राजीव लोचन साह
याददाश्त ही समस्या है। अभी उस रोज हम 87 वर्षीय विश्वम्भर नाथ साह ‘सखा’ जी का इंटरव्यू कर रहे थे। उन्हें दूसरे महायुद्ध और देश की आजादी के दिन की घटनायें इस तरह से याद हैं, मानो कल ही घटी हों। यहाँ 70 साल में ही दिमाग की स्लेट धुल-पुँछ गई है। आदमी की इसी कमजोर याददाश्त का फायदा उठा कर शातिर राजनीतिबाज़ प्राचीन ही नहीं, आधुनिक इतिहास तक बदल देने की जुर्रत कर रहे हैं। हमें बतलाया जा रहा है कि जवाहरलाल नेहरू के दादा मुसलमान थे, जो गयासुद्दीन से धर्मान्तरण करके नेहरू हो गये थे और हम स्कूल में पढ़ा सारा इतिहास भूल कर इस झूठ पर विश्वास कर ले रहे हैं।
इसी कमजोर याददाश्त के कारण महज बारह महीने, बावन हफ्ते और 366 दिन का यह छोटा सा साल भी धुँधला सा गया है। कुछ ही घटनायें याद आ रही हैं, जो धुँधलके को चीर कर साफ-साफ दिखलाई दे रही हैं। इतना तो स्पष्ट दिख रहा है कि 2020 का साल सी.ए.ए. (नागरिकता संशोधन कानून) के खिलाफ देशव्यापी आन्दोलन के साथ शुरू हुआ था और अभूतपूर्व ऐतिहासिक किसान आन्दोलन के साथ खत्म हो रहा है। जब यह साल शुरू हो रहा था, तब दिल्ली के शाहीन बाग में धरने पर बैठी औरतें पूरी दुनिया की आँखों में चमक रही थी। इस धरने के कारण 82 वर्षीय बिलकीस बानो को ‘टाईम’ पत्रिका ने दुनिया के सौ सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक माना था और वर्ष 2020 जिस किसान आन्दोलन के साथ खत्म हो रहा है, उसे अमेरिका की ‘स्लेट’ पत्रिका ने ‘मानव इतिहास का सबसे बड़ा विरोध प्रदर्शन’ करार दिया है।
सी.ए.ए. (नागरिकता संशोधन कानून) के विरोध में लगभग पूरे देश में बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए थे, क्योंकि एक अच्छे-भले नागरिकता कानून को अकारण बदल कर नया कानून लाने और उसे नागरिकता रजिस्टर तक ले जाने के पीछे मौजूदा केन्द्र सरकार की विभाजनकारी नीयत को लोग भली भाँति समझ रहे थे। लेकिन पूरे देश से सिमटते-सिमटते आखिरकार यह आन्दोलन शाहीन बाग में अटका, जहाँ से वह कोरोना की वैश्विक महामारी के बाद ही उठा। शाहीन बाग के इस अद्भुत धरने के साथ अनेक घटनाओं के घटित होने की याद आ रही है। मसलन जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों की पुलिस द्वारा निर्मम पिटाई, जिसकी देश-दुनिया में खूब थू-थू हुई। इसी के साथ फरवरी के महीने में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की भारत यात्रा। दरअसल यह भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर मोदी की एक वर्ष पूर्व की गई अमेरिका यात्रा का जवाब थी। 2019 में मोदी जी अमेरिका में ‘हाऊडी मोदी’ नामक एक रैली कर के आये थे, जिसे अनेक राजनीतिक विश्लेषकों ने ट्रम्प के चुनाव प्रचार के रूप में देखा था।
एक राष्ट्र के प्रमुख का दूसरे देश के चुनाव में टाँग फँसाने का यह एक दुर्लभ उदाहरण था। भारत के राजनयिकों को यह साबित करने में एड़ी से चोटी तक का जोर लगा देना पड़ा कि नहीं, यह कार्यक्रम ट्रम्प के चुनाव अभियान का हिस्सा नहीं था। मगर बहुत ही कम लोग इस स्पष्टीकरण से संतुष्ट हो पाये। छः महीने बाद ट्रम्प साहब मोदी का एहसान चुकाने के लिये ‘नमस्ते ट्रम्प’ नामक कार्यक्रम में अहमदाबाद की यात्रा पर आये। ट्रम्प और मोदी की यह ऐतिहासिक मैत्री बाद में बिखरती दिखी जब वैश्विक महामारी फैलने के बाद अमेरिका द्वारा भारत से हाइड्रोक्सी क्लोरोक्विन दवाई की माँग की गई और भारत द्वारा आनाकानी करने पर ट्रम्प द्वारा भारत को अच्छी खासी लताड़ लगाई गई।
