स्वस्ती श्री सर्वोपमायोग्य नैनीताल समाचार वालो,
अत्र कुशलं च तथास्तु आप लोग पिछले चालीस-पैंतालीस साल से, हमारे जन्म से भी पहले से अपने पाठकों को हरेले का तिनड़ा पठा रहे हैं। हरेले की शुभकामनायें और आपका बहुत-बहुत आभार। आप अपनी समझ में अच्छा ही कर रहे हैं, मगर दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है सम्पादक जी! सोचा इस बार मौके का फायदा उठा कर दो-चार बातें अपनी मन की भी कर लूँ।
हरियाली का उत्सव हरेला अब एक ब्रांड है। ब्रांड होने के अपने उसूल हैं। ब्रांड को चमकना होता है। वो यदि हरा है तो उसे अधिक हरा होना होता है। उसे फ्रेम के अनुरूप और स्क्रीन योग्य होना होता है। बाज़ार ने किसान से उसकी ये ख़ुशी छीनकर उसे विनिमय की वस्तु बना दिया है। अब किसान वही है जो स्क्रीन पर शेयर करता है। किसान कहलाने के लिए उसे स्क्रीन के योग्य खुद को बनाना होगा। उधर, हरेला प्रेमी हैं जो किसान की अनुपस्थिति में भी हरियाली परोस ही देंगे।
हरेले की बात से पहले कुछ बातें…..
सूचना क्रांति डेढ़-दो दशक में ही फलित हो जाएगी और फलित होकर हमारी जिंदगी का ढब ही बदल देगी, यह कल्पनातीत था। इससे पहले टेलीफोन, टीवी, रेडियो और डाक-तार को बड़ी परिघटनाएँ माना गया था। आज व्यक्ति अधिक सूचनाएँ मिलने, सूचना संत्रास और सूचना फोबिया से त्रस्त हो, ऐसी कामना कर रहा है कि काश ऐसी जगह मिल जाए जहाँ नेटवर्क न हो। वह कुछ दिनों के लिए ही सही उत्सवधर्मिता से दूर हो सके।
सूचना का अतिरेक एक समस्या है। लेकिन, तकनीक के प्रभावों की बात करें तो यह युगांतरकारी है। सूचना को पचाने का हमारा हाजमा जवाब दे रहा है। सूचना को ज्ञान और विवेक में बदल पाना मुमकिन नहीं लग रहा। सूचना का औजार हाथ में उठाए सत्ता अधिक सम्पन्न और नियंत्रणकारी हो चुकी है। लोग क्या सोच रहे हैं, उनके मन में क्या चल रहा है और आगे वह क्या कदम उठाने वाले हैं, सरकार के लिए यह जानना कहीं आसान हो चुका है। सर्वज्ञानी सरकार बहादुर अब जनता के साथ चूहों की तरह खेल रही है।
स्क्रीन पर पॉप अप करती सूचनाओं ने नागरिक बोध को आत्ममुग्धता में बदल दिया है। परिवार जैसी सबसे छोटी इकाई में मतैक्य मुमकिन नहीं रहा। इस दुनिया में हरेक खिन्न है, लेकिन उनके पास सलाहियत पाने का जरिया भी तकनीक ही है। आप भुगतान करें और समाधान पाएं। आप अधिक भुगतान करें, अधिक समाधान पाएं। परिवार के सदस्यों के बीच अब बात होती ही नहीं, बात होती है तो उसका एजेंडा भी फेसबुक और व्हाट्सएप तय करता है। आपने जो तय किया, वह भी फिर विंडो पर चला जाता है। पास के व्यक्ति से आप सीधे बात नहीं करते, बल्कि दूर के किसी व्यक्ति से दिल का दर्द बयाँ करते हैं।
नृतत्वशास्त्री युवाल नोह हरारी ने ‘सेपियंस’ में एक बात कही थी, ‘‘भाषा के अविष्कार ने इंसान को कृत्रिम और झूठ बोलने वाला बना दिया’’। उसमें यदि स्क्रीन की भाषा भी जोड़ दें तो इसने कृत्रिमता और झूठ को बहुगुणित कर दिया है। अब ‘लाइक्स’ से सच का चुनाव किया जाता है। लाइक करने का विवेक आग्रहों-पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होता है। आपको किसी को हैरेस करना है तो अधिक से अधिक ट्रोल करें और विरोधी को अपदस्थ कर दें। इस दंगल में एजेंडा सेट करने वालों को सामने नहीं आना पड़ता। भीड़ से ही सब करा लिया जाता है।
कविता, कला रूप, वन्यता सब इसके शिकार हुए हैं। एक अनुमान के मुताबिक दो हज़ार साल की यात्रा में आए कवियों के बराबर कवि अब एक साल में आ रहे हैं। अब नवांकुर कवि को मार्गदर्शक-आलोचक-समालोचक की आवश्यकता नहीं, उसे समर्थकों की भीड़ चाहिए। यदि उसने अधिक भीड़ जुटा ली तो वह किसी क्लासिक या नामचीन से बड़ा हो गया। कुछ लोग इसे कविता का गणतंत्र कह सकते हैं। लेकिन इस गणतंत्र में हर कविता और हर कवि बहुत कम समय में वाष्पित हो जा रहा है।
आग और पहिए के अविष्कार ने दुनिया को बदला। मुद्रण तकनीक, तार-टेलीफोन, टीवी और कंप्यूटर ने भी इंसान की जिंदगी में गुणात्मकता लाने का प्रयास किया। क्या हम डाटा आधारित स्मार्टफोन के बारे में ऐसा कहने की स्थिति में हैं ? या इंसान इस मोड़ पर आकर अपने ही बुने जाल में फंस गया हैं ? ‘अनडू’ करने का उसका मन नहीं, मगर यहाँ से आगे का रास्ता क्या है ?
