देवेश जोशी
उत्तराखंड के गढ़वाल व कुमाऊं अंचल में जागर एक महत्वपूर्ण विधा है, गीत-संगीत और लोकनृत्य की। लोक ऐतिहासिक सामग्री के रूप में भी ये बहुमूल्य हैं। जागर, देवताओं से सम्बंधित होते हैं या देवत्व-प्राप्त ऐतिहासिक चरित्रों के जो खासकर राजे-रज्वाड़ों से सम्बंधित रहे हैं। डमरूनुमा वाद्य, डौंर और कांसे की थाली का जागरों में प्रयोग अनिवार्य रूप से किया जाता है।
जागर-गायक जिसे जागर्या कहा जाता है, जागर-चरित्र की गाथा-गायन करता है। जागर के शब्दों, डौंर की गमक और थाली की खनखनाहट भरी झंकार के सम्मिलित प्रभाव से व्यक्ति विशेष आवेशित होकर नृत्य करने लगता है। जागर-चरित्रों का आवेश जिस व्यक्ति पर आता है उसे पश्वा या डांगरिया कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि आवेशित व्यक्ति की वाणी में जागर-चरित्र/देवता ही बोल रहा है, निर्देशित कर रहा है। मानव में जागर-चरित्र/देवता को जाग्रत करने के भाव के कारण ही इन्हें जागर कहा जाता है।
इसी मान्यता के चलते आवेशित व्यक्ति से कष्ट-समस्याओं का निदान भी पूछा जाता है और उन प्रकरणों पर निर्णय भी मांगा जाता है जिनमें दुविधा बनी होती है। नंदकिशोर हटवाल का एक नाटक मंगलू जागर्या के नाम से हाल ही में प्रकाशित हुआ है। समय साक्ष्य प्रकाशन से। नाटक की भाषा के बारे में लेखक बताता है, जिस भाषा में पहाड़ी आदमी हिंदी बोलता है जिसमें नेतागिरी करता है, आंदोलन करता है, अपने दुख और गुस्से को व्यक्त करता है। अफसरों और नेताओं से बात करता है, डॉक्टर से बात करता है। देवताओं से भी इसी भाषा में बात करता है इसी भाषा में देवता उसको जवाब देते हैं। देववाणी भी कह सकते हैं इस भाषा को।
नाटक की थीम को प्रख्यात कवि राजेश सकलानी ने भूमिका में ही सुस्पष्ट कर दिया है – देवताओं के अवतरण को इस नाटक का आलम्ब जरूर बनाया गया है लेकिन सिर्फ लोक कला साहित्य के आधार रूप में। अंधविश्वास या अप्रमाणिक रूढ़ि को स्थापित करने के विपरीत इसको लोकवादी और समकालिक बनाने की चेष्टा की गई है। नाटक का प्रमुख आकर्षण, दर्शकों/पाठकों को झकझोरने वाले इसके तार्किक संवाद हैं जो नाटक देखने/पढ़ने के लंबे समय बाद भी मन मस्तिष्क में घूमते रहते हैं।
देवता के कुछ संवाद देखिए –
त उनको नचाया तुमने कभी जिन्होंने इस इस्कूल को मास्टर देणे थे? ये इस्कूल बिना मास्टरों के बणा दिया? अस्पताल बिना डॉक्टरों के बणे हैं। येक बि डाक्टर नयीं पूरे इलाके में। बिना इलाज के मरेगा कोई तो हमारा दोष ? द्यब्ता का दोष ? इस्कूल बिना मास्टर के, अस्पताल बिना डाक्टर के, ख्येती बिना फसल की, गौं बिना मनखी के। किसने किया ये ? हमने ? सड़क नयीं तुमारे गांव, पाणी नयीं नल पे। उज्याला नयीं बल्ब पे, ज्वानों को रोजगार नयीं, बुड्यों को इलाज नयीं। किसने किया ये ? हमने ? इनको पता ही नयीं है असल में नचाणा किस्को है। ढोल-दमाऊ कां-किसके कनोड़ पर बजाणा है!! द्यब्ता नचाणे पे लगे हुए हैं।
वां बच्चे बिना पानी के तड़प रहे थे अर ये सारा गांव हमको पिला रा था पानी। हमको अस्नान करा रा था।…..हत्त, हमारी बि ऐसी-तैसी कर रखी है। प्रधान को – ” हमारा नाम बेच कर खा रहे हैं कि गांव में परसव होगा तो द्यब्ता नाराज हो जाएंगे। धूर्त…… चालबाज…..म्येरे सामणे से हट्ट। जागर्या को – तू मनुष्य नहीं गण्ड्यौल है। तू जागर्या नयी, भाट अर चारण है। बोझा ढोने वाला भारी- भरदारी है। अपने बाप-दादों की कमाई-बणाई गठरी अपणी पीठ में लाद कर शेखी बघारने वाला आदमी है।
मंगलू जागर्या के ज्ञान चक्षु खुलने पर वो कहता है – द्यब्ता पुराणे होते हैं तो उनको जागर भी पुराणे चाहिए होते हैं। निपट पुराणे। पर मनखी तो हर साल नए-नए पैदा हो रे। हर दिन जमाना बदल रा। द्यब्तों के जागर सरल, मन्खयों के कठिण। द्यब्ता जगाणा आसान, मनखी जगाणा कठिण।
मंगलू जागर्या को पाखंड और अंधविश्वासों पर तंज़ कसने, प्रहार करने और वैज्ञानिक-चेतना जगाने में सफल ऐसा नाटक कहा जाएगा जो अपने चुश्त-चुटीले संवादों से दर्शकों-पाठकों को बाँधे रखने में सक्षम है।
नाटक में अखरने वाली एक ही बात है और वो ये कि नाटक से निकलने वाली उस धुन को नहीं संभाला गया जो जागर्या को पारम्परिक जागर लगाने के लिए कठघरे में खड़ा करने का प्रयास कर रही है। एक अदद संवाद से ही इसे संभाला जा सकता था।
नाटक का एक संवाद है – ये तो पत्थर है। एक भौत बड़ा पत्थर। इस संवाद में पत्थर की जगह ‘डांग’ होता तो प्रवाह और प्रभाव में काफी अंतर आ जाता। मंगलू जागर्या, 150 से अधिक बार मंचित (नुक्कड़ शैली में) हो चुका है और अब परिवर्द्धित रूप में मंचन के लिए और भी सुविधाजनक हो गया है। पढ़िएगा जरूर। ऐसा लगता है कि नाटककार नंदकिशोर हटवाल ने डौंर-थकुली के दिव्य-संगीत में आवेशित होकर ही संवाद लिखे हों। मंगलू जागर्या, परम्पराओं को विज्ञान-सम्मत कसौटी पर परख कर दृष्टि -परिवर्तन करवाने में सफल नाटक है। यही नाटक का अभीष्ट भी है।