बाद में तो ट्रम्प ने भारत को दुनिया के सबसे गन्दे देशों में से एक करार दिया, मगर तब तक उनका अपना भविष्य ही अनिश्चित हो गया था। अब जबकि डोनाल्ड ट्रम्प गद्दी न छोड़ने की अपनी हास्यास्पद जिद के बावजूद इतिहास के कूड़ेदान में फेंके जा चुके हैं, यह तय है कि मोदी जी को अमेरिका के नव निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन का विश्वास जीतने के लिये अतिरिक्त प्रयास करने होंगे।
फरवरी के महीने में दिल्ली विधानसभा के चुनाव सम्पन्न हुए, जिसमें एक बार फिर अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी सत्ता में आ गई और यह महीना खत्म होते न होते दिल्ली साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस गया। दरअसल इस घटना को साम्प्रदायिक दंगा कहना गलत होगा, यह 2002 में गुजरात में हुए नरसंहार का एक छोटा सा रूप था। सी.ए.ए. के विरोध में चले आन्दोलन और दिल्ली उप चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी के नेताओं तथा मुख्यधारा के मीडिया, विशेषकर टी.वी. चैनलों (जिसे सत्ता की गोद में खेलने के कारण अब ‘गोदी मीडिया’ कहा जाने लगा है), ने समाज में इतना जहर घोल दिया था कि उसे किसी न किसी रूप में बाहर आना ही था। मगर इस दंगे का सबसे चिन्ताजनक पक्ष रहा पुलिस का हत्यारों के साथ खड़ा होना और पुलिस की कार्यप्रणाली पर कड़ा रुख अपनाने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति मुरलीधर का रातोंरात स्थानान्तरण हो जाना।
इस वक्त तक चीन के वुहान शहर से शुरू हुई कोरोना की महामारी दुनिया भर में आतंक मचाने लगी थी। राष्ट्रपति ट्रम्प के लिये पलक पाँवड़े बिछाने में व्यस्त प्रधानमंत्री मोदी की तन्द्रा थोड़ा विलम्ब से टूटी और कोरोना की बीमारी का संक्रमण रोकने के लिये उन्होंने 22 मार्च को 14 घंटे का ‘जनता कफ्र्यू’ घोषित कर दिया। प्रधानमंत्री के आह्वान पर कोरोना भगाने के लिये करोड़ों देशवासियों ने उस शाम जोर-जोर से घंटे-घड़ियाल बजाये। 24 मार्च को प्रधानमंत्री ने एक बार फिर देशवासियों से मुखातिब होते हुए देश में 21 दिन का लाॅकडाउन घोषित किया। पूरे देश में सब कुछ ठहर गया। नागरिकों को इस लाॅकडाउन की तैयारी करने के लिये महज कुछ ही घंटे मिले, जिसका परिणाम हुआ बेरोजगारी, अभाव, दुःख और कष्ट। पूरा देश घरों में कैद होकर रह गया और करोड़ों लोग, जो परदेश में रोजगार कमा रहे थे, अपने घरों को वापस लौटने को मजबूर हुए। बस-ट्रेन सब कुछ बन्द होने के कारण इन मेहनतकशों, जिन्हें न जाने क्यों ‘प्रवासी मजदूर’ कहा गया, की सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा एक मार्मिक आख्यान है, जिसमें मनुष्य का साहस, संघर्ष और जिजीविषा घुले-मिले हैं।
देश की सरकार ने इन प्रवासी मजदूरों के कष्टों को पूरी तरह नजरअंदाज किया, गोदी मीडिया ने उनका मजाक उड़ाया, मगर हर संवेदनशील व्यक्ति के जेहन में उनकी यातना और उनके हौसले की स्मृति अमिट रूप से अंकित हो गयी। इस दौर में एक थोड़े से वक्फे के लिये पुलिस और प्रशासन के मानवीय चेहरे की भी झलक दिखाई दी, जब प्रवासी मजदूरों की पिटाई करने वाली पुलिस ने गरीबी में जकड़े लोगों को भूखे न मरने देने के लिये राशन तक बाँटा। मगर जल्दी ही उसका लूट-खसोट वाला चरित्र लौट आया। लाॅकडाउन के इस दौर में सरकार और गोदी मीडिया द्वारा तबलीगी जमात कोे कोरोना फैलाने के लिये खूब कोसा गया और अनेक जमातियों को जेल में बन्द कर दिया गया। बाद के महीनों में अदालतों ने इन लोगों को बाइज्जत बरी किया और पुलिस तथा गोदी मीडिया को इस गैरजिम्मेदाराना काम के लिये बुरी तरह लताड़ लगाईे।