व्हाट्सएप और फेसबुक पर हरेला की शुभकामनाएं वायरल करते हुए थोड़ा सोचना सम्पादक जी! वर्चुअल दुनिया में मानवीय संवेदना, उल्लास, मासूमियत और नैसर्गिकता है ? क्या घटता है चित्तपट पर जब एक साथ ‘आर.आई.पी.’ और ‘हैप्पी एनिवर्सरी’ लिखते हैं ? क्या यह तकनीक हमारी प्रतिक्रिया व्यक्त करने और भाषा उपयोग के कौशल को अपनी मर्जी से संचालित नहीं कर रही है ?
कवि विमल कुमार ने कभी लिखा था :
‘‘जितना ज्यादा बाज़ार
बाज़ार में है
उससे कहीं ज्यादा बाज़ार
अब स्वप्न में है’’
2013 केदारनाथ आपदा जब टीवी और मोबाइल स्क्रीन पर अवतरित हुई तो इसने लाइव सूचना का एक महोत्सव निर्मित किया था। ऐसे में आप मदकोट, कपकोट और पीपलकोटी की पुरानी आपदाओं को और चमोली-उत्तरकाशी के भूकंपों को याद करें। देर से छपने वाली और देर से पाठक तक पहुँचने के बावजूद इन ख़बरों से व्यापक संवेदना निर्मित होती थी। और, अक्सर नीति निर्माताओं पर भी उसका असर पड़ता था। केदारनाथ आपदा से जुड़ी ख़बरों के ओवरडोज से क्या हुआ ? आज वहां फिर निर्माण हो गए हैं। पहले से अधिक पर्यटक पहुँच रहे हैं। आपदा के प्रभाव की मूल वजह किसी को स्पर्श नहीं कर सकी और अधिकांश लोगों को तो इस भयानक विपदा की स्मृति ही नहीं रही। इसीलिए तो कोई ऑल वेदर रोड जनित मुँह बाये खड़े त्रासद मंजर पर विचलित नहीं होता। पहाड़ जो हमारी माँ है, जिसने हमारे पुरखों को खेत काटने की इजाजत दी, जिसने हमें गूल काटकर पानी ले जाने के लिए मना नहीं किया, हम उसे राक्षसी मशीनों से तोड़ते हैं, काटते हैं, उसे ढहा देते हैं। दिल में उफ़ नहीं होती। दर्द नहीं उठता।
पिछली आपदा में हरेला बोने वालों की खूब वाट लगी थी। नैनीताल तो सरकने सा लगा था। रामगढ़-मुक्तेश्वर के कई गांवों में घर-खेत सब बराबर हो गए। कइयों की जानें चली गईं। सड़कों को प्रकृति ने ऐसी चोट दीं अब तक भी उफ़ नहीं करतीं। ठीक है राशन मिला और वोट भी मिले, मगर याद रखना प्रकृति ने जो रौखड़ खड़े किए हैं, वे अभी बैठे नहीं हैं, सावधान!
