वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
राज्य स्थापना के इस पच्चीसवें साल में जो राज्य बनने के पहले तक किशोर हो गये होंगे और जिनके पास एक भविष्य के उत्तराखंण्ड की परिकल्पना भी रही होगी, वे अवश्य यह देख रहे होंगे, अनुभव कर रहे होंगे कि राज्य में धीरे-धीरे वे कोने भी खत्म होने के कगार पर हैं, जहाँ उत्तराखंडियों को ‘हमारे सपनों का उत्तराखंड नहीं मिला’ कहने की बजाय अपने राज्य में उत्तराखण्डी ड्रीम, विजन और उत्तराखण्डियत की मिसाल स्थापित करने के स्थान व अवसर बाकी हों। यह चिंताजनक है। यदि गंभीरता से विश्लेषण करें तो जो कुछ आप के लिये सौगात बता कर किया जा रहा हैै, उसके केन्द्र में बाहर वालों या आती-जाती जनसंख्या के हित में विलासिता, मनोरंजन व औद्योगिक प्रसार के अनुकूल स्थिति बनाना है। देखें ओने-कोनों में चार-पांच मंजिले होटलों की बाढ़ आ गई है। जमीनें अधिग्रहीत कर दी जा रहीं हैं। अंतराल तक आवासीय परिसर बसाने की बाहरी होड़ तो है किन्तु स्थानीय जन के लिये कुछ करने की लालसा नहीं है। हां, उनके संसाधनों पर चिलांगड़ी नजर गढ़ी है। स्थानीय लोगों के मुंह से उनके जलस्रोतों और पारम्परिक रास्तों पर अवरोधों के मामले बढ़ रहें हैं। और तो और घाटों पर जाना भी मुश्किल हो रहा है। फास्ट लेन सडकें बन रहीं हैं। वेडिंग डिस्टिनेशन बन रहे हैं। भले ही तब विवाही उन्माद में फिजूलखर्ची में प्रकृति का कितना ही रौंदना व रुदन क्यों न हो। कूड़े के ढेर पीछे कितने ही छोड़ दिये जायें। ऐसी बदहाली के पीछे सरकारी दलीलें होती है कि इससे राज्य के लोगों का आर्थिक विकास होता ही है और आगे भी होगा। क्या मूल फायदा बाहर वालों को हो और मूल उत्तराखंडी चुग्गे से संतुष्टि पा जायें ? कड़ाही के दूध की मलाई वे खायें और किनारे-किनारे खोनी को खुरच कर मूल निवासी संतुष्ट हो जाये।
बाहर वालों की बाढ़ इस राज्य में कितनी आ गई है, यह इसी से समझ लें कि इधर नगर निकाय व निगमों के चुनाव में, खासकर मैदानी इलाकों में ऐसी माँगें काफी रहीं कि राजनैतिक दल फलाँ-फलाँ समाज या बिरादरी को अध्यक्ष आदि के लिये टिकट दें- इनकी इतनी संख्या जीत को सुनिश्चित बनायेगी।
राज्य की डेमोग्राफी, जो बाहरी व मूल निवासी उतराखंडी के संदर्भ में बदल रही है चाहे इनवेस्टर्स के नाम पर ही सही, तो बाहर वाले, काम कराने वाले व घर वाले रोजगार या ठेकेदारी की लालसा में अपनी सम्पदा खोकर केवल काम करने वाले भर ही रह जायेंगे। आयतित कामगारों की संख्या भी बढ़ रही है, क्योंकि स्थानीय जन को सत्तर प्रतिशत आरक्षण दिये जाने के लिये ईमानदारी से प्रतिष्ठानों पर दबाव डाला ही नहीं गया है। बाहरी अधिकारियों व ठेकेदारों के माध्यम से क्या डेमोग्राफी कम बदल रही है ? विधायक उम्मीदवार या सांसद उम्मीदवार भी जब आयतित हो रहे हों तो उनके जीतने पर क्या-क्या जनसांख्यकीय बदलाव हो जायेगा, यह भी सोच में रहना ही चाहिये।
डेमोग्राफिक चेंज आखिर बसावट पर ही होगा। नतीजन इधर यह भी हुआ कि जिस से पूछो- आप क्या कर रहे हैं, तो यही जवाब मिलता है कि प्रोपर्टी का काम कर रहे है। ज्यादा खोद कर पूछो तो पता चलता है कि वह प्रोपर्टी बिकवाने और खरीदवाने के काम में दलाली कमा रहे हैं। हींग लगे न फिटकरी वाले इस काम की बढ़ती जमात में बड़े बाबू, छोटे बाबू, वकील साहिबान, राजनेता, बाहुबली सब दिख जायेंगे। जमीन स्वाभाविक रूप से मुख्यतया उसी की बिकेगी, जिसके पास होगी अर्थात् प्राथमिक मूल निवासी की।