यह कोरोना की वैश्विक महामारी अपने आप में अबूझ है। दुनिया में हर रोज डेढ़ लाख लोग मरते ही हैं, जिनमें अठारह हजार के लगभग श्वसन प्रणाली के रोगों, जो कोरोना रोग की मुख्य पहचान है, से मरने वाले होते हैं। यानी एक सामान्य वर्ष में लगभग साढ़े पाँच करोड़ लोग विभिन्न कारणों व रोगों से मरते हैं और लगभग पैंसठ लाख लोग साँस की बीमारी से। वैश्विक महामारी के इस एक साल में अब तक यदि सोलह लाख लोग कोरोना से मरे हों तो बड़ी बात नहीं लगती, खासकर अन्य घातक बीमारियों से मरने वाले उन लोगों को भी यदि कोरोना के खाते में जोड़ दिया जाये, जो कोरोना से संक्रमित पाये गये। ऐसे में कोरोना को वैश्विक महामारी बताने के आगे एक सवाल खड़ा हो जाता है। मगर यह भी उतना ही सही है कि कई बार इस बीमारी से अनेक बूढ़े, बीमार और अशक्त लोग तो उबर जा रहे हैं, मगर अच्छे, भले-तगड़े लोग जान गँवा रहे हैं। फिर भी बेहद कमजोर स्वास्थ्य सुविधायें रहने के बावजूद पश्चिमी देशों की तुलना में भारत और पौर्वात्य जगत में कोरोना का कहर कम रहा। अत्यन्त गरीबी और गन्दगी के हालातों में रहने से उत्पन्न रोग प्रतिरोधक क्षमता और भोजन में विभिन्न मसालों का उपयोग इस राहत का कारण हो सकता है। बहरहाल 2021 का साल आते-आते एक उम्मीद बन रही है कि मानव जाति का विनाश अब रुक जायेगा, क्योंकि इस महामारी की रोकथाम का टीका लगभग तैयार है।
हालाँकि अनेक संशयात्माओं का विश्वास है कि महामारी नहीं, यह आतंक फैला कर वैक्सीन के नाम पर व्यापार बढ़ाने का दवा कम्पनियों का जबर्दस्त षड़यंत्र है, जैसे पीने के पानी के प्रदूषित होने का आतंक फैला कर अरबों रुपये के बोतलबन्द पानी का व्यापार स्थापित कर दिया गया या कि घेंघा रोग का डर दिखा कर खाने के नमक में आयोडीन मिला कर उसकी कीमत कई गुना बढ़ा दी गई। मगर कोरोना ने एक उपकार तो किया, वह यह कि दुनिया भर में हुए लाॅकडाउन से प्रकृति और पर्यावरण की दशा में तो इतना सुधार आया, जितना इससे पहले खरबों रुपये खर्च करके भी नहीं आ पाया था। अब मानव जाति इससे कुछ सबक सीखेगी और आगे तथाकथित विकास का रास्ता क्या कुछ बदलेगा, यह देखने की बात है।
लगभग अढ़ाई महीने के लाॅकडाउन के बाद जून के महीने से अनलाॅक की प्रक्रिया शुरू हो गई। तब तक अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई थी। करोड़ों लोग बेरोजगार हो चुके थे और करोड़ों अन्य गरीबी की रेखा के नीचे जा चुके थे। छः महीने बाद भी कोरोना अभी नियंत्रित तो नहीे हुआ है, इसके उलट उत्तराखंड जैसे कुछ इलाकों में वह बढ़ता ही दिख रहा है, मगर लोगों ने डर के साथ जीना सीख लिया है। अब उद्योग-व्यापार जगत भी कुछ खुल कर साँस ले रहा है, हालाँकि एक साल पूर्व की स्थिति में आने में अर्थव्यवस्था को अभी तीन साल और लगेंगे।
