गोविन्द पंत ‘राजू’
सितंबर की शुरुआत के कुछ दिन उत्तराखंड से प्यार करने वाले और उत्तराखंड को अपना मानने वाले लोगों के लिए कई कड़वी यादों के साथ आते हैं। ब्रिटिश राज में कुमाऊं के सल्ट इलाके में सत्याग्रहियों ने जिस तरह का आंदोलन किया वह अपने आप में अनूठा था लेकिन आजादी की लड़ाई में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ इस सत्याग्रह के दौरान कुमाऊं के सल्ट इलाके में 5 सितंबर 1942 को तत्कालीन एसडीएम जॉनसन ने खुमाड़ में गंगाधर शास्त्री की अध्यक्षता में चल रही 5000 लोगों की सभा को तितर बितर करने के लिए भीषण बल प्रयोग किया और गोली चलाने का आदेश दिया। स्थानीय सिपाहियों द्वारा सत्याग्रहियों पर सीधे गोली चलाने के बजाय हवाई फायर किए गए तो जॉनसन ने स्वयं अपनी पिस्तौल से निशाना साधते हुए गोलियां चला दीं। इससे दो आंदोलनकारी भाई गंगाराम और खीमानंद घटनास्थल पर ही शहीद हो गए जबकि चूड़ामणि व बहादुर सिंह मेहरा गंभीर रूप से घायल होने के चार दिन बाद वीरगति को प्राप्त हुए।स्वाधीनता संग्राम में सल्ट के सत्याग्रहियों का योगदान इतना महत्वपूर्ण रहा कि उसकी गांधी जी ने भी खूब प्रशंसा की और इसे कुमाऊं की बारडोली नाम देकर विभूषित किया। खुमाड़ के शहीद स्मारक में आज भी हर साल 5 सितम्बर को सल्ट के रणवीरों को याद किया जाता है l लेकिन सत्ता के जुल्म का सिलसिला देश की आजादी के बाद भी थमा नहीं और पृथक उत्तराखंड की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन पर उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह सरकार ने बर्बर दमन जारी रखा जिसकी परिणति 1 सितंबर के खटीमा कांड के रूप में हुई।
1 सितम्बर, 1994 को उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन का काला दिवस माना जाता है, क्योंकि इस दिन जैसी पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई इससे पहले कहीं और देखने को नहीं मिली थी। पुलिस द्वारा बिना चेतावनी दिए ही आन्दोलनकारियों के ऊपर अंधाधुंध फायरिंग की गई, जिससे सात आन्दोलनकारियों की मृत्यु हो गई। खटीमा गोलीकाण्ड में भगवान सिंह सिरौला, प्रताप सिंह, सलीम अहमद, गोपीचन्द, धर्मानन्द भट्ट, परमजीत सिंह, और बरेली निवासी रामपाल शहीद हुए थे।
लेकिन यह पुलिस दमन इसके बाद भी जारी रहा।
2 सितम्बर, 1994 को खटीमा गोलीकाण्ड के विरोध में मौन जुलूस निकाल रहे लोगों पर एक बार फिर पुलिसिया कहर टूटा। प्रशासन से बातचीत करने गईं दो सगी बहनों को पुलिस ने झूलाघर स्थित आन्दोलनकारियों के कार्यालय में गोली मार दी। इसका विरोध करने पर पुलिस द्वारा अंधाधुंध फ़ायरिंग कर दी गई, जिसमें लगभग 21 लोगों को गोली लगी और इसमें से चार आन्दोलनकारियों की अस्पताल में मृत्यु हो गई। मसूरी गोलीकाण्ड में बेलमती चौहान , हंसा धनाई , बलबीर सिंह नेगी , धनपत सिंह, मदन मोहन ममगाईं ,राय सिंह बंगारी ने शहादत दी थी।
सितंबर की यह कड़वी यादें उत्तराखंड को अपना मानने वाले लोगों के दिलों को लगातार कटोचती रहती हैं लेकिन अपने सपनों के जिस उत्तराखंड राज्य को पाने के लिए हमारे बुजुर्गों ,नौजवानों और माता – बहनों ने अपनी कुर्बानियां दी थीं उनके सपनों का उत्तराखंड आज भी हमसे बहुत दूर है और 9 नवंबर सन 2000 को उत्तराखंड राज्य की स्थापना की घोषणा होने के बाद से यह दूरी लगातार बढ़ती ही जा रही है। अनेक बार तो ऐसा लगता है कि उत्तराखंड राज्य की स्थापना उत्तराखंड को अपना मानने वाले लोगों के लिए एक दुःस्वप्न बन गई है। एक ऐसी फांस जो न उगलते बन न निगलते बने। राज्य के हर आम चेहरे पर गहरी निराशा है, छले जाने का एहसास है और कुछ न कर पाने की हताशा भी। राज्य का संचालन करने वाली शक्तियों के साथ एक दलाल तंत्र सक्रिय है जो अपने हित के लिए सब कुछ लूटने खसोटने पर आमादा है । उत्तराखंड का राजनीतिक नेतृत्व बेहद बौना है । इतना बौना कि दो-दो कौड़ी के दलाल उसे अपने इशारों पर नचाने का दम भरते दिखाई देते हैं। अधीनस्थ कर्मचारी चयन आयोग की भर्ती में भ्रष्टाचार के मामले में उत्तरकाशी के आराकोट के जिला पंचायत सदस्य हाकम सिंह से लेकर देहरादून में सचिवालय और सत्ता