केशव भटृ
बागेश्वर जिले के खर्कटम्टा गांव में कभी तांबे से बनने वाले बर्तनों की टन्न..टन्न की गूंज दूर घाटियों में सुनाई पड़ती थी, लेकिन वक्त की मार के चलते ये धुने अब कम ही सुनाई देती हैं. हांलाकि, आजादी से पहले की ताम्र शिल्प की इस अद्भुत कला को अब मजबूरी में इस गांव में तीन परिवार आज तक भी संजोए हुए हैं. लेकिन ताम्र शिल्प की उपेक्षा से ये कलाकार बहुत आहत हैं. रही बची कसर कोरोना काल के लॉकडाउन ने पूरी कर दी है.
देवलधार स्टेट के नाम से मशहूर जगह के पास ही है खर्कटम्टा गांव. मित्र जगदीश उपाध्याय ने एक बार बताया कि यहां कुछेक परिवार तांबे के बर्तन बनाने का काम करते हैं. जगदीश ने वहां के शिल्प कारीगर सुंदर लाल का नंबर दिया तो मैंने उनसे बात की. सुंदरजी से बातचीत में पता चला कि अब तो काम काफी कम है, गांव में अब तीन ही परिवार इस काम को करते हैं, उप्पर से लॉकडाउन ने रही बची कसर पूरी कर दी है. फोन में बातें करते हुए वो उदास से महसूस हो रहे थे. मौसम ठीक होने पर मैंने गांव में आने की बात कही. चारेक दिन बाद उन्हें फोन कर आने के बावत् पूछा तो उन्होंने बताया कि अभी उनका सांथी मजदूरी में गया है दो दिन बाद आएगा तो हमारा आना ठीक रहेगा. दो दिन बाद सुबह उनका फोन आया, ‘साबजी आज आ जाओ.. सांथी आ गया है..’ उस दिन मैंने असमर्थता जताई तो मायूस हो वो बोले कि उनका सांथी सागर आज का अपना काम छोड़कर आया है, तो मैंने उन्हें दोपहर तक गांव पहुंचने का वादा किया. दोएक घंटे में काम निपटाने के बाद खर्कटम्टा गांव का रूख किया. पौड़ीधार से आगे पाटली पहुंचने के बाद सुंदरजी से फोन पर गांव के रास्ते बावत् पूछा और पाटली से खर्कटम्टा गांव की मीठी पैदल चढ़ाई नापनी शुरू कर दी. इस गांव के ग्रामप्रधान मनोज कुमार भी हमारे सांथ हो लिए. खेतों के किनारे के रास्ते में देखा तो धान की फसल खराब हो चुकी थी. एक तो कोविड काल और उप्पर से किसानों की मेहनत में प्रकृति की ये मार.
गांव की गलियों को पार किया तो पेड़ों के झुरमुट में आंगन में चारेक कुर्सियां लगी कुछेक लोगों को इंतजार करते पाया तो अनुमान लगाया कि यही सुंदरजी होंगे. तब तक पसीने से तरबतर हो प्रधानजी भी पहुंच चुके थे. पेड़ों की छांव में चारेक कुर्सियां लगाई गई थी. सुंदरजी और अन्यों से अभिवादन के बाद कुर्सियों में बैठे तो सुंदरजी आंगन के किनारे में बैठने लगे तो उन्हें भी कुर्सी में बैठने की गुजारिश की तो सकुचाते हुए वो कुर्सी में समा गए. तभी एक बालक ट्रै में कोल्ड डिंक के सांथ ही कुछेक गिलास ले आया तो सुंदरजी ने हमसे इसे लेने का आग्रह किया.
अनमना सा हो मैंने उन्हें पानी पीने की ईच्छा जताई तो कुछेक पल उन्होंने हैरान हो नजरों ही नजरों में आपस में बात की और पानी का लोटा ले आए. थोड़ा सा पानी गिलास में डाला तो मैं इंतजार करते रहा कि कब ये गिलास को पूरा भरें. थोड़ा पानी डालने का उनका आशय समझ मैंने लोटा पकड़ा और गिलास भरकर दो बार पानी पी उन्हें आश्वस्त कराया कि मैं भी हाड़—मांस का बना उन्हीं की तरह ही इस धरती का इंसान हूं.
