पृथ्वी ‘लक्ष्मी’ राज सिंह
पराणि की तरह ही क्या सपने भी हाइजैक किये जा सकते हैं?
क्या रेडियो टीवी की तरह कोई सीधे आपके स्वप्नों में भी प्रसारित हो सकता है?
कल रात ऐसा ही हुआ अचानक एक आवाज गूंजी : “मितरों! देश में चुनाव एक साथ होने चाहिए कि नहीं होने चाहिए!”
यह प्रश्न नहीं था अतः सोचने की जरूरत भी नहीं थी. उनके होने में अपने चाहने की हामी मात्र भरनी थी. दिव्य पुरूष “चाहिए कि नहीं चाहिए” दोहरा रहा था.
मेरा ध्यान उनके हाथ के तोते पर था. जैसे “बाकेरी आमा” की उपाधि कुल बकरियों के संख्या में नहीं, उसके शरीर में बकरियों की सुगंध के आधार पर कमाई जाती है. ऐसे ही सरकार की शिनाख्त हाथ में तोता होने से की जाती है. तोता उड़ना विशुद्ध राजनीतिक मुहावरा है.
आप हमारी सरकार जैसे शब्दों में भ्रमित होकर उसे बहुवचन मान बैठते हैं. वैसे सरकार भी शुद्ध एकवचन है.
तोता केवल पूछता है, सोचता सरकार है. सरकार के राम-राम का भले ही मरा हो जाये, तोते का मरा-मरा कभी राम नहीं हो सकता. क्योंकि वह जाप नहीं करता केवल सरकार के शब्द दोहराता है.
जनता कई बार तोते की तरह व्यवहार करती है, उसे एक बार पन्द्रह लाख की रट लग गयी तो हमेशा वही कि कब आयेंगे. सरकार सोचता है तभी एक से निकलकर दूसरी को नयी बात कहता है.
यह केवल भक्त समझता है, क्योंकि वह श्रद्धालु होता है, सरकार पर आस्था रखता है. खोटी अठन्नी भी पूरी श्रृद्धा के साथ अर्पित करता है.
कई प्रसंग हैं जब परसादी के नाम पर बाबा ने हाथ में थूक दिया. दर्शनार्थी अवाक! लेकिन भक्त ने गटक लिया.
पहले मैं भक्त को पूंछ समझता था, बाद में देखा लोग कुत्ते की पूंछ काट देते हैं फिर भी उसकी स्वामीभक्ति यथावत बनी रहती है. पूंछ तो शरीर का हिस्सा मात्र है. भक्त तो जीभ से लेकर अंत तक पूरा का पूरा पूंछ है. अपनी सरकार का तेज उसमें ठूंस-ठूंस कर भरा होता है. वह पंचर नहीं होता, लहराता है. भक्त सांप होता है.
विपक्ष नहीं सरकार कर्ता है, वही जांचकर्ता भी है. “मितरों” उसके कर्ता होने का ब्रहम वाक्य है. “भाइयो-भैंनो” मात्र जुमला.
गुजरात माडल राज्य का विषय था, सरकार केन्द्र है. उसका मनसा-वाचा-कर्मणा सब राष्ट्रीय है. उसकी नोटबंदी, जीएसटी सब राष्ट्रीय है. अब उसकी इच्छा राष्ट्रहित में “एक राष्ट्र एक चुनाव” करवाने की है तो हो जाने दो खत्म करो. गुजरात माडल की तरह राष्ट्रीय भी अंततः अंतरराष्ट्रीय होना है. भारत को विश्व गुरु बनना चाहिए कि नहीं बनना चाहिए!
सरकार जितना देश के भीतर है उतना ही बाहर भी जाता रहता है. जो देशहित है उसे मानने भर से आपका अहित टल सकता है तो मानने में क्या हर्ज है! काहे विश्व गुरू को लंगड़ी लगाते हो!
सरकार ने फिर दोहराया! उसका तोता फड़फड़ाया! सोचने के लिए पूरी उम्र पड़ी है. पहले हाथ खड़ा करने में ही भलाई है. यह विचार कर अब चूंकि मैं लेटा हुआ था, मैं आराम से टिटहरी आसन कर सकता था. मैंने हाथ-पैर दोनों हवा में खड़े कर दिये. सरकार को सुकून हुआ. तोते का शक दूर हुआ. दोनों को देखकर फिलहाल भक्त रूपी भव आसमान भी मेरे ऊपर गिरने से टला रहा.
जैसे हर राष्ट्रीय योजना में सरकार पहले दूध, दही, घी की बात करता है फिर उसमें मूत्र और गोबर मिलाकर उसकी ऐसी तैसी करता है तो करे. उसे पंचगव्य कहता है तो कहे. आखिर वही सरकार है! कर्ता है.