आयशा
शिक्षा का अर्थ क्या है ?? बच्चों पर दबाव ? बच्चों को सुसाइड करने की सोचने पर मजबूर करना ?और शायद सुसाइड कर भी देना !!.. डिप्रेशन में जाना ? जिन्दगी को जीना नहीं बल्कि जिन्दगी को काटना? बच्चों को गधे की तरह रटवाना ?? या फिर बच्चों को एक ही दिशा में धकेलना बिना बच्चे के इंटरेस्ट को जाने और जहां पर शायद फिर मुड़ने का रास्ता भी नहीं हो?..क्या यही है शिक्षा??
कुछ समय पहले ही 10वीं और 12वीं वाले सभी साथियों के बोर्ड एग्जाम का रिजल्ट आया और मैं यहां ये बात नहीं करूंगी कि कौन बच्चे मेरिट में आए या पास हुए बल्कि यह देखा जाए कि कितने बच्चे खुश हुए? कितने बच्चों को फोर्स किया गया आगे सब्जेक्ट सेलेक्ट करने के लिए? कितने बच्चों को जज किया गया उनके मार्क्स के बेसिस पर ?और कितने बच्चों ने सुसाइड कर लिया इन मार्क्स की वजह से?..
इसी के दौरान नई दिल्ली के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम्स के प्रोफेसर *अविजित पाठक* का आर्टिकल पढ़ने का भी मौका मिला।
अविजित पाठक जी का ये कहना है कि परीक्षाओं को ज्यादा महत्व देने से शिक्षा के आनंद का अनुभव गायब हो गया है।
जैसे कि समाज में परीक्षा के परिणामों पर बात की गई कि, जैसे ही बोर्ड एग्जाम का रिजल्ट आया वैसे ही जिसके सबसे ज्यादा मार्क्स थे या जो मेरिट लिस्ट में आए उनको अलग तरीके से ट्रीट किया गया यानी यह मान लिया गया कि सब कुछ उन्हें ही आता है और जो बच्चे कुछ अच्छे नंबरों से पास हुए या जिन्हे फेलियर बोल दिया गया , उन्हें जज किया जाता है कि इससे कुछ होगा नहीं या इसे कुछ आता नहीं । हमें इसमें पूरे समाज की आईडियोलॉजी देखने को मिलती है और यह पता चलता है कि जहां पर बच्चों का इंटरेस्ट है उसे खत्म करके बच्चों को नंबरों में जकड़ दिया जाता हैं और यह मामला इंडिविजुअल का नहीं है इसमें पूरी सोसाइटी का माइंड सेट हमे देखने को मिलता है। समाज स्टुडेंट्स को ऐसे प्रेस्चरराइज करते हैं की स्टूडेंट सोच ही नहीं पाते कि वह अपने नंबर आने से खुश भी है या नहीं ?क्या वह अकेले में एंजॉय या इंटरनलाइज्ड कर पा रहा है ? अपनी जिंदगी को जी पा रहे है ?,समाज केवल युवाओं से यही चाहता है कि वह इंजीनियर बने डॉक्टर बने या ऑफिसर्स बने ! कोई भी उनकी इंडिविजुअल पर्सपेक्टिव को नहीं देखते और ना ही उसे महत्वता देते हैं।
शिक्षा प्रणाली में क्रिएटिविटी की कमी से कैसे स्टूडेंट्स का उत्कृष्टता को प्रभावित किया जा रहा है ।
समाज स्टुडेंट्स को मार्क्स या आगे क्या सब्जेक्ट लेगा इसके बेसिस पर जज करते है लेकिन क्या कोई जानता है की बोर्ड एग्जाम में खासकर स्टेट बोर्ड में शिक्षा की तो दिशा ही बदल दी यानी की एग्जाम में श्रेआम मदद के नाम पर बच्चों को चीटिंग कराई जाती है और आगे जब रिजल्ट में उन बच्चों के ज्यादा मार्क्स आते है जो पूरा पूरा साल ना पढ़े हो या मेहनत ना की कंपैरिजन उन बच्चों के कम मार्क्स आ रहें है जिन्होंने पूरे साल दिन रात मेहनत की हो ..और आखिर में बच्चों को उनके मार्क्स से जज या उनका फ्यूचर तय कर दिया जाता है उन नकली नंबरों की वजह से क्या ये भी एक्सेप्ट करने लायक है??। सबसे बड़ी चुनौती हमारे लिए यह है की कोई इन विषयों पर सवाल क्यों नहीं उठा रहा !? ,
इस समाज में सबसे ज्यादा मैंटली और इमोशनली प्रेशराइज्ड किया जा रहा है तो वो है आज के युवाओं को !
उनके लिए केवल मार्क्स ही सबकुछ नहीं होते , उनके छोटे छोटे सपने , दोस्तों के साथ जिंदगी जीना, घूमने जाना , चार दिवारी से बाहर निकल कर खुले आसमान में उड़ना, टॉपर शब्द की बेड़ियों को तोड़ अपने इंटरेस्ट को दिखाना , खुश रहना ,लेकिन! क्या हम लोग, समाज, पैरेंट्स, फैमिली, रिश्तेदार, पड़ोसी या आप लोग सोच पाते है एक इंडिविजुअल के माइंडसेट और उसकी क्रिएटिविटी को ? या जान कर भी अंजान बनते है ? किसी को दिखाई नहीं देता की एक स्टूडेंट को अंदर से कितनी हानि पहुंच रही है । स्टुडेंट्स क्या मशीन है ? कि दूसरों के इशारे पर चले और चलते जाए की आखिर में रिजल्ट को एक्सेप्ट न करके 3 – 4 नंबर की वजह से खुदकुशी कर ले? सोचना ही नहीं बल्कि इन विषयों पर काम करना भी बहुत जरूरी है कि क्या जो स्टुडेंट्स के साथ हो रहा है वह सही है ?..।
कुछ बातों और सवालों का जहन से बाहर आना जायज़ है, अक्सर बातें और सवाल जहन में रहने से समाज और इंडिविजुअल के लिए ज़हर बन जाता है।।
फोटो इंटरनेट से साभार