विनोद पांडे
कई सालों से नैनीताल के सौंदर्यीकरण के नाम विचित्र हरकतें की जा रही हैं। जिनमें भारी-भरकम रैंलिंग, विचित्र किस्म के भित्ति चित्र सरीखी कलाकृतियां, शिलालेखों की तरह बहुत मंहगी संरचनाऐं, विचित्र किस्म की ऊँची लाइटें, बाजारों में मंहगे पथ्थरों की दीवारें, मंहगे पथ्थर के खड़ंचे आदि हैं। इनका ऐसा क्या महत्व है कि इनके लिए बजट कभी आड़े नहीं आता। सूखाताल जो नैनीताल के भूमिगत जल का महत्वपूर्ण स्रोत है कंक्रीटयुक्त होकर इसी सौंदर्यीकरण की भेंट चढ़ चुका है। इसी सिलसिले में सातताल के हनुमान ताल को पहले पूरा कंक्रीट का बना दिया गया था। सरकार और कमिश्नर, डी.एम. बदलते हैं पर ये कार्यक्रम अनवरत रूप से जारी रहते हैं।
अब अखबार में खबर छपी है कि नैनीताल के डांठ में करीब 50 से अधिक वर्ष से स्थापित गांधी जी की मूर्ति को हटाया जा रहा है। इसे हटाने के लिए शायद शहर के कुछ “गणमान्य” लोगों की जिलाधिकारी के साथ बैठक में सहमति बना ली गई है। इसलिए इसे जरूरत और वैधता का चोला भी पहना दिया गया है। गांधी को डम्प करने के लिए दशकों से उपेक्षित ताकुला गांधी आश्रम का विकल्प भी ढंूढ लिया गया है। इससे प्रशासन को यह भी दर्शाने का मौका मिल गया कि उनके लिए ताकुला कितना महत्वपूर्ण है। एक तीर से कई शिकार किये जा रहे हैं। गांधी कईयों की आंख में खटकते हैं, पर्यटकों को सैल्फी के लिए खूब जगह मिलेगी, सड़क की चैड़ाई बढ़ जायेगी, धरने की जगह खत्म हो जायेगी आदि अनेकों ख्वाहिशें पूरी हो जायेंगी।
गांधी की मूर्ति डांठ में लगाने पीछे क्या कारण था पता नहीं है। लेकिन सन् 1971 में जब यहां पर मूर्ति का अनावरण के.सी. पंत जी द्वारा किया जा रहा था तो तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष महेन्द्र सिंह पाल को उस मंच से कुमाऊँ विश्वविद्यालय की मांग नहीं उठाने दी। इसके विरोध में उन्होंने उसी समय उसी स्थान पर एक आम सभा की और घोषणा की कि जब तक कुमाऊँ विश्वविद्यालय नहीं बनेगा छात्रों का आंदोलन जारी रहेगा। उस समय कुमाऊँ विश्वविद्यालय पहाड़ों के विकास के लिए जरूरी माध्यम समझा गया था। सन् 1972 में इस आंदोलन ने गति पकड़ी और 1973 में वार्षिक परीक्षाओं का बहिष्कार किया और 1973 में विश्वविद्यालय हासिल हुआ। तब से ये जगह हर एक आंदोलनों के लिए एक अड्डा बन गयी। यह स्थान तब से अनगिनत आंदोलनों के धरना-प्रदर्शन आमसभाओं का यह गवाह रहा है। इस तरह यह नैनीताल के आंदोलनों की यादों की एक विरासत बन गया है। यह नैनीताल का एक लैंड मार्क जैसा भी है।
इसके बगल में अभी कुछ सालों तक एक नैनीताल का नक्शा हुआ करता था जिसमें नैनीताल के बारे में बहुत सी जानकारियों के अलावा सालाना बरसात का रिकाॅर्ड भी रहता था। यह नक्शा और उसकी जानकारियां स्थानीय निवासियों व पर्यटकों के लिए महत्वपूर्ण होती थी। उसकी जगह में अब एक बंकर का चित्र लगा दिया गया है। उस नक्शे को हटाने और बंकर का चित्र लगाने के पीछे बजट के अलावा और कोई कारण नजर नहीं आता है। प्रशासन की गिद्ध दृष्टि अब नैनीताल के ऐतिहासिक डाकघर पर भी पड़ चुकी है। नैनीताल के दशकों पुराने बस स्टेशन को ध्वस्त कर उसकी जगह में दुकाननुमा ढांचे बना दिये गये हैं। वैसे अब नैनीताल में सबसे अधिक रेस्टोरेंट ही बन रहें हैं, यहां पर पता नहीं क्या खुलेगा। उस स्टेशन का कैंटीलेवर एक बेहतरीन इंजीनियरिंग का नमूना था। अब नैनीताल जगह-जगह विकृत करने की कई हरकतों का गवाह बनता जा रहा है। प्रकृति नैनीताल का श्रंगार है, कृत्रिमता उसे केवल नष्ट-भ्रष्ट कर सकती है। अब इस नयी श्रंखला में गांधी की भेंट चढ़ रही है।
