स्वीटी टिंडे
देवस्थानम बोर्ड की तरह इतिहास में उत्तरखंड के मंदिरों के प्रबंधन में सरकारी हस्तक्षेप पहली बार वर्ष 1882 में देखा गया जब बद्रीनाथ मंदिर परिसर में एक हत्या हुई। हत्या के बाद कुमाऊँ के कमिश्नर हेनरी रेम्जे 22 फ़रवरी 1882 को ब्रिटिश सरकार के सेक्रेटेरि को लिखे पत्र में लिखा कि मंदिर परिसर में चढ़ावे के बँटवारे के लिए इस कदर झगड़े होते हैं कि रावल को सुरक्षा की आवश्यकता है। इसके बाद 10 मार्च 1882 को मंदिर परिसर में पुलिस चौकी स्थापित करने का आदेश जारी कर दिया गया।
आगे चलकर देवप्रयाग (बाह), श्रीनगर, रुद्रप्रयाग व गौचर के चट्टियों में पुलिस चौकी बनाई गई जबकि यात्रा के दौरान नंदप्रयाग, नरयाणकोटि, गुप्तकशी, फ़ाटा, केदारनाथ, बद्रीनाथ, में अस्थाई चौकी बनाई जाती थी। पारम्परिक तौर पर स्थानिय पटवारी चौकी के ज़्यादातर मामले का निपटारा करते थे। पर मंदिर परिसर में बढ़ती अव्यवस्था के ख़िलाफ़ 1930 के दशक में गढ़ केसरी अनुसुइया प्रसाद बहुगुणा ने आवाज़ उठाई और वर्ष 1938 में भूख हड़ताल किया। अंततः वर्ष 1939 में श्री बद्रीनाथ मंदिर प्रबंध क़ानून पास किया गया।
देवस्थानम बोर्ड का इतिहास
श्री बद्रीनाथ मंदिर प्रबंध क़ानून 1939 से पहले बद्रीनाथ और केदारनाथ मंदिर समेत कुल 45 मंदिरों का संचालन 1863 की XX ऐक्ट के तहत संचालित होती थी। श्री बद्रीनाथ मंदिर प्रबंध क़ानून 1939 के तहत इन 45 मंदिरों का संचालन के लिए एक कमिटी का गठन किया गया जिसमें कुल 6 निर्वाचित और अध्यक्ष समेत आठ अन्य सदस्य राज्य सरकार द्वारा मनोनीत किए जाने थे। अर्थात् सरकार द्वारा मनोनीत सदस्यों की संख्या निर्वाचित सदस्यों से कहीं ज़्यादा थी।
इनमे से दो सदस्य उत्तर प्रदेश विधान सभा से, एक सदस्य उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य से, एक सदस्य गढ़वाल (उस दौर में चमोली गढ़वाल ज़िले का हिस्सा था)
एक उत्तरकाशी, व एक टेहरी ज़िला परिषद से निर्वाचित होने थे। जिन ज़िलों में ज़िला परिषद नहीं था वहाँ ज़िला कलेक्टर को ये सदस्य मनोनीत करने का अधिकार दिया गया। अर्थात् इस मंदिर समिति के ऊपर सरकार द्वारा मनोनीत सदस्यों का भारी दवदवा था।
आज़ादी के बाद श्री बद्रीनाथ मंदिर प्रबंध क़ानून 1939, “श्री बद्रीनाथ तथा श्री केदारनाथ मन्दिर अधिनियम” के नाम से जाना जाने लगा। अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार राज्य सरकार द्वारा नामित एक समिति दोनों मन्दिरों का प्रबन्धन करने लगी। वर्ष 1941 से 1991 के बीच इस क़ानून (श्री बद्रीनाथ मंदिर प्रबंध क़ानून 1939) में 11 बार बदलाव किए गए और तक़रीबन सभी बदलाओं में समिति के अधिकारों को मज़बूत और सरकार की समिति पर पकड़ को कमजोर किया गया। 1991 आते आते सरकार अब मंदिर समिति के सदस्यों को अकारण नहीं हटा सकती थी और न ही समिति को भंग कर सकती थी। मंदिर के फंड के संचालन पर समिति की पूरी स्वायत्ता दे दी गई।
