विनोद पाण्डे
मोटर सड़कें विकास के लिए जरूरी हंै। मगर सड़क बनाने से पूर्व इस बात पर चर्चा जरूर होनी चाहिये कि सड़क की बनावट कैसी हो, उसकी चैड़ाई कितनी हो, क्या उससे पर्यावरण पर कोई तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभाव भी पड़ते हैं, क्या उसके कोई सामाजिक प्रभाव भी हो सकते है ? चारधाम के लिये सुरक्षित, तेज और आरामदायक सड़क परियोजना, जिसे ’आॅल वेदर रोड भी कहा जाता है, बगैर ऐसे सवालों से टकराये बननी भी शुरू हो गई। इसके निर्माण के लिये किये जा रहे भूमि कटान में हजारों पेड़ कटे, कई दुर्लभ प्रजातियों की विलुप्ति का खतरा पैदा हुआ, बेहिसाब मलबा नदियों और जल स्रोतों में जा समाया। इस तबाही से चिंतित कुछ जागरूक लोगों ने ये मामला न्यायालय तक पहुंचाया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस परियोजना के पुनवरालोकन के लिए वर्ष 2019 में एक समिति का गठन किया गया, जिसका अध्यक्ष प्रख्यात् पर्यावरणविद डाॅ. रवि चोपड़ा को बनाया गया। कई सरकारी पदों पर कार्यरत अधिकारी एवं अन्य विशेषज्ञ भी समिति में शामिल थे। सर्वोच्च न्यायालय ने समिति को इस परियोजना से पर्यावरण व सामाजिक जीवन पर पड़ रहे विपरीत प्रभावों का आंकलन करने का जिम्मेदारी दी थी और यह पूछा था कि जहां पर अभी कार्य चल रहा है, वहां इस तरह की क्षति को नियंत्रित करने के लिए क्या उपाय किये जायें और जहां पर अभी तक काम शुरू नहीं हुआ है, वहाँ पर क्या बदलाव किये जायें।
चार धाम मोटर मार्ग परियोजना दरअसल पहले से बने अनेक मोटर मार्गों, जिनमें यमुनोत्री (जानकी चट्टी तक), गंगोत्री, केदारनाथ (सोन प्रयाग तक), बद्रीनाथ और टनकपुर से पिथौरागढ़ (कैलास मानसरोवर यात्रा) शामिल हैं, की वर्तमान चैड़ाई को बढ़ाने के लिये है। इस सड़क के निर्माण का घोषित उद्देश्य पर्यटन का विकास बताया गया है। जैसा कि पहाड़ी मार्गों पर प्रायः होता है, ये मार्ग निश्चित रूप से कई जगहों पर संकरे थे। इसलिए इनमें यातायात को सुगमता से चलाने के लिए इसे ‘डबल लेन पेव्ड शोल्डर’ (डी.एल.पी.एस.) रोड में बदलना था। ऐसेे मार्ग में सड़क की चैड़ाई 10 मीटर होती है, जिसके दोनों बाहरी किनारों पर सफेद लाइन खींच कर एक-एक मीटर और कोलतार कर पक्का किया जाता है। यह बाहरी हिस्सा साइकिलों अथवा पैदल चलने वालों की दृष्टि से रखा जाता है। खाली रहने पर मोटर वाहन भी इस शोल्डर का प्रयोग कर सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित यह समिति जब चारधाम सड़क परियोजना की क्षति के आंकलन व उससे निबटने के सुझावों पर बातचीत कर सड़क की प्रस्तावित चैड़ाई घटाने की अनुशंसा करने का निर्णय ले रही थी तो समिति में मतभेद हो गया।। सड़क की चैड़ाई को 12 मीटर के बजाय 5 मीटर करने के पक्ष में सबसे प्रबल दस्तावेज भारत सरकार से जारी मार्च 2018 का परिपत्र था, जिसे कार्यरत संस्थाओं ने इस समिति से छुपाया था। समिति इस निष्कर्ष पर पहंुची कि जहां काम शुरू नहीं हुआ है, वहां