विमल सती
जी हां ,आप मुझे रानीखेत की हथेली की मध्य रेखा भी कह सकते हैं।इस शहर के मुख्य बाजार में घूमते ज्यों ही आप मध्य बाजार में पहुंचकर एक ढलान पर बसाहट के बीच से उतरती सड़क को देखते हैं न,वह मैं ही हूं।आज की खडी़ बाजार।
इस शहर की बनावट जब बुनी जा रही थी तब भारत के सबसेे घुम्मकड़ ,चौथे वाॅइसराय लार्ड मेयो के नाम पर मेरा नामकरण किया गया ‘मेयो स्ट्रीट’। हालांकि कुछ बुजुर्ग वॉइसराय गिलबर्ट जॅान एलिएट मिंटो यानी मिंटो द्वितीय के नाम से मुझे मिंटो रोड भी कहते सुने गए हैं।बहरहाल बताते हैं कि एक ब्रितानी इंजीनियर इल्बर्ट ने दिन-रात खडे़ रहकर मेरी निर्मिति की थी,इसलिए अगर मैं उसे अपना जनक कहूं तो इसमें बुराई क्या हैं।सच,मुझे जन्म से ही अपनी बनावट पर गुमान रहा है। कुछ वक्त मटिया रास्ता बनाकर छोड़ने के बाद ठोस पत्थरों को धरती पर करीने से रोप कर बनायी गई थी मैं,एकदम पथरीली।दोनों और निकासी नालियां, साफ-शफ्फाकपन ऐसा कि बारीक से बारीक सामान भी मेरी छाती पर गिर जाए तो आप आसानी से उठा सकते थे। मेरे आजू-बाजू ढलान पर उतरती मेरी सहायक नालियों की हर रोज भिश्ती दो वक्त मशक से पानी डाल कर सफाई करते थे,मजा़ल की गंदगी आजकल की भांति नालियों में धरना देने की हिमाकत करे। बाद के दिनों में,इन नालियों का पुनर्निर्माण हुआ था,इसी बाजार के जानकार बुजुर्ग बातू शेख़ किसी से बतियाते 1941 सन में इन नालियां को मजबूत बनाए जाने की बात कह रहे थे,वक्त की ये ठनक मेरे कान में भी पडी़ थी।
डेढ़ सौ वर्ष के जीवन में मैंने कई उतार-चढा़व देखें है। अपनी छाती पर जहां गोरों के बूटों को सहा है वहीं आते-जाते महिला-पुरूषों की पदचाप और बुजुर्गों की लाठी की ठक-ठक को भी महसूस किया है और हां,बच्चों के कोमल पांवों की गुदगुदाहट को भी।
मैंने अनगिनत रातें जहां निस्संग बितायी हैं तो वहीं अपने ऊपर से गुजरते जनरव मय उजाले देखें हैं।नंदाष्टमी पर्व पर अपनी छाती पर भैंसे का बलिदान देखा है तो देश के भाग्यविधाओं की ऐतिहासिक सियासी सभाओं को भी अपने ऊपर ठौर दी है।दशकों से न जाने कितने नेताओं के झूठे-सच्चे वादों की गवाह बनी हूं मैं। श्रीराम की लीला मंचन के लिए न जाने कितनी बार प्रभु कारज मानकर हंसते हुए शरीर पर घाव सहे हैं मैंने। ‘राम जपो अनुराग से धरी मन में धीर’ का भाव रखकर श्रीराम के मंच चरणों में पडी़ न जाने कितने बार प्रभु लीला श्रवण से धन्य हुई हू़ं मैं।
