दिनेश शास्त्री
उत्तराखंड में अंतिम आंकड़ों के मुताबिक शुक्रवार को शाम पांच बजे तक 53.56 फीसद मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। दूरदराज के मतदान केंद्रों के आंकड़े संकलित होने में विलम्ब के बावजूद अगर यह आंकड़ा खींच तान कर 58 फीसद तक पहुंच भी जाए तो भी यह स्थिति बेहद निराशाजनक है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में इस बार पांच फीसद कम मतदाता मतदान केंद्र तक पहुंचे। हो सकता है कल तक मतदान का आंकड़ा कुछ बढ़ जाए। पोस्टल बैलेट एक कारक माना जा सकता है किंतु उसे अगर सौ फीसद भी मान लिया जाए तो कुल मतदाताओं का वह मात्र एक फीसद ही तो है। हमारे 83 लाख से थोड़े अधिक मतदाताओं में पोस्टल बैलेट की संख्या करीब 90 हजार ही तो है।
अब लाख टके का सवाल यह है कि आखिर यह नाकामी किसकी है? यह सवाल निर्वाचन आयोग से भी पूछा जाना चाहिए, जिसने प्रदेशभर में वृहद मतदाता जागरूकता अभियान चलाया। कॉलेजों में तमाम तरह की गतिविधियां आयोजित की गई। प्रतियोगिताएं हुई, एनसीसी को झोंका गया। यानी जितने उपक्रम हो सकते थे, सब किए गए। संचार माध्यमों में विशेष अभियान चलाए गए किंतु निर्धारित 75 फीसद मतदान का लक्ष्य प्राप्त न हो सका। इस नाकामी से सवाल तो सरकार से भी पूछा जाना चाहिए कि अगर उसकी नीतियां लोगों को बहुत ज्यादा पसंद हैं तो वे मतदान के लिए क्यों तैयार नहीं हुए और सरकारी मशीनरी से भी कि क्यों लोग बुनियादी जरूरतों के आभाव में मतदान के प्रति उदासीन हो रहे हैं।
लोगों में सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध आक्रोश के दो चार उदाहरण देखते हैं – चमोली के देवराडा गांव के लोग अपनी ग्राम पंचायत से संतुष्ट थे, राज्य सरकार ने उन पर नगर पंचायत थोप दी जिसकी उन्होंने कभी मांग ही नहीं की थी। यानी ग्राम पंचायत की बेशकीमती जमीन पर राज्य सरकार की गिद्ध दृष्टि पर लोगों ने एतराज जताया और कोई वोट देने नहीं निकला। नैनीताल के जलाल गांव का उदाहरण लीजिए, वहां आपदा से तबाही हुई, बुनियादी सुविधाओं का सर्वथा आभाव है। इस कारण लोगों ने मतदान ही नहीं किया। मात्र 15 लोगों ने वोट दिया, वे या तो सरकारी कर्मचारी थे, या फिर किसी तरह मनाए गए लोग। इसी तरह चमोली के सकंड गांव के लोगों ने सड़क की मांग को लेकर चुनाव बहिष्कार किया। उत्तरकाशी में भी कई गांवों के लोगों ने इसी तरह का रुख अपनाया। कुछ ने प्रशासन की मान मनौव्वल के बाद अपना इरादा बदला लेकिन कई लोग अपने फैसले पर अडिग रहे। ऐसी एक नहीं दर्जनों जगहों पर लोगों ने अपनी नाराजगी जाहिर की है।
ऐसे में क्यों न माना जाए कि सरकार से लोगों की जो अपेक्षाएं थी, वह या तो अधूरी हैं या फिर उन्हें लोगों ने खारिज कर दिया है। एक और सवाल राजनीतिक दलों से भी पूछा जा सकता है कि आखिर लोग उनके बासी चेहरों को बार—बार क्यों देखें, जिन्हें देख कर ऊब सी हो गई है। एक व्यक्ति को प्रदेश चलाने में अगर खुद आलाकमान ने नाकाम ठहरा दिया हो तो उसे अब देश की सर्वोच्च पंचायत के काबिल क्यों माना जा रहा है, यानी इस मामले में लोगों के पास अनेक तरह के सवाल हैं कि आखिर क्यों वे पहले बाप की और बाद में बेटे की पालकी ढोएं। या बार—बार ऐसे लोगों को चुनें जो एक या एक से अधिक बार आजमाए जा चुके हों।