सड़क की चैड़ाई घटाकर 5 मीटर की जाये। इस निष्कर्ष पर पहुँचने वालों में समिति के अध्यक्ष डाॅ. रवि चोपड़ा के साथ सामाजिक विशेषज्ञ डाॅ. हेमन्त ध्यानी, भूगर्भवेत्ता डाॅ. नवीन जुयाल और भारतीय वन्यजीव संस्थान के डाॅ. एस. सत्या कुमार ही बचे। बाकी 16 सरकारी सदस्यों सहित 5 अन्य सदस्य सरकार की प्रस्तावित योजना यथावत् रखने के पक्ष में थे। डाॅ. रवि चोपड़ा वाले अल्पमत समूह ने इस मार्ग की चैड़ाई 5.5 मी. करने का सुझाव दिया तो दूसरे धड़े सदस्य इसे डबल लेन के साथ 10 मी. रखने के पक्ष में अड़ गये। बिना अध्यक्ष की जानकारी व सहमति के उन्होंने एक समानान्तर रिपोर्ट जमा कर दी।
सामान्य तौर बहुमत को निर्णायक माना जाता है। परन्तु जब प्रकरण विज्ञान एवं तकनीकी का हो तो वैज्ञानिक दृष्टि को स्वीकार किया जाना चाहिये। डाॅ. रवि चोपड़ा और उनके अल्पमत के समूह का कहना है कि उनका निष्कर्ष क्षेत्र की अति संवेदनशील भूगर्भीय संरचना, दुर्लभ पारिस्थितिकी व जैव विविधता, नदियों का जलागम होने के अतिरिक्त भारत सरकार के सड़क परिवहन मंत्रालय के मार्च 2018 के परिपत्र पर आधारित पर हैं। आश्चर्य की बात है कि भारी ‘बहुमत’, जिसमें 21 सदस्य हैं, के पास कोई वैज्ञानिक तर्क नहीं है, सिवाय इस जिद के कि चूँकि भारत सरकार ने 10 मीटर की ‘डबल लेन पेव्ड शोल्डर रोड’ की स्वीकृति दी है, इसलिए इसे माना जाना चाहिये। अल्पमत में आ जाने के कारण खारिज कर दिये गये इन वैज्ञानिकों को आशा थी कि उनके पक्ष में उत्तराखण्ड के ख्यातिप्राप्त पर्यावरणविद् अपनी आवाज उठायेंगे, किन्तु उनकी तटस्थता के कारण ये वैज्ञानिक विचलित हैं। इनमें से एक डाॅ. नवीन जुयाल ने तो क्षुब्ध होकर इन पर्यावरणविदों के नाम एक खुला पत्र भी जारी कर दिया है।
इस चुप्पी को क्या समझें हम?
जब हिमालय पर बेतहाशा आक्रमण हो रहे हो..जब चारधाम प्रोजेक्ट से सारा पहाड़ छलनी कर दिया जा रहा हो…जब जल विद्युत् परियोजनाओं नें तबाही मचा रखी हो, जब पर्यावरण प्रभाव आंकलन (EIA) के नए मसौदे के रूप में पहाड़ की बर्बादी की पटकथा लिखी जा रही हो, तब हे मूर्धन्य अग्रजों! आपकी चुप्पी बेहद खौफनाक है… आपकी ये ‘मासूम’ चुप्पी, “कुटिल” ज्यादा लग रही है. आप लोगों का जीवन उत्तराखंड के लिए समर्पित रहा. इसके लिए कृतज्ञ राष्ट्र नें आप लोगों को अलंकरणों से सुशोभित किया ..आप पद्मश्री से नवाजे गए, पद्मश्री के बाद आप में से कुछ को पद्मभूषण से भी अलंकृत किया गया…हिमालय की संवेदनशीलता की आप लोगों को गहरी समझ है..आपने यहाँ के पर्यावरण के लिए बहुत कार्य किया है..हम हिमालय के बारे में जो भी समझ विकसित कर पाए हैं, और उसके अनुसार जो भी लड़ाई लड़ रहे हैं, उसमें आपकी प्रेरणा ही है. मेरी समझ को यह संवेदनशील आयाम देने के लिए मैं आप सब का आभारी हूँ. आप लोगों की ख्याति उत्तराखंड ही नहीं अपितु सम्पूर्ण देश अथवा यों कहें सम्पूर्ण विश्व में है. इंडिया हैबिटाट सेंटर आपके व्याख्यानों से गुंजायमान होता रहता है.
