मनोज गुप्ता
बजट भाषण में वित्तमंत्री ने भारतीय जीवन बीमा निगम में सरकारी हिस्सेदारी बेचने की और विदेशी पूॅंजी निवेश सीमा में वृद्धि तथा एक सरकारी साधारण बीमा कम्पनी के निजीकरण की घोषणा की है । यह कोई साधारण निर्णय नहीं है । सार्वजनिक बीमा उद्योग के लिये यह अशुभ संकेत है । जीवन बीमा निगम का विनिवेश भारत के सबसे सफल वित्तीय संस्थान के निजीकरण की शुरूआत होगी । अगर इस निर्णय को अमल में लाया गया तो इससे करोड़ों बीमाधारकों के हित खतरे में पड़ेंगे और साथ ही सरकार का यह कदम आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य को दूर करेगा । बाजार विशेषज्ञों का मानना है कि एलआईसी का आईपीओ अब तक का सबसे बड़ा होगा, जिसका आकार 70000 करोड़ रूपये के आसपास हो सकता है । अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के पैरोकार तरह तरह के सफेद झूठ प्रचारित करने में लगे हुए हैं कि एलआईसी के शेयर बाजार में सूचीबद्ध किये जाने से पारदर्शिता व जवाबदेही आयेगी, प्रबंधन में सुधार होगा और बाजार से पूंजी जुटाने में मदद मिलेगी ।
यह सब निरी बकवास है और लोगों की आँखों में धूल झोंकना है । एलआईसी को बाजार से बाजार से पूँजी उठाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है जब वह खुद लगभग तीन लाख करोड़ रूपये अर्थव्यवस्था में प्रतिवर्ष निवेश करती है । सार्वजनिक क्षेत्र की वित्तीय संस्था होने के चलते एलआईसी पूरी तरह संसद, लेखा महापरीक्षक, सतर्कता आयोग की निगहबानी में है, अतः पारदर्शिता का तर्क भी गले नहीं उतरता । अनेकों बैंकों की तमाम वित्तीय अनियमिततायें शेयर बाजार में सूचीबद्ध होने के बावजूद समय से पकड़ में क्यों नहीं आ सकीं ?
एलआईसी की स्थापना कोई संयोग नहीं थी । स्वाधीनता संग्राम के तपे तपाये नेताओं की पीढ़ी ने एलआईसी की स्थापना 1 सितम्बर 1956 को 5 करोड़ रूपये की पूंजी से की थी । तत्कालीन वित्तमंत्री डाॅ0 सी0डी0 देशमुख ने उस समय प्राइवेट बीमा कम्पनियों की कारगुजारियों से संसद को अवगत कराया था कि उन्होंने किस किस तरीके से पालिसीधारकों के पैसे को हड़पा था । मुनाफा हुआ तो मालिक की जेब में और नुकसान हुआ तो कम्पनी के खाते में । हर साल दो तीन प्राइवेट बीमा कम्पनियाॅं दिवालिया हो जाती थीं और बीमाधारकों का पैसा डूब जाता था । देश का पूंजीपति वर्ग भी आधारभूत ढांचे में निवेश नहीं करना चाहता था क्योंकि इसमें तुरन्त मुनाफा नहीं मिलता, अतः दीर्घ अवधि के लिये फण्ड जुटाने एवं देश के कोने-कोने में आर्थिक सुरक्षा का संदेश पहुंचाने का दायित्व जीवन बीमा निगम को सौंपा गया । डाॅ0 अम्बेडकर चाहते थे कि बीमा एक राजकीय इजारेदारी हो क्योंकि उसकी तुलना किसी भी अन्य वित्तीय उत्पाद से नहीं की जा सकती । श्योगक्षेमं वहाम्यहम्श् यानी तुम्हारा कल्याण मेरा दायित्व के आधार सूत्र के साथ एलआईसी ने अपनी यात्रा शुरू की ।
वर्ष 2011 में सरकार ने अपनी पूंजी बढ़ाकर 100 करोड़ रूपये कर दी । इस पूंजी पर सिर्फ पिछले साल ही एलआईसी ने 2611 करोड़ रूपये का लाभांश सरकार को प्रदान किया । लाखों करोड़ रूपये के वित्तीय संसाधन एलआईसी प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में सरकार को मुहैया कराती है । आज एलआईसी चालीस करोड़ पालिसीधारकों के साथ दुनिया की सबसे बड़ी बीमा कम्पनी है । लगभग 35 लाख करोड़ की संपदा के साथ परिसम्पत्ति के आधार पर भी एलआईसी एशिया की सबसे बड़ी सार्वजनिक कम्पनी है । जिसकी बाजार कीमत कई गुना ज्यादा है । 