सांत्वना देने के लिए कहा जा रहा है कि नैनीताल में “कहीं” पर गांधी की चरखा कातते हुए मूर्ति स्थापित की जायेगी। क्यों? पता नहीं। गांधी वैसे भी मूर्ति में सीमित करने की चीज नहीं है। वे दिल में बैठाने की चीज हैं जिसे श्रद्धा है माने, जिसे नहीं है उससे कुछ अपेक्षा नहीं है। गांधी को सम्मान की जरूरत नहीं है। गांधी को आप खुद को बेहतर बनाने के लिए उपयोग कर सकते हैं, अगर चाहें। खारिज कर सकते हैं अगर आप चाहें। उन्हें न थोपा जाय न अपमानित किया जाय।
दिशाहीन प्रशासन से आप किसी प्रकार के तार्किक स्पष्टीकरण की आशा नहीं कर सकते हैं। ऐसा करने के प्रयास में हम एक बार सूखाताल के कृत्रिमीकरण पर बैठक बुलाकर मुंह की खा चुके हैं। इसलिए परिस्थितिजन्म तथ्यों के आधार पर कह सकते हैं कि ये दो प्रयासों का संगम है- पहला, यह बजट का बहुत बड़ा खेल का हिस्सा है, क्योंकि ये सभी काम विशिष्ट (खर्चीली) तकनीक के हैं अतः इनका बजट कल्पना से भी कहीं अधिक होता है। दूसरा नैनीताल में पर्यटन को अंधाधंुध तरीके से बढ़ाना है। इसलिए पर्यटन को “आकृष्ट” करने के नाम पर ऐसे तर्कहीन कामों को न्यायोचित ठहराने का आधार मिल जाता है। हालांकि इस तर्क को केवल एक वाक्य में खारिज किया जा सकता है कि आपको नैनीताल में किस माॅडल का पर्यटन चाििहये? प्रकृति ने नैनीताल को भरपूर नवाजा है। उसे पहचानने के लिए न केवल नजरें बल्कि नीयत चाहिये। इस नीयत में बजट मोतियाबिंद का काम करता है।
ऐसा लगता है कि सड़क चैड़ीकरण नैनीताल की सारी समस्याओं का हल हो। हर खुली जगह को पार्किंग में बदलने की मुहिम देखकर लगता है जैसे यह सबसे बड़ा राष्ट्रीय कार्य हो। यहां का पर्यटन अब “अति” की श्रेणी में जा चुका है। सरकार व प्रशासन की दिशाहीनता के कारण यह बात महत्वपूर्ण हो चुकी है कि नैनीताल में पर्यटन का माॅडल क्या हो? नैनीताल जैसी प्राकृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण जगहों में संवेदनशील पर्यटन की जरूरत है। जिसमें प्रदूषण कतई स्वीकार्य नहीं हो सकता है। यहां मोटर कार आधारित पर्यटन भले ही अल्पकालिक रूप में संख्यात्मक वृद्धि कर दे पर गुणात्मक रूप में यह निम्नश्रेणी का पर्यटन होते जा रहा है। नैनीताल में आज प्रदूषण मुख्यतः वाहनजन्य प्रदूषण है जो यहां की जैवविविधता को बुरी तरह बर्बाद कर रहा है। लाइकेन की विलुप्त होती प्रजातियां चीख-चीख कर प्रदूषण की सीमाऐं तोड़ने की चेतावनी दे रही हैं, तेजी से घटते माॅस व फर्न भी उसके सुर में सुर मिला रहे हैं। यही हाल जीव जन्तुओं व अन्य वन्य वनस्पतियां का भी है। कहने का अर्थ है कि जैवविविधता जिस तरह घट रही है उसकी भरपायी कभी नहीं हो पायेगी।
नैनीताल प्रकृति की देन है इसका असली आनंद पैदल चलकर ही लिया जा सकता है। लेकिन आज वाहनों के सुगम आवागमन के लिए चप्पे-चप्पे में पैदल मार्गों कंक्रीट कर और नालियां पाटकर मोटरेबुल बना दिया गया है। बची खुची कसर टू-व्हीलर स्कूटी ने पूरी कर दी है। आज पैदल चलने के लिए कोई भी सड़क सुरक्षित नहीं रह गयी है। सड़कों का हर चैड़ा हिस्सा अघोषित पार्किंग स्थल के रूप में मान्य हो गये हैं। इसी नीयत के कारण आज गांधी व नैनीताल की विरासतों को तक नहीं बक्शा जा रहा है। इस पर चुप रहना नैनीताल जैसे अनमोल प्राकृतिक देन को अंततः एक ऐसे बिंदु पर पहंुचा देगा जहां से कभी वापसी संभव नहीं हो सकती है। पर्यटन को बढ़ावा देना किसी भी प्रकार से गलत नहीं ठहराया जा सकता है परन्तु प्राकृतिक रूप से संवेदनशील स्थलों में बेलगाम पर्यटन कतई स्वीकार्य नहीं हो सकता।