पिछले बरस हरी पट्टियाँ बांधकर हरेला हरेला करने किसान दिल्ली की सरहद पर थे। याद है ? और कभी डिनर टेबल पर किसी ने जिक्र किया कि अब रिलायंस के मॉल में सब कुछ उपलब्ध है। और अडानी जी सबसे बड़े गोश्त व्यवसायी हैं। अब तुम्हें घूम-फिरकर बकरियाँ नहीं चरानी पड़ेंगी।
हरेला याद आता है। मन मोह लेता है। हरेले की फोटो फेसबुक पर डालना नहीं भूलते तो खेतों में पसीना बहाने वाले असली हरियाल से खुन्नस क्यूँ भाई ? खेत मजदूरों के बच्चे ‘मिड डे मील’ खा लें तो दिक्कत। राशन फ्री में मिले तो दिक्कत। चार दिन मनरेगा कर लें तो दिक्कत। हरेले का फोटो क्यूँ जारी करते हो भाई ?
‘‘काफी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमंड के नभ की फटती है छाती
अंधकार की सत्ता चिल बिल चिल बिल
मानव जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी’’ (वीरेन डंगवाल)
आप पेट्रोल के दाम दे सकते हैं तो दें। अधिक से अधिक दे सकते हैं, दें। मगर, जब सरकार कॉरपोरेट के हाथ में किसानी सौंप देने वाले बिल लाए, आप उसके विरोध पर क्रुद्ध क्यों हैं ? आप अपनी सारी मेधा इस बात पर लगा देंगे कि विरोध करने वाले ‘खालिस्तानी’ और ‘देशद्रोही’ हैं ? इस बार हरेला की शुभाशीष देते हुए सोचना जरा कि एक साल तक पुलिस की ज्यादतियों का मुकाबला करने वाले किसान कह क्या रहे थे ? सरकार खाद, डीजल, कीटनाशक और बीज के दाम बढ़ते देखती रही और जब घाटा सहन करते-करते किसान घुटनों पर आ गया तो दिल्ली की तरफ बढ़ा। उसने तीन काले कानूनों को तो रुकवा दिया मगर अभी फसल का उचित दाम मिलने की बात पर सरकार चुप है.
हैरानी तो इस बात पर भी कम नहीं होती कि जब तराई के किसान रुड़की और बिलासपुर बॉर्डर पर पिट रहे थे तो पहाड़ के किसानों के कान में जूँ तक नहीं रेंगी। कुछ पहरुए जरूर पहाड़ों से दिल्ली पहुंचे लेकिन उनकी सुनने वाला है कोई गाँवों में ? तब हम ‘पहाड़ से पलायन’ का करुण गीत क्यों गाते हैं ? जो किसान कृषि कानूनों के विरोध में नहीं था, वह माफिया से अपनी जमीनें कैसे बचा लेगा ? क्या बंदरों और सुअरों से खेती बचाने की उसकी जिरह सुनेगा कोई ? यकीन नहीं होता यह वही पहाड़ है जिसने दुनिया को पर्यावरण चेतना दी। जिसके पास सरकार से हक़-हकूकों के लिए लड़ने का दो सदी का अनुभव है।
बिपिन रावत, अजीत डोभाल, भास्कर खुल्बे, प्रसून जोशी और अनिल धस्माना पर जितना चाहे इतरा लें, मगर आपको दो जून की रोटी मेहनत करके ही कमानी होगी। मुफ्त का राशन पसंद है तो उसकी हिफाजत के लिए भी उठ खड़े होने का समय आ गया है। राशन कार्ड वापस करा रहे हैं न ? ‘आत्म गौरव’ और ‘आत्म प्रेम’ से ग्रसित हम उत्तराखंड के लोग किस पहचान में ढलना चाहते हैं ? अब तो फ़ौज में जाने के गलियारे भी सिकुड़ते जा रहे। ‘अग्निवीर’ बनाने की दयनीय स्थिति पर भी स्वाभिमानी सैन्य प्रदेश चुप है!
हरेले के आगाज के साथ पूर्वी और पश्चिमी विक्षोभ जब पहाड़ों को झकझोरेंगे, उसे नींद से जगायेंगे और मानसून के थपेड़े जब तीर्थयात्रियों द्वारा विसर्जित मल-मूत्र और कचरे को सतह पर ले आएंगे, सोचना अपने होने पर। सोचना अपनी पहचान पर नियति पर।
हरेला एक खूबसूरत ख्व़ाब ही तो नहीं बनने जा रहा ? रुपहली स्क्रीन पर लटका तिनड़ा हमें मतिभ्रम में डालता हुआ ?
मोबाइल को किनारे रख थोड़ी देर के लिए सोचना सम्पादक जी कि क्या होने चले थे हम और कहाँ आ पहुंचे हैं ? गर्व और उन्माद से लबालब भर देने वाली रुपहली स्क्रीन हमें कौन सा नशा दे रही है ?
सोचना सम्पादक जी और अपने पाठकों को भी समझाना। बांकी कलम की गलती माफ करना
हरेले की शुभकामनायें!
आपका एक पाठक
भास्कर उप्रेती