1960 में पृथक चमोली ज़िला बनने के बाद एक सदस्य चमोली से भी बनाया जाने लगा। समिति के सदस्यों में बढ़ोतरी करने हेतु इस अधिनियम को 2002 में संशोधित किया गया, जिसके बाद कई सरकारी अधिकारियों और एक उपाध्यक्ष की नियुक्ति की जाने लगी। अब समिति के 17 सदस्यों में से 10 राज्य सरकार द्वारा नमित किए जटे थे, चार ज़िला परिषद व तीन विधानसभा के सदस्य होते थे। (स्त्रोत)
‘देवस्थानम बोर्ड’
कुछ ऐसा ही प्रावधान है देवस्थानम बोर्ड की संरचना में भी है जिसमें सरकार और सरकारी अधिकारियों द्वारा मनोनीत अधिकारियों का देवस्थानम बोर्ड पर दवदवा है। राज्य के मुख्यमंत्री खुद देवस्थानम बोर्ड के चेयरमैन बन बैठे, और धार्मिक मामले के कैबिनेट मंत्री को वाइस चेयरमैन बना दिया। गंगोत्री और यमनोत्रि क्षेत्र के विधायक साहब के साथ चीफ़ सेक्रेटेरी को भी बोर्ड का मेम्बर बना दिया और बोर्ड का चीफ़ इग्ज़ेक्युटिव ऑफ़िसर एक IAS अधिकारी को।
देवस्थानम बोर्ड का एक और पक्ष सामने आया है जो इतिहास के लिए नया है। सरकार और उनके अधिकारियों के साथ अब पूँजीपतियों को भी मंदिर संचालन समिति का सदस्य बनाया जा रहा है। पिछले वर्ष मुकेश अम्बानी के छोटे पुत्र अनंत अम्बानी को देवस्थानम बोर्ड का सदस्य बनाया गया है। अनंत अम्बानी न तो उत्तराखंड के स्थानिये निवासी हैं और न ही उत्तराखंड सरकार का हिस्सा हैं।
बीते दिन उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत को केदारनाथ मंदिर परिसर में इसलिए नहीं घुसने दिया गया क्यूँकि उन्हें देवस्थानम बोर्ड का जनक माना जा रहा है। सही बात है, किसी को हक़ नही है कि वो तय करे कि कौन बाबा केदार का दर्शन करे और कौन नही, फिर चाहे वो मंदिर के पुजारी ही क्यूँ न हो। पर अम्बानी के बेटे को देवस्थानम बोर्ड का सदस्य बनाकर ये हक़ कैसे दे दिया गया कि वो तय करे कि बाबा केदार के परिसर समेत अन्य मंदिरो में क्या हो सकता है और क्या नहीं?
पृथक उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से ही जैसे जैसे प्रदेश की राजनीति में ब्रह्मणो का दवदवा कम हो रहा है राजपूतों (ठाकुरों) का दवदवा बढ़ रहा है वैसे वैसे ही मंदिर समिति के स्वायत्ता पर हमला करने का प्रयास किया जा रहा है। 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद उत्तराखंड सरकार के पास मंदिर समिति के अधिकारों को अनदेखा करने और देवस्थानम बोर्ड की पठकथा लिखने का मौक़ा मिला और उसके बाद देवस्थानम बोर्ड के सहारे उनके अधिकारों को पूरी तरह कुचलने का फ़ैसला लिया गया। और इस फ़ैसले में सरकार के साथ पूँजीपतियों के बढ़ते गठजोड़ से इंकार नहीं किया जा सकता है।
‘huntthehaunted.com’ से साभार