मैं बैठा तो उनके सांथ था लेकिन मन कहीं पीछे चला गया था. बचपन में सिर के बालों की छटनी के बाद पीछे की ओर कुछेक बालों के गुच्छे को छोड़ दिया जाता था, जिसे चुटिया नाम दिया गया. हर बार वो बढ़ते चले जाते तो उस गुच्छे में गांठ लगाने की कोशिश की जाती थी, जो कभी सफल नहीं हो पाती थी. सांथियों के सांथ ही मास्टरजी के लिए यह एक अमोघ अस्त्र होती थी जिसे खींचकर जिंदा मां—बाप के सांथ ही धरती से गायब हो चुके आमा—बूबू के भी साक्षात दर्शन स्कूल में ही हो जाते थे. इस पर दु:खी हो मैं खुद ही चुपचाप उस शैतानी झुरमुट को दराती से काट कर छोटा कर लिया करता था. बाद में चप्पल के सांथ दोएक मुक्के की धमक भी पीठ में पड़ती थी, लेकिन मैं अपनी आदत से बाज नहीं आता था. बचपन में हरएक वो काम करने में मजा आता था जिसके लिए सख्त मनाही होती थी. ये सिलसिला वर्षों तक चलते रहा. एक बार बगावत कर डाली और बमुश्किल इससे मैं मुक्त हुवा तो असीम शांति मिली.
मन के भटकाव से वापस लौटा और मैंने सुंदरजी को समझाया कि, हम पर्वतारोही हैं और पर्वतारोहियों का कोई धर्म—जात—पात नहीं होता, हमारा धर्म तो सिर्फ इंसानियत का ही होता है. मेरी बातों से वो थोड़ा सहज हुए. सुंदरजी से बातों का दौर चला तो वो अपनी पुरानी यादों में खोते चले गए. परिवार के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि, ‘बेटियों की शांदी हो गई, कुछेक साल पहले एकलौता बेटा भी दुनियां छोड़ उन्हें अकेला कर गया..’
मैंने तांबे के उनके पुश्तैनी ईतिहास के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि, ‘तांबे से बर्तन बनाने का काम तो उनकी पुश्तों में आजादी से पहले से ही होता आ रहा है. पहले तांबे का काम हर घर में होता था. कई बार हम कुछेक सांथी कारीगर गांव—गांव जाकर तांबे के पुराने बर्तनों की भी मरम्मत को चले जाते थे. गांव—घरों में टूटे गागर, तौले हम ठीक कर देते तो उन्हें भी राहत मिलती और नई डिमांड भी मिल जाती थी. हमारी आजीविका भी चलती रहती थी. बाद में धीरे—धीरे युवा पीढ़ी बाहर नौकरी में लगे तो यह काम कम होते चला गया. अब गांव में सिर्फ सागर, नंदन प्रसाद और मुझे मिलाकर तीन परिवार ही इस काम को कर अपनी आजीविका जुटाने में लगे हैं. लॉकडाउन के बाद से अब ये काम भी ठप्प पड़ गया है.
अब सभी लोग मजदूरी कर परिवार का भरण—पोषण करने में जुटे पड़े हैं. सरकारें आती—जाती रहती हैं, हां! हमारे काम में मदद करने की बात पर आश्वासन जरूर देती रहती हैं, लेकिन किया किसी ने कुछ भी नहीं. हमारे क्षेत्र के नेता तो विधायक, सांसद भी रहे.. वोट के वक्त इन्हें भाई—भतीजावाद याद आ जाने वाला ठैरा.. जीतने के बाद ये फिर कभी दिखने ही वाले नहीं हुए..’
सुंदरजी ने अपने सांथी सागर को कारखाने में आग जलाने को कहा और हमें लेकर अपने कारखाना भट्टी में गए. भट्टी दहकने लगी तो उन्होंने चिमटे से तांबे के अधबने हुड़के को आग की लौ में तपाना शुरू कर दिया. हुड़का लाल हुवा तो उन्होंने उसे अपने औजारों से कलात्मक ढंग से हुड़के की शक्ल में ढालना शुरू कर दिया. ठंडा करने के बाद उसे जब साफ किया तो तांबे की सुनहरे चमक में वो हुड़का दमक उठा.