हे मान्यवर अग्रजों! हमारे पहाड़ पर चारों ओर से हो रहे आक्रमणों में जब और तेज़ी आयी है. चारधाम परियोजना जैसे उपक्रमों से पहाड़ जर्जर कर दिया जा रहा है. EIA के प्रस्तावित नए प्रावधान से पहाड़ के विनाश की भूमिका बाँधी जा रही हो…आप सब से मेरा विनम्र निवेदन है कि आप मुखर हो जाओ…अलंकरणों की दरकार से कहीं अधिक पहाड़ को आपकी बुलंद आवाज की जरूरत है. ये धरती आपको चीख-चीख कर पुकार रही है..आप अभी भी ज़िंदा हो! इसा बात का प्रमाण दो. हम आप सब के अनुयायी आसे विनती करते हैं. “का चुप साधी रहे बलवाना”…अभी नहीं तो कभी नहीं..कहीं ऐसा ना हो कि:ये ज़ब्र भी देखा है, तारीख की नज़रों नें लम्हों ने खता की थी,सदियों ने सज़ा पायी
धन्यवाद आपका,नवीन जुयाल
डाॅ. रवि चोपड़ा के अनुसार बहुमत वाले सदस्यों द्वारा दी गई पृथक रिपोर्ट में अध्याय-2 के अतिरिक्त सब कुछ मुख्य रिपोर्ट ही है। हालांकि उनकी असहमति के विन्दुओं को पहले ही संलग्नक के रूप शामिल किया जा चुका है। उनका कहना है कि बहुमत वाले सदस्यों के सुझाव न केवल सर्वोच्च न्यायालय के अभिमत के विरुद्ध हैं, बल्कि वे हिमालय के लिये विनाशकारी भी हैं। समिति के अनुसार यह मार्ग भले ही लगभग 900 किमी. लंबा हो, पर यह एक 50 किमी. की अर्द्धव्यास के अंर्तगत है, जिसमें गंगा-यमुना व उसकी सहायक नदियों का जलागम क्षेत्र पड़ता है।
रवि चोपड़ा ने कहा है कि उन्होंने आग्रह किया था कि इस समिति के सुझाव आने तक चार धाम परियोजना का काम रोक देना चाहिये। उनकी इस संस्तुति को नहीं माना गया। परियोजना से संबंधित भूस्खलन, मलबा निस्तारण आदि महत्वपूण सूचनाएँ भी उन्हें नहीं दी र्गइं। इससे समिति के काम में जो अड़चनें आयीं और जिस तरह सरकारी सदस्यों का रुख रहा, उससे लगता है कि उनका मकसद केवल मामले में लीपापोती कर देना था। इसलिए यह सोचना लाजिमी है कि आखिर सरकारी सदस्य किसके दबाव में थे कि वे मार्च 2018 के परिपत्र के मानदंडों, वैज्ञानिक तथ्यों व मौके की सच्चाई का विरोध करने पर उतर आये। बहरहाल डाॅ. रवि चोपड़ा ने बहैसियत अध्यक्ष यह मामला सर्वोच्च न्यायालय को इस आशय से संदर्भित कर दिया है कि क्योंकि बहुमत तथ्यों से परे सुझाव दे रहा है, न्यायालय स्वयं संज्ञान लेकर निर्णय ले। यह बात भी संज्ञान में आयी है कि 12,000 करोड़ की डबल लेन वाली इस परियोजना में प्रति किमी. लागत 6 से 10 करोड़ रुपया है, जबकि 5 मीटर चैड़ाई रखने पर इसकी लागत