1956 में मात्र 5 करोड़ रूपये के सरकारी निवेश से शुरू हुई एलआईसी अब तक 26 हजार करोड़ रूपये से अधिक का लाभांश भारत सरकार को दे चुकी है । इसके अलावा भी आयकर, जीएसटी आदि करों के रूप में भी यह हजारों करोड़ रूपये हर साल भारत सरकार को दिया जाता है । अपनी स्थापना के समय से अपने आर्थिक और सामाजिक उत्तरदायित्व पूर्ण ईमानदारी से निर्वाह करतेहुए एलआईसी 50 लाख करोड़ से अधिक की धनराशि पंचवर्षीय योजनाओं के लिये दे चुकी है । आज अर्थव्यवस्था का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जिसमें एलआईसी का पैसा न लगा हो । यह न सिर्फ फायदे में है वरन् विभिन्न सेक्टरों में भी हर साल कई लाख करोड़ रूपये निवेश करती है । इसके अलावा एलआईसी द्वारा गोल्डन जुबली स्कालरशिप योजना के तहत प्रतिवर्ष निर्धन वर्ग के हजारों मेधावी छात्रों को एक लाख तक की सालाना धनराशि प्रदान की जाती है ताकि ये छात्र उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकें। पिछले 12 वर्षों में लगभग सत्रह हजार छात्रों को यह छात्रवृत्ति प्रदान की जा चुकी है ।
64 वर्ष की अपनी शानदार यात्रा में जीवन बीमा निगम ने करोड़ों बीमाधारकों का अटूट विश्वास अर्जित किया है । यह भरोसा हजारों कर्मचारियों, अधिकारियों और लाखों अभिकर्ताओं ने अथक मेहनत और ईमानदारी का फल है । कोई आश्चर्य नहीं कि आज भारतीय जीवन बीमा निगम को भरोसे का पर्याय माना जाता है । एक पूर्व वित्तमंत्री ने उचित ही कहा था कि एल आई सी के तीन अक्षर अंग्रेजी वर्णमाला के सबसे प्रतिष्ठित तीन अक्षर हैं, जिन्हें पूरे देश के लोग जानते और पहचानते हैं । टाटा समाज अध्ययन संस्थान से जुड़े प्रो0 नोएल मैचेडो ने एलआईसी को एक एक अद्भुत आभूषण बताया है । अनेकों अन्य गणमान्य जनों द्वारा एलआईसी की भूरि भूरि प्रशंसा की गयी है । खुद स्व0 अरूण जेटली एलआईसी को एक रोल माडल बता चुके हैं ।
एलआईसी का निजीकरण करने की कोशिश नई नहीं है । अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की लालची निगाह भारत के बीमा बाजार पर बहुत पहले से है, 1989 में अमरीकी व्यापार प्रतिनिधि कार्ला हिल्स ने तो भारत सरकार को सुपर 301 के तहत पाबन्दी लगाने की धमकी दे डाली थी । उन्होंने यहाॅं तक कहा था कि हम भारतीय बीमा उद्योग को बलपूर्वक खुलवा लेंगे । वर्ष 1994 में मल्होत्रा कमेटी ने भी एलआईसी में सरकारी हिस्सेदारी कम करने की सिफारिश की थी, लेकिन प्रबल जनविरोध के कारण उस सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा था । उनको पहली सफलता 1999 में मिली जब तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने भारतीय बीमा उद्योग को देशी विदेशी निजी बीमा कम्पनियों के लिये 26 फीसदी विदेशी पूंजी सीमा के साथ खोल दिया, जिसे आगे चलकर 2015 में मोदी सरकार ने 49 प्रतिशत कर दिया जो कि 2015 में गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के स्वागत के हिस्से के तौर पर ही किया गया था ।
सरकार का तर्क है कि विकास कार्यों के लिये उसे पैसे की जरूरत है, लेकिन खुद भाजपा के अंदर भी जमीनी कार्यकर्ता सरकार के इस निर्णय से सहज नहीं हैं । वे इसकी आवश्यकता नहीं समझते कि एलआईसी के शेयर बेचकर धन जुटाया जाये, लेकिन पार्टी के भीतर कोई शीर्ष नेतृत्व के सम्मुख बोलने का साहस नहीं जुटा सकता है । अभी हाल ही में बीमा कर्मचारियों ने 350 सांसदों एवं हजारों विधायकों से संपर्क कर सरकार के इस निर्णय के दुष्परिणामों से अवगत कराया । लगभग सभी जननप्रतिनिधि इसकी आवश्यकता नहीं समझते । आरएसएस का मजदूर संगठन भारतीय मजदूर संगठन भी इसके विरोध में है ।