मैं उनके काम को देख सोचने लगा, आग में तपने के बाद तांबे को कुशल कारीगरों के हाथ जब लगते हैं तो वो हर रोज की दिनचर्या में काम आने वाले नाना प्रकार के बर्तनों में ढलते चले जाते हैं.तांबे की प्लेट से किस तरह से नाना प्रकार के बर्तन बनते हैं उन्होंने हमें इस बारे में बताया. उनसे बातों में मालूम हुवा कि, खर्कटम्टा गांव को ताम्र शिल्पियों के गांव के नाम से जाना जाता है. आजादी से पहले खर्कटम्टा समेत जोशीगांव, देवलधार, टम्टयूड़ा, बिलौना आदि गांवों में ताम्र शिल्पी, तांबे से परम्परागत तरीके के उपयोगी बर्तन गागर, तौले, वाटर फिल्टर के सांथ ही पूजा, धार्मिक अनुष्ठान एवं वाद्य यन्त्र, तुरही, रणसिंघी बनाते थे.
इस काम में महिलाएं भी उनकी मदद किया करती थी. तब ताम्र शिल्प उनका परम्परागत उद्यम माना जाता था. आजादी के बाद यह उद्यम काफी फैला भी और अपने औजारों को सांथ लेकर शिल्पी भी गांव—गांव जाकर लोगों के तांबे के पुराने बर्तनों की मरम्मत किया करते थे. तांबे व पीतल को जोड़कर बने गंगा जमुनी उत्पाद और पात्रों के विभिन्न हिस्सों को गर्म कर व पीटकर जोड़ने की तकनीक इस शिल्प व शिल्पियों की खासियत होती है.
सुंदर लाल के सांथी सागर चन्द्र का कहना था कि अब गिने-चुने कारीगर ही विपरीत परिस्थितियों में भी अपने इस पैतृक व्यवसाय को जीवित रखे हुए हैं. वो बताते हैं कि तांबे से वो गागर, तौला, फिल्टर, परात, सुरई, फौला, वाद्ययंत्र रणसिंह, तुतरी, ढोल, मंदिर की सामग्री व शो-पीस आदि बनाते हैं जो कि अत्यंत शुद्ध माने जाते हैं. हांलाकि घरेलू ताम्र शिल्पियों की आजीविका पर मशीनी प्लांटों में बन रहे सामान से भी असर पड़ा तो है लेकिन अभी भी लोग हाथ से बनाए तांबे के बर्तनों को ही ज्यादा तव्वजो देते हैं.
पुराने दिनों को याद कर सुंदरजी बताते हैं कि, ‘हम तीनों ने बीस साल तक रामनगर में कई बनियों के वहां काम किया. तांबे के बर्तनों की बहुत मांग होती थी. तब नेपाल समेत बड़े महानगरों में भी काफी सामान जाता था. बाद में हम अपने गांव में वापस चले आए. यहां भी हम मिलकर काम करते थे और पचास से साठ हजार रूपयों तक की बिक्री हो जाती थी. अब काम कम हो गया है. नई पीढ़ी का झुकाव मशीनों से बनी चीजों की ओर ज्यादा होने लगा है. जबकि हाथ से बने तांबे के बर्तन काफी मजबूत और शुद्वता लिए होते हैं.’
गौलाआगर में प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक के पद पर तैनात खर्कटम्टा क्षेत्र के निवासी अध्यापक संजय कुमार बताते हैं कि, चन्द्रवंशीय राजाओं के जमाने में उनके पूर्वज भी तांबे के सिक्कों को ढ़ालने का काम किया करते थे.
ताम्र व्यवसाय को उसकी पहचान दिलाने के लिए केंद्र सरकार ने एससीएसटी हब योजना बनाई है ताकि ताम्र शिल्पियों को इसका फायदा मिल सके. इस योजना के तहत हस्तनिर्मित तांबे से बने पूजा पात्रों को चारधाम में बेचे जाने की योजना है. अब ये अलग बात है कि इस योजना से स्थानीय शिल्पियों को रोजगार मिलेगा या फिर ये काम भी मशीनों के हवाले कर दिया जाएगा.
शिल्प कारीगर सुंदर लाल और उनके सांथियों को उनकी शिल्पकला के लिए पूर्व में उत्तराखंड सरकार के सांथ ही उद्योग विभाग से भी सम्मानित तो किया गया लेकिन उसके बाद उनकी किसी ने भी सुध नहीं ली. उम्र के इस पड़ाव में भी वो आजीविका के लिए तांबे में अपना हुनर निखारने में लगे ही रहते हैं. उन्हें बस मलाल इस बात का है कि उनकी ये कला उनके सांथ ही लुप्त होने जा रही है. जबकि वो कई बार विभाग से कह चुके हैं कि वो मुफत में अपनी जमीन देने को तैंयार हैं बशर्तें सरकार यहां शिल्प ट्रैनिंग सेंटर तो खोल दे.