सन1952-53में मेरे हिस्से भी रात की रोशनी आई और मेरा चेहरा स्ट्रीट लाइट से दमक उठा।और हां,एक बात बताना तो भूल गई,आज जो चहल-पहल आप सदर बाजार में देखते हो न,कभी ऐसी ही मैं गुलजार रहती थी, आवश्यक वस्तुओं की दुकानें तब मेरे दोनों ओर सजी रहती थीं,ऊपरी छोर से भड़बूजों के भाड़ होते जो नीचे आते-आते कपडे़ ,राशन की दुकान तक एक भरे -पूरे बाजार की निर्मिति करते।मेरे निचले हिस्से को तब हंडिया मुहल्ला कहा जाता था।यहां दिखते तो केवल कुम्हारों के गोठ,चाक और मिट्टी के ढेर।उन दिनों मिट्टी के बर्तनों की खासी बिक्री होती थी,यहां तक पुरानी आबकारी स्थित देशी शराब ठेके में भी कुल्हडो़ं में शराब मिलती। चमन कुम्हार का किस्सा भी एकाएक स्मृति में दौड़कर आ गया है।गठीले बदन के चमन ने होली के दिन पडो़सी कुम्हार से ऐसा झगडा़ किया कि मिट्टी के निर्मित बरतनों की शामत आ गई ,खूब मजमा जुटा जो अंग्रेज पुलिस अधिकारी द्वारा चमन की सरेआम पिटाई शुरू होते ही छटा।पुलिस अधिकारी झगडे़ से ज्यादा रास्ते में मिट्टी बिखेरने से नाराज था।
मेरी बीच नाभि बिंदु पर चौराहा देखते हो न,यहां कभी जलौनी लकडी़ की मंडी लगा करती थी,स्थानीय मेहनतकश गरीब जंगलों से लकडी़ के गट्ठे लाकर यहां बेचा करते थे।उछपराम,मोहन राम,मुल्ला,नंदराम न जाने कितने लोग बांज,चीड़ की जलौनी लकडी़ के गट्ठे लाकर अंधेरी शाम तक लकडी़ बिकने के इंतजार में पिरूल की आग सेकते बैठे रहते। दिन में इस चौराहे पर नेत्रहीन इलाही बख्श, रमजानी व एकाध लोग जामुन,काफल ,नारियल टुकडा़ ,,भुट्टा बेचते तो शाम होते ही लकड़हारों से चहल-पहल बढ़ जाती। हां,इसी स्थान पर किसी दौर में मेरे बाजूबगल कमलापति पपनै जी के मालपूए और बची सिहं जी की काठ की ठेकी के दही ने मुझे विशिष्ट पहचान से नवाजा था।
स्कूली छुट्टी का दिन हो या फिर इस शहर की हर सुहानी शाम,मैं बच्चों से हमेशा गुलजार रहती।शाम होते ही मैं बच्चों से चहचहाने लगती,पूरा खेल मैदान बन जाती उनके लिए। मैने अपने शरीर के ऊपर बच्चों को पारम्परिक खेलों की समृद्ध परम्परा का निर्वाह करते देखा है।आइस-पाइस,गिल्ली -डंडा, गिट्टी -गेंद, पोसंपा,विष -अमृत,लगंडी़ टाँग,इज्जो-दुज्जो,रस्सीकूद,कंचे ऐसा कोई पारम्परिक खेल नहीं जिसके लिए मैं बच्चों के वास्ते खुद को फैलाकर मैदान न बनी होऊं।खेलते-कूदते बच्चे जब गिरते तो मेरे मर्म के नर्म कोने से आह निकल पड़ती। हर शाम की मुलाकात ने बच्चों के साथ लगाव को बेइंतिहा बढा़ जो दिया था। यही कारण था कि ढलान पर लेटी मैं बच्चों के अबोध जुल्म भी हँस कर सह जाती।बच्चे मेरे ढलवा शरीर का फायदा उठाते लकडी़ की चौकी, तख्तियों पर मोम अथवा साबुन घिसकर लाते और ऊपर से निचले छोर तक मेरे ऊपर खूब फिसल पट्टी खेलते।धड़धडा़ती ,फिसलती तख्तियों को गाडी़ की तरह चलाते मासूम बुजुर्गों से फटकार भी खूब खाते ,लेकिन मैं बच्चों के इस अनजाने जुल्म को हँस कर सह जाती।ये तब की बात है जब मेरे मध्यभाग में डामर का कलेवर चढ़ चुका था।
