है | ऐसी स्थिति में गांव के लोग मिलकर बिमारी वाले घर के खेत में रोपाई लगा देते थे | मदद के इस तरीके को हतौल करण कहते थे |
रोपाई का महत्व पहाड में आप ऐसे भी लगा सकते है कि तब लोग अपनी रिश्तेदारी में पत्र लिखने पर लिखा करते थे – रोपाई अच्छी तरह से लग गयी है | आपके यहां भी लग गयी होगी |
फोटो : इंटरनेट से साभार