यह कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो बीते 24 साल के तथाकथित विकास की कुंडली खोलते हैं। अगर हम सदी के तीसरे दशक के उत्तराखंड का दशक बनाने का ढोल पीट रहे हैं तो लोग यह सवाल पूछेंगे ही कि आज तक पहाड़ों में ज्यादातर स्कूल में शिक्षक का टोटा, अस्पताल में डॉक्टर की कमी, अच्छी सड़क का अभाव, हर घर नल योजना के बावजूद स्वच्छ पीने का पानी और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं से उन्हें वंचित क्यों रखा जा रहा है? यह सवाल वाजिब भी हैं और सरकारों को उनकी नाकामी का आईना दिखाने की जरूरत भी। क्यों किसी गांव में नगर पंचायत बनाई जाए, जबकि लोगों को वह मंजूर ही नहीं। सत्ता में बैठे नेताओं अथवा अफसरों की सनक आम लोगों पर क्यों लाद दी जाए। निश्चित रूप से सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे लोग अपनी इस नाकामी को कभी नहीं मानेंगे। चाहे सत्ता में कोई भी दल हो, जनता की इच्छा का सम्मान किया होता तो नतीजे नकारात्मक कतई न होते।
एक बात और – चुनाव अभियान के दौरान आपने भी सुना होगा, जब सत्तारूढ़ दल ने मतदान पूर्व दावा किया था कि उसे हर सीट पर पांच लाख की लीड मिलेगी। इस हिसाब से तो 25 लाख मतों की बढ़त दिखनी चाहिए थी। यानी हमारी गिनती देश में सर्वाधिक मत प्रतिशत वाले राज्यों में होनी चाहिए थी लेकिन गिनती तो दूर, हम एक बार फिर फिसड्डी ही सिद्ध हुए हैं। सिर्फ मतदाताओं को नहीं कोसा जा सकता। मतदाताओं का प्रत्याशियों के प्रति विश्वास का आभाव बड़ा कारण प्रतीत होता है।
एसडीसी फाउंडेशन के प्रमुख अनूप नौटियाल की मानें तो गिरता मतदान प्रतिशत निर्वाचन आयोग, केंद्र और राज्य सरकार के लिए एकसाथ बड़ा संदेश है। वे बताते हैं कि प्रदेश के कुल 83 लाख मतदाताओं में से करीब 35 लाख मतदाता मतदान से विरत रहे। उनका कहना है कि साक्षरता, जागरूकता और कतिपय अन्य मामलों में उत्तराखंड के लोग खुद को देश के अन्य भागों की तुलना में आगे समझते हैं लेकिन जब राष्ट्रीय दायित्व के निर्वहन में देश के तमाम राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों की तुलना में अगर हम अंतिम पायदान पर हैं तो यह बहुत बड़ी चिंता का सबब है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और बौद्धिक मुद्दों का समाधान तो आखिर होना ही चाहिए। बड़ी जिम्मेदारी निर्वाचन आयोग से ज्यादा राज्य सरकार की है कि लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत लोगों के भरोसे को बहाल करने का नैतिक दायित्व उसी का है। इसमें केंद्र सरकार को बरी नहीं किया जा सकता क्योंकि लोग अब बासी बातों से ऊब चुके हैं और वे जीवन में जुमलों की तुलना में ज्यादा नवीनता चाहते हैं। समय रहते इन बातों पर अमल हो जाए तो स्वस्थ लोकतंत्र के हित में भी यही उचित होगा।