आज यदि कोई मूल निवासी बाहर से लौटकर उत्तराखण्ड में जमीन खरीद कर बसना भी चाहे तो जमीन की कीमत व अनुपलब्धता के कारण यह मुश्किल हो जाता है। डेमोग्राफिक सन्तुलन फिर से उत्तराखण्डियों के पक्ष में आना मुश्किल होगा। इससे पर्वतीय संस्कृति व पहाड़ की राजनीति पर भी खतरे आयेंगे। न भूलें कि एक अलग उत्तराखंड की स्थापना पहाड़ी राज्य के आधिकारिक स्टेटस के साथ हुई है। एक स्थायी राजधानी के लिये गैरसैण की अपेक्षा भी इसीलिये है।
राज्य में जेहादी डेमोग्राफी बदलाव का जो हौवा खड़ा किया जा रहा है, उसके पीछे भी बाहरी व मूल का ही परिप्रेक्ष्य है। राजनैतिक सोच में भी डेमोग्राफिक बदलाव परिलक्षित हो रहा है। ऐसी घुटनाटेक स्थिति इससे पहले उत्तराखंड में कभी नहीं आयी। आज स्थिति यह है कि मुख्यमंत्री या कोई मंत्री कोई काम करे तो भी उसके सामने यह कहने की अनिवार्यता हो गई है कि प्रधानमंत्री जी के कुशल नेतृत्व में यह काम हो रहा है। कभी तो यह कहें कि यह काम हम जनता की जरूरत को देखते हुए अपने विवेक से कर रहे हैं। इतना कहने की भी स्वतंत्रता नहीं रही!
अधोगति की ऐसी पराकाष्ठा कि रोडवेज अड्डे पर पुलिस चौकी के पास रेप हो जाता है। जिस राज्य में आन्दोलनकारी महिलाओं की हमेशा ही मुख्य मांग शराब बंदी और नशाबंदी की रही हो, वहाँ प्रशासन की काफी ऊर्जा इस पर खर्च हो जाती है कि शराब की ओवर रेटिंग से उपभेाक्ताओं का शोषण न हो। सचिवालय के पास ही एक शराब के प्रतिष्ठान के मनमानेपन और अराजकता से अड़ोस-पड़ोस के लोग परेशान थे। जिलाधिकारी को सख्ती बरतनी पड़ी तब हालात कुछ काबू में आये। शराब पिये वाहन चालकों का पता लगाने के लिये पुलिस रात में भी गश्त लगा रही है। एक कटु यथार्थ है कि अस्तित्व में आने के बाद राज्य की आय जितनी हुई, उससे ज्यादा गुनी शराब से मिलने वाला राजस्व राज्य में बढ़ा है।
अप्रैल 2017 में जब एक कार्यक्रम में भाजपा के तबके मुख्यमंत्री के सामने शराब सस्ता करने का अनुरोध आया था तो उनका कहना था कि वे शराब के प्रसार के विरोधी हैं और और शराब की बिक्री बढ़ा कर राजस्व हासिल नहीं करना चाहते। अब तो वे सांसद हैं तो क्यों नहीं व्यक्तिगत संकल्प पेश करते कि देवभूमि उत्तराखंड में पूर्ण शराबबंदी लागू हो ? केदारनाथ की राहों पर अवैध शराब चलन की पुष्टि तो थानों व चौकियों से ही की सकती है। हर दूसरे-तीसरे दिन लाखों की नशीली सामग्री बाहर से आती या बाहर जाती पकड़ी जाती है। लोक सभा चुनावों की घोषणा होने के वक्त अंतर्राज्यीय नशे के तस्करों से लगभग एक करोड़ रुपये की सामग्री पकड़ी गई। अब तो पियक्कडों का पंसदीदा राज्य बनाने के लिये ‘वाइन टूरिज्म’ की भी बात होने लगी है। फल बेकर जा रहें हैं तो उसका उपयोग करो, परन्तु उसके माध्यम से टूरिज्म बढ़ाने की लालसा क्यों पाल रहें हैं ? नशा रोकने का संकल्प ऐसा है कि कुछ दिन पहले एक समीक्षा बैठक में मुख्य सचिव ने पाया कि अनेक जिलों में पूरे साल नशा रोकने से सम्बधित कमेटी की मीटिंग ही नहीं हुई ।
क्या नहीं मिलेगा आपको आज उत्तराखंड में ? नकली नोट बनाने वाले, नकली देशी घी बनाने वाले, जिनकी सप्लाई चेन देश के सबसे पूजित मंदिर के प्रसाद बनाने तक पहुँच जाये, नामी कम्पनियों की नकली दवाइयां, तमंचे बनाने के अवैध कारखाने, साइबर ठगी, नकली डिग्री, जमीनों के नकली दस्तावेज !