सवाल यह भी है कि विनिवेश के बाद क्या होगा । एलआईसी ने रेलवे में डेढ़ लाख करोड़ रूपये और राष्ट्रीय राजमार्गों के विकास के लिये सवा लाख करोड़ रूपये के निवेश का वचन भारत सरकार को दिया है, लेकिन एक बार जब एलआईसी को शेयर बाजार में सूचीबद्ध कर दिया जायेगा तो क्या उसके बाद उसे देश के विकास के लिए इस तरह से निवेश करने दिया जायेगा ? यह एक सच्चाई है कि शेयर बाजार में सूचीबद्ध किसी भी कम्पनी को अपने शेयरधारकों के फायदे के लिये ही काम करना होता है न कि अर्थव्यवस्था के विकास के लिये । इसके अलावा भारत में विनिवेश का अनुभव यह भी बताता है कि विनिवेश की प्रक्रिया में बड़े बड़े सार्वजनिक उपक्रमों को कौड़ियों के दाम बेचा गया है, इसलिये यह सोचना नादानी है कि सूचीबद्ध किये जाने से एलआईसी का वास्तविक मूल्य निकलकर सामने आयेगा । निजीकरण के वकीलों को 2008-09 की वैश्विक मंदी भी नहीं भूलनी चाहिये जब दुनिया की सबसे बड़ी बीमा कम्पनी एआईजी समेत अनेक भीमकाय बीमा कम्पनियों को भारी उतार चढ़ाव झेलना पड़ा था और एआईजी को करीब 5 लाख करोड़ रूपये लगाकर अमरीकी सरकार ने उबार लिया था, उस संकट से भारत कुछ हद तक इसलिये अछूता रह पाया क्योंकि यहाँ सार्वजनिक वित्त पर सार्वजनिक बैंकों और सार्वजनिक बीमा का नियंत्रण था, लेकिन प्राइवेटाइजेशन के बाद भारताीय वित्तीय तंत्र ऐसे संकटों से बच नहीं सकेगा । एक आशंका संप्रभु गारण्टी को लेकर भी है । जीवन बीमा निगम की सौ फीसदी स्वामी होने के नाते 1956 से ही एलआईसी की बीमा पालिसियों को सरकार की गारण्टी प्राप्त है, निजीकरण के बाद क्या वह पूर्व की भाँति जारी रहेगी ? प्राइवेटाइजेशन के बाद भारतीय जीवन बीमा निगम पूर्व की भाँति देश के प्रति जवाबदेह होगा या मात्र अपने अंशधारकों के प्रति ?
सरकारी हिस्सेदारी बेचने की घोषणा का तुरन्त ही देशव्यापी विरोध शुरू हो गया है । एलआईसी के करोड़ों बीमाधारक भी सकते में है कि उनके द्वारा जमा की गयी बचत का क्या होगा । एलआईसी को बचाने के लिये सभी कर्मचारी, अधिकारी और अभिकर्ता संगठन एकजुट हो गये हैं । उन्होंने इसके खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन की चेतावनी दी है । उनका कहना है कि सरकारी मालिकाना कमजोर होने से जनता की विशाल बचतों पर निजी पूंजीपतियों के नियंत्रण का मार्ग प्रशस्त होगा
एलआईसी देश की आर्थिक संप्रभुता का एक महत्वपूर्ण आधारस्तम्भ है । ऐसी संस्थायें एक दिन में नहीं बनती हैं । यह एक राष्ट्रीय निधि है, जो हजारों कर्मचारियों, अधिकारियों व लाखों अभिकर्ताओं की दशकों की मेहनत व ईमानदारी से निर्मित हुई है । पूरे विश्व में यह अकेला संस्थान है जो अपने लिये कुछ भी मुनाफा नहीं रखता है । अर्जित लाभ का 95 प्रतिशत पालिसीधारकों में व 5 प्रतिशत भारत सरकार को वितरित किया जाता है । यह एक म्युचुअल बेनेफिट कम्पनी है । इसके स्वामित्व से छेड़छाड़ करने का कोई नैतिक अधिकार सरकार को नहीं है । सरकार को स्पष्ट करना चाहिए कि एलआईसी को शेयर बाजार में नीलाम कर वह किसका हित साधना चाहती है ।़ शेयर बाजार से सिर्फ तीन करोड़ लोग जुड़े हैं । उनके हितसाधन के लिये एलआईसी के 42 करोड़ पालिसीधारकों के हितों को दरकिनार करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता । एफडीआई में वृद्धि निजी बीमा कम्पनियों का ही हितपोषण करेगी । सरकार अपना यह निर्णय वापस ले । एलआईसी को कमजोर करने का कोई भी प्रयास देशहित में नहीं होगा । प्रत्येक देशभक्त नागरिक इसका कड़ा प्रतिरोध करेगा ।
(मनोज गुप्ता)
अध्यक्ष, बीमा कर्मचारी संघ
हल्द्वानी डिवीजन