देसी-विदेशी सैलानियों के लिए मैं हमेशा से एक जिज्ञासा रही हूं कि आखिर ये सड़क नीचे और नीचे पहुंचती कहां होगी?मुख्य बाजार से नीचे को झांकते सैलानी आखिर इसी जिज्ञासावश मेरा अंत तलाशने ढलान पर उतर मेरे अंत की तलाश में अंतिम छोर तक जाकर अक्सर ठिठक जाते। चित्रकार, कवि, पत्रकार और भी कई तरह के बशर यहां रहकर मेरा मान बढा़ते रहे हैं ,इतना ही नहीं भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी यहां आकर रह चुके हैं।
पिछले दो दशकों से मेरा रूपरंग बदलने की हर वो मुमकिन कोशिश हुई है जिसे सरकारी शब्दावली में विकास कहते हैं।मेरे आधे हिस्से में जहां खड़ंजे की चादर बिछाई गई तो आधे को टाइल्स से ढका गया है। लेकिन मेरे निचले हिस्से पर कब्जा जमा कर बैठे अधिसंख्य दो पहिया ,चार पहिया वाहनों की ढिठाई पर किसी की लगाम नहीं ।मुझे स्थायी पार्किंग बना चुके इन वाहनों ने राहगीरों की परेशानी तो बढा़ई ही हैं खुद इनके बोझ तले दबी मेरी चीखों को भी अनसुना किया जाता रहा है। मेरी छाती पर अब मासूम नहीं खेलते, न उनकी मोम घिसी तख्तियां दौड़ती है, दौड़ते हैं तो सिर्फ वाहनों के भारी -भरकम टायर।
इन 150 वर्षों के जीवन में मैंने बहुत बदलाव देखा है ,अपने रंगरुप में भी और इस पूरी बसाहट के परिवेश में भी।अब मासूम बचपन मेरी गोद में खेलने नहीं आता उसे घरों के दरवाजे निगल गए हैं।बच्चों की किलकारियां,वो चहक पोसंपा भई पोसंपा…। आओ डाकू आते है..।बोल मेरी मछली कितना पानी…। सिरे से गायब है।
मुहल्ले में काष्ठ भवनों की जगह कंक्रीट के डब्बे तन कर खडे़ हैं।खिड़कियां मुझे पहले की तरह नहीं ताकती, वो अक्सर बंद रहती हैं। खिड़कियों पर पहचान की रोशनियां बंद हैं। दरवाजे भी एक दूजे को पहले की तरह न पहचानते हैं न पहचानना चाहते हैं ,बस..घूरते भर है। सम्बंधों का वह गाढा़पन अलोप हो चुका है। अब कोई मेरे पास तक आता भी है तो स्थायी रुप से खडी़ गाडि़यों की छतों व बोनट पर धोए हुए कपडे़ बिछाने ताकी टुकडे़ भर धूप में सुखाए जा सकें।संबंधों के साझेपन के साथ छतों का साझापन भी बिला गया है।कभी इसी साझेपन के साथ छत पर डाले जाने वाले कपडे़,बडि़यां,मूंगोडि़यां,अब मेरे पास तक आ पहुंची हैं। यहां के रहवासियों में वह उमंग, वह पुलक अब नहीं दिखती। लगता है मानो फिलिंगलेस मेलेनकली के शिकार हैं ,हँसते हुए भी चेहरे उदास लगते है। मेरे आस -पास एक निपट वीरानी है ,सन्नाटा है , वही हर रोज दिखते भावशून्य चेहरे हैं जो सुबह उठकर मुझसे गुजर कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ जाते हैं शाम उन्हें फिर घरों में धकिया देती है। चुपचाप अपनी जिंदगी से मुठभेड़ करते चेहरे..।भविष्य की चिंता में दुबलाए ..।जबकि मैं रौशन अतीत की ओर मुड़कर खुश रहती हूं, मेरे अतीत की चमक ही है जिसने मुझे 150साल का किया है, जिसका भावविमोचन आज मैंने किया और उन्हीं यादों की सौंधी महक के साथ मैं जी रहीं हूं ,हुलसायी सी-पुलकायी सी।मैं मेयो स्ट्रीट हूं।
©️ विमल सती