इसी बीच मई माह में देश की उत्तरी सीमा पर चीन के साथ तनातनी शुरू हो गई। अस्पष्ट सीमाओं वाले इस क्षेत्र में चीन अपनी राजनैतिक जरूरतों के अनुसार जब-तब तनाव बढ़ाता रहता है। इस बार भी उसने भारत की सीमा में घुस कर हमारे बीस जवानों की नृशंसतापूर्वक हत्या कर डाली। मगर पाकिस्तान के सामने हमेशा कड़ा रुख अपनाने वाली हमारी सरकार चीन के सामने तन कर खड़ी भी नहीं हो सकी। प्रधानमंत्री मोदी ने तो यहाँ तक कह दिया कि चीन ने सीमा का अतिक्रमण नहीं किया। अगर चीन ने अतिक्रमण नहीं किया था तो क्या हमारी सेना ने चीन में घुसपैठ की थी ? चीन का हमारी अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा दखल है, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि हम चीन के सामने घुटने टेक दें।
2020 के इन अन्तिम महीनों को गौर से देखें तो बिहार विधानसभा का चुनाव याद आता है, जहाँ भ्रष्टाचार के लिये दंडित लालू प्रसाद यादव के बेटे और राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने पाँच बार के मुख्यमंत्री रहे नीतिश कुमार और भाजपा के गठबंधन के होश उड़ा दिये थे, लेकिन अन्ततः उन्हें विपक्ष में ही बैठना पड़ा।
और साल खत्म हो रहा है उस किसान आन्दोलन के साथ, जिसका जिक्र हमने शुरू में किया था। आपदा को अवसर मानने वाले भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सितम्बर के महीने में बेहद जल्दबाजी में, तमाम विरोध को दरकिनार करते हुए तीन कृषि कानूनों को पारित करवा दिया। देश भर, विशेषकर कृषिप्रधान पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान इन कानूनों को खत्म करने की माँग पर उसी वक्त से आन्दोलित हो गये थे और विभिन्न चरणों से गुजरता यह आन्दोलन अब राजधानी दिल्ली तक पहुँच गया है। जिद में पड़ी केन्द्र सरकार का रुख इस मामले में बेहद बचकाना है। उसका कहना है कि ये कानून किसानों की भलाई के लिये हैं, मानो किसान इतने भोले हों कि अपना भला-बुरा समझते ही न हों। पुलिस की लाठियाँ खाते, पानी की फुहारें झेलते और खुदी हुई सड़कें पार करते राजधानी को घेरे बैठे लाखों किसान अब बेहद कष्टकारी ठण्डे मौसम के साथ सत्ता की कुटिल कोशिशों का भी मुकाबला कर रहे हैं। लगभग दो दर्जन किसान अब तक शहीद हो चुके हैं।
इन प्रमुख घटनाओं के साथ अनेक अन्य घटनायें भी घटी होंगी, मगर धुँधलायी हुई याददाश्त के भीतर से कुछ ही याद आ रही हैं। मसलन, महिलाओं पर अत्याचार की बढ़ती हुई घटनायें, विशेषकर पड़ौसी राज्य उत्तर प्रदेश में, जहाँ हाथरस के गैंगरेप और हत्या के एक बहुचर्चित केस में तो पुलिस भी बेशर्मी से अपराधियों के साथ खड़ी हो गई थी। सुप्रसिद्ध वकील प्रशान्त भूषण, जिनके द्वारा अतीत में उजागर किये गये अनेक घोटालों की सीढ़ी चढ़ कर भाजपा सरकार सत्तानशीं हुई थी, पर चला अदालत की अवमानना का प्रकरण भी याद आ रहा है, जिसमें न्यायपालिका ने अपने हाथों अपनी किरकिरी करवाई। अपने उत्तराखंड की क्या कहें, जहाँ डबल इंजन वाली सरकार ने इस एक साल में अकर्मण्यता के सारे कीर्तिमान तोड़ डाले हैं। तो 2020 का यह साल अब जा रहा है। हमारी कामना है कि वर्ष 2021 में इस वैश्विक महामारी से दुनिया को मुक्ति मिले और देश के भीतर हम थोड़ा ज्यादा अमन और चैन के साथ रह सकें।
नये साल के लिये हमारे सभी पाठकों और शुभ चिन्तकों को शुभकामनायें।
राजीव लोचन साह 15 अगस्त 1977 को हरीश पन्त और पवन राकेश के साथ ‘नैनीताल समाचार’ का प्रकाशन शुरू करने के बाद 42 साल से अनवरत् उसका सम्पादन कर रहे हैं। इतने ही लम्बे समय से उत्तराखंड के जनान्दोलनों में भी सक्रिय हैं।