करीब 1.5 करोड़ रुपया किमी. हो जायेगी। लगातार कटान किये गये स्थानों में भूस्खलन हो जाने के कारण कार्यरत संस्थाएँ अतिरिक्त राशि की मांग करने लगी हैं। यही नहीं चैड़ाई घटाने से 70 से 80 प्रतिशत पहाड़ों का कटान बचाया जा सकेगा। अधिक कटान होने से समय-समय पर, विशेषकर बरसात में भूस्खलनों में भारी इजाफा होगा जिससे यातायात में व्यवधान होगा। अत्यधिक भू-कटान से होने वाले भूस्खलन ने निबटने के लिए प्रतिवर्ष करोड़ रुपयों की जरूरत होगी। आशा है कि इस प्रकरण पर सर्वोच्च न्यायालय से कोई ऐतिहासिक फैसला आयेगा, जिससे पर्यावरण व विकास के संदर्भ में एक नया आयाम खुलेगा।
इसके बावजूद इस प्रकरण से उत्तराखण्ड के पर्यावरण व विकास को लेकर कई प्रश्न उपजते हैं जिनके उत्तर मिलने ही चाहिये-
1. पर्यावरणीय विषय पर अदालत-समिति की जरूरत क्यों पड़ी, जबकि संविधान व अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएँ पर्यावरण व जैव विविधता संरक्षण का आदेश देती हैं ?
2. पहाड़ों के लिए कैसे मोटर मार्ग हों, कितनी चैड़ाई हो और कैसी बनावट हो ? पहाड़ो को काटने और मलबा जमा करने की बजाय घाटी की ओर दीवारें व पुलनुमा संरचनाओं के साथ ‘कटिंग-फिलिंग’ क्यांे न हो?
3. किसी योजना के साथ सरकार की ‘महत्वाकांक्षी योजना’ शब्द जुड़ जाने से क्या पारिस्थिकीय मापदंड निरर्थक हो जाते हैं ?
4. पर्यटन के लिए प्रकृति व पर्यावरण से कितना समझौता किया जाये ?
5. क्या बहुमत वैज्ञानिक तथ्यों को नकार सकता है ?
6. पर्यटन विकास परियोजनाओं में सामाजिक व पर्यावरणीय लागत का आंकलन कैसे किया जाये ?
7. क्या पहाड़ांे में निर्माण कार्य को लेकर दोष रहित तकनीकी अभी विकसित नहीं हो पायीं है ?
8. विश्व की सबसे नयी पर्वत श्रृंखला, हिमालय, की संवेदनशीलता, जैव विविधता, के कारण यहां पर निर्माण में अतिरिक्त सावधानी नहीं होनी चाहिये ?
9. क्या पहाड़ों के विकास और आजीविका के संदर्भ का नियोजन स्थानीय पर्यावरण क्षमताओं और संवेदनशीलता के आधार पर नहीं होना चाहिये ? क्या यही प्रश्न आज उत्तराखण्ड के विकास व भविष्य की आधारशिला नहीं होने चाहिये ?
10. अंत में, पर सबसे महत्वपूर्ण यह कि क्या उत्तराखण्ड के शीर्षस्थ पर्यावरणविदों से पूछना लाजिमी नहीं हो गया है कि जिन संघर्षों ने उन्हें राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पहचान दी, उन्हीं मुद्दों पर आज उनकी चुप्पी का क्या अर्थ लगाया जाये ?