के गलियारों में सैंध लगाने वाले सैकड़ों दलालों की संपन्नता बताती है की उत्तराखंड में उनका धंधा कितनी कुलांचें भर रहा है। उद्यानविभाग,कृषि विभाग,पिटकुल,उत्तराखंड विद्युत विभाग, लघु सिंचाई विभाग, वन विभाग और खाद्य आपूर्ति विभाग जैसे अनेक विभागों में भ्रष्टाचार की बात तो खुद मौजूदा सरकार भी स्वीकार करती है। अगस्त के अंतिम सप्ताह में गैरसैंण में विधानसभा की एक बैठक में सरकार ने कहा कि भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सरकार निश्चित रूप से कटिबद्ध है और सतर्कता विभाग द्वारा वर्ष 2021 से अब तक में विभिन्न मामलों में 58 अधिकारियों और कर्मियों को गिरफ्तार किया गया है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी दावा किया कि उनकी सरकार की ढाई साल के कार्यकाल में 38 भ्रष्टाचारी अधिकारियों के खिलाफ गिरफ्तारी की कार्रवाई की गई है।
लेकिन भ्रष्टाचार के इस मामले का सबसे ज्यादा हास्यास्पद और चिंताजनक पहलू तब सामने आया जब हरिद्वार के एक निर्दलीय विधायक ने उत्तराखंड में सरकार गिराने के लिए 500 करोड़ रुपए के एक षड्यंत्र का दावा किया। निर्दलीय विधायक उमेश कुमार ने विधानसभा के मानसून सत्र के दूसरे दिन सदन में भ्रष्टाचार का विषय उठाते हुए कहा था कि देहरादून के बिल्डर सतेंद्र साहनी की आत्महत्या के मामले में फंसने के बाद गुप्ता बंधु प्रदेश सरकार को गिराने की तैयारी कर रहे हैं। इसके लिए वह 400 से 500 करोड़ रुपये खर्च करने को तैयार हैं।
विधायक के इस सनसनी के दावे के बावजूद सरकार की ओर से इस पर कोई स्पष्टीकरण या जांच का आदेश नहीं आया हालांकि बीजेपी के एक पूर्व मुख्यमंत्री ने यह जरूर कहा कि उमेश कुमार विश्वसनीय व्यक्ति नहीं है। लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर उमेश कुमार के दावे में कोई सच्चाई है तो इस बात की जानकारी उस तक कैसे पहुंची और सरकार या उसकी गुप्तचर एजेंसियों को इसकी कोई खबर तक क्यों नहीं हो पाई ? और अगर सरकार को यह लगता है की उमेश कुमार की बात सरासर झूठी है तो उत्तराखंड सरकार और उत्तराखंड राज्य की गरिमा को गिराने के इस अपराध के लिए उसके खिलाफ अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई ?
सवाल यह भी उठना है की क्या उत्तराखंड की हमारी चुनी गई लोकतांत्रिक सरकार इतनी कमजोर है कि कोई अपराधी या धन्ना सेठ महज 500 करोड रुपए खर्च करके उसे गिरा सकता है ? अगर हमारी सरकार वाकई में इतने सस्ते में बिकाऊ है तो राज्य की जनता और लोकतंत्र के हित में ऐसी सरकार को तो तत्काल बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए। रही बात उमेश कुमार की तो उमेश कुमार खुद भ्रष्टाचार की अनेक आरोपों में घिरे हैं । उन पर भारतीय जनता पार्टी के एक पूर्व मुख्यमंत्री के साथ रियल एस्टेट में भ्रष्टाचार और दलाली के आरोप प्रत्यारोप लगे । उनकी गिरफ्तारी हुई मामला हाई कोर्ट सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। कांग्रेस के एक पूर्व मुख्यमंत्री के साथ तो उनका कथित वीडियो स्ट्रिंग ऑपरेशन वायरल हुआ था जिसमें वह खुद मुख्यमंत्री को 20-20 करोड रुपए में सरकार बचाने के लिए जरूरी विधायक खरीदने के लिए सौदेबाजी करते हुए दिखाई दिए थे। लेकिन 500 करोड़ में सरकार गिराने की साजिश का दावा करने वाले उमेश कुमार अपने खिलाफ लगे हर भ्रष्टाचार के आरोप से निपटने की कला में इतने माहिर हो चुके हैं कि वह अपने धन बल की कीमत पर हर मामला निपटाना बखूबी जान चुके हैं। वैसे देहरादून में सत्ता के गलियारों में यह बात भी खूब चर्चा में रहती है कि 15 – 18 वर्ष पूर्व कहीं बाहर से आकर देहरादून में एक छोटी सी फोटो कॉपी की दुकान चलाने वाले उमेश कुमार ने इतनी दौलत और ताकत कहां से हासिल कर ली है ? फोटोकॉपी से दलाल दलाल से पत्रकार और दलाल और फिर वहां से सत्ता के भीतर तक राजनीतिक घुसपैठ कर लेने के इस सफर में कुछ तो राज जरूर रहे होंगे। क्या उत्तराखंड की जनता को यह जानने का भी हक नहीं है कि उनके जन प्रतिनिधियों के पास हाथ पर हाथ धरे रह कर बैठे रहने और बिना कुछ किये अरबपति बनने का कौन सा नुस्खा है ?