देवेंद्र कुमार बुडाकोटी
उत्तराखंड के लोग राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों में नाम कमा रहे हैं। आज भारतीय सेनाध्यक्ष बिपिन रावत से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, मानव संसाधन विकास मंत्री डा. रमेश पोखरियाल से लेकर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष प्रसून जोशी, शतरंज के ग्रैंडमास्टर परिमाजर्न नेगी से लेकर क्रिकेट के धौनी और उनके योग्य उत्तराधिकारी ऋषभ पंत ऐसे कई नाम उंगलियों पर आसानी से लिए जा सकते हैं। मगर सबसे बड़ा सवाल है कि इन सबकी जड़ें पहाड़ के जिन गांवों में हैं, वे क्यों आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं? इसका एक बड़ा कारण विस्थापन भी है। जो गांव छोड़कर गया तो गया। लौटकर फिर नहीं आया। नतीजा, उत्तराखंड में गांव के गांव भुतहा होते जा रहे हैं। वक्त आ चुका है कि इन गांवों का सामाजिक इतिहास लिख लिया जाए, ताकि कभी आने वाली पीढ़ियां अपनी जड़ों के जानना चाहें तो उनके पास सुलभ साहित्य हो।
नवंबर 2000 में नया राज्य बनने और कई सामाजिक संगठनों के कार्य करने के बावजूद विस्थापन रुका तो है नहीं। वन-वे ट्रैफिक है। पहाड़ी गांवों से सब नीचे जा ही रहे हैं, ऊपर नहीं लौट रहे हैं। विस्थापन रोकने के लिए आर्थिक विकास के संकेतकों में बरसों बाद भी कोई खास बदलाव हुआ नहीं है। अच्छी बात है कि विकास के मुद्दों पर आज की समर्थ पीढ़ी कुछ सोचने लगी है। तरक्की कैसे हो, विस्थापन कैसे रुके, ग्राम कैसे बचें, ये सब बातें उसके जेहन में सबसे ऊपर हैं।
यह अपने गांव के लिए ऐसा ही कुछ नया करने की कहानी है। यह कहानी विस्थापन के गढ़ पौड़ी गढ़वाल से निकली है। लैंसडॉन के पास जयहरीखाल ब्लॉक का गांव चाई भी बाकी दूसरे गांवों की तरह मानो भुतहा होते गांवों के रास्ते लगा हुआ था। इसके भी ज्यादातर लोग गांव छोड़ चुके हैं, लेकिन साल-दो साल में अपनी सुविधा के हिसाब आते हैं। क्यों न साल में एक बार सब मिल लें। इस विचार के साथ 2010 में यहां नई बात हुई। सबसे अच्छा समय गर्मियों की छुट्टियां ही हो सकती थीं। इसलिए इस लेखक समेत कुछ ग्रामीणों ने हर साल गंगा दशहरा पर यहां मिलना तय किया। उसी साल गांव के पुराने देवी मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ था। कई परिवार आए थे। जो दूर शहरों में थे, उन्हें भी बुलाया गया। गांव की ब्याही हुई बेटियों को भी सादर न्योते भेजे गए। पारंपरिक पूजा-पाठ के अलावा तीन दिन के सांस्कृतिक कार्यक्रम होने लगे। इतिहास, संस्कृति और विकास पर भी परिचर्चाएं की जाने लगीं। इसे नाम दिया गया चाई ग्रामोत्सव। यह दसवां साल है।
यह इतना आसान भी नहीं था। ज्यादातर पुराने घर टूट चुके थे। या रहने लायक नहीं थे। तब विदेशी विचार माना गया कि शौचालय के बिना यहां कैसे रहें। जी, यह बात 2014 में स्वच्छ भारत अभियान शुरू होने से चार साल पहले की है। खासकर देश-विदेश में बस चुके जो परिवार खुले में शौच की सोच भी नहीं सकते हैं, वे चार दिन भी कैसे रहें। इसलिए कुछ लोगों ने अपने घरों को ठीक किया। पंचायत घर को संवारा गया। कुछ घरों में शौचालय बनाए गए। आज तो हर घर में शौचालय है।
चाई का चेहरा बदलते देर नहीं लगी। आज शहरों में कार्यरत हर परिवार इस दिन के लिए छुट्टियां पहले से तय करता है। अब तो राज्य सरकार की ओर से भी इसमें प्रोग्राम होते हैं। चाहे सेहत शिविर हों, आपदा से बचाव की कार्यशाला, सरकारी योजनाओं का प्रचार या फिर कला-संस्कृति के कार्यक्रम, उत्सव के अभिन्न अंग बन चुके हैं। गांव के ज्यादातर परिवार गंगा दशहरा पर जमा होते हैं। तीन दिन सांझा चूल्हा ही जलता है। तीनों वक्त एक साथ भोजन होता है।
साल दर साल यह ग्राम उत्सव हो रहा है। हमने अपने आसपास के गांवों के लोगों को बुलाना शुरू किया है। मगर, हम चाहते हैं कि हर गांव में ऐसे उत्सव हों। उत्तराखंड ही नहीं, बाकी राज्यों के गांवों में भी जो परिवार बरसों-बरस मिल ही नहीं पाते हैं, वे एक तय समय पर अपने गांवों में इकट्ठे होकर मिलें। अपने पुरखों की विरासत को नई पीढ़ी को सौंपें। आज जबकि दुनियाभर में प्राचीनतम भाषाओं और संस्कृतियों को बचाने की सोच बढ़ रही है। ऐसे में पुरानी पीढ़ी की ओर से अपने बच्चों को इससे बेहतर तोहफा भला और क्या हो सकता है!