प्रदेश में सत्ता में चाहे कांग्रेस की रही हो या भाजपा की, दिल्ली हाईकमाण्ड से कमाण्ड लेती सरकारें कई बार तो अत्यंत घुटनाटेकू हो जाती हैं। यह देखते हुए भी कि उत्तराखंड की पारिस्थितिकीय व सांस्कृतिक व सामाजिक-सामुदायिक थातियों की नैसर्गिक प्रकृति व प्रवृत्तियाँ उत्तराखंडियों के हाथ से निकलती जा रहीं हैं, वे अपने हाई कमाण्ड के सामने दृढ़ता नहीं दिखा पातीं।
लगता है कि युवाओं व उनके समर्थन में आयी आम जनता का संयुक्त आक्रोश ही हालात ठीक करेगा। चुनावों से ऐसा होना आसान नहीं है। चुनाव तो अपने हाई कमाण्ड के सामने तन कर भी खड़े न हो सकने वाली भाजपा और कांग्रेस को ही सत्ता में ले आते हैं। किन्तु यह देखना सुखद है कि स्थापना के पच्चीसवें वर्ष में जन आन्दोलनों से जन्मा उत्तराखंड एक बार फिर जनसंघर्षों का उभार देखने लगा है। अपनी अस्मिता की चाहत वाली पहाड़ की जनता, खासकर युवाओं ने मूल निवास, भू स्वामित्व तथा बेरोजगारी के मुद्दों पर संघर्ष का रास्ता अपना लिया है। जब राज्य अपने पच्चीसवे वर्ष की तैयारी में था, नवम्बर में देहरादून सचिवालय में तो जो हुआ सो हुआ; हरिद्वार और ऋषिकेश में भूकानून को लेकर प्रभावशाली रैलियाँ भी हुईं। 6 नवम्बर 2024 को एक आई.ए.एस. अधिकारी मीनीक्षी सुंदरम और बॉबी पंवार के बीच जो कुछ हुआ, उसे उस आक्रोश का मूर्तरूप कहा जा सकता है, जो अब हर उत्तराखंडी में दिखाई दे सकता है। शायद उत्तराखंड को वापस उत्तराखण्डियों के हाथ में लाने का अभियान शुरू करना होगा। बॉबी पँवार पर लगाया जा रहा यह आरोप कि वे टेण्डर के लिये दबाव बना रहे थे, परिस्थितियों को देखते हुए किसी के गले नहीं उतर रहा है। मुख्यमंत्री से कांगेस उपाध्यक्ष सूर्यकांत धस्माना के ये सवाल आज सामयिक हैं कि भ्रष्ट अधिकारियों को क्यों संरक्षण दिया जा रहा है ? लोकायुक्त की नियुक्ति कब होगी ? आय से अधिक सम्पति के मामले पर हुई जांच पर निर्णय लम्बित होने के बावजूद अनिल यादव को दूसरी बार किस आधार पर सेवा विस्तार दिया गया है ?