अनिल जोशी
अपनी वरिष्ठ सहयोगी रहीं प्रोफेसर दिवा भट्ट का नया उपन्यास ह्रदय को झकझोर गया।
शहरीकरण के नित बढ़ते दबाव के बोझ में विलुप्त होते कभी सोना उगलने वाले खेतों की पृष्ठभूमि में रची यह करुण गाथा कुमाऊं की सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाले अल्मोड़ा नगर से सटे एक विशाल गांव की है ।
(वैसे ये किसी भी पर्वतीय कस्बे की हो सकती है) ।
अल्मोड़ा के दक्षिण-पश्चिमी ढलान पर बसा खत्याड़ी नामक क्षेत्र।इसके अंतर्गत आने वाले कोंतली,सिटकनी और त्यूनरा ।
लगभग पचास साल पहले तक अपेक्षाकृत एक संपन्न इलाका;दूर दूर तक लहलहाते खेत।उपजाऊ ज़मीन।गेहूं और धान के अलावा स्थानीय उत्पादों मडुआ, चौलाई आदि से भंडार भरे रहते।हर घर में गाय-बछिया।उनके चरने के लिये जंगल की घास और पौष्टिक जड़ी बूटियां।दूध,दही,मक्खन की इफ़रात।तमाम परेशानियों के बावज़ूद खाने पीने की कमी नहीं ।
जनश्रुतियों के अनुसार यहां के कनवाल ठाकुरों का शुमार चंद राजाओं की खास प्रजा (खसपर्जिया) में होता था।
फिर एकाएक आ गया विकास का बवंडर।अल्मोड़ा नगर की एकमात्र सड़क,माल रोड में ट्रैफिक समस्या से निजात पाने वास्ते एक बायपास का निर्माण हुआ जिसे ना जाने क्यों लोअर माल जैसा फैशनेबल नाम दे दिया गया।
इस क्षेत्र के निवासियों के भी कुछ खेतों का अधिग्रहण हुआ।नकद मुआवज़ा मिला।गांव वालों ने इतना रुपया कभी देखा ना था।वो भी बैठे बिठाये।मानो शेर के मुंह में खून लग गया हो।
विकास का जगन्नाथी रथ और आगे बढ़ा…इसी इलाके में स्थित अल्मोड़ा डिग्री कालेज नवस्थापित कुमाऊं विश्वविद्यालय का परिसर बन गया ।उसके विस्तार के लिये इन्हीं ग्रामीणों की ज़मीनें ले ली गयीं।नये नये खंड,आवासीय भवन खड़े हो गये।
फिर बना एक विशाल बहुउद्देशीय चिकित्सालय,बेस अस्पताल।बड़े पैमाने पर खेतों का अधिग्रहण हुआ;और मुआवज़ा.
windfall profit .
अनपेक्षित धन अपने साथ विकार भी लेकर आता है।पैसे को हाथ का मैल समझ शराब और जुए में उड़ाते गये।
पहाड़ की एक खासियत यह भी है कि जहां भी नई सड़क बनती है उसके किनारे मकान और दुकानें कुकुरमुत्तों की तरह उग आते हैं।
यहां भी ऐसा ही हुआ ,समर्थ लोगों ने औने पौने दामों पर जमीन खरीद कर मकान/दुकान खड़ी कर कलयुग के पुरुषार्थ की इतिश्री कर ली।
एक एक कर सारे खेत बिक गये;हरे भरे गांव कब कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो गये पता ही नहीं चला…और अब स्लम बनने की कगार पर हैं ।
खेत चुक गये; गाय बैल भी कहां रहते…आजीविका के साधन समाप्त…कभी भूस्वामी रहे अब उसी ज़मीन पर मजबूरी करने को विवश हो गये ..और महिलायें लोकलाज से कुछ छुपते छुपाते उन नये घरों/आवासीय परिसरों में
काम करने लगीं।
उपन्यास के male protagonist बचे सिंह जैसे उजड्ड गांव गांव में मिलते हैं ।
सावित्री,सरोज,आशा जैसी मध्य वयस की महिलायें भी जिनके पास कभी खेत थे,दुधारू पशु थे ,सिर के ऊपर छत थी आज उन्हीं लोगों के यहां झाड़ू पोछा,बर्तन करती हैं जिन्होंने उन्हीं से ज़मीन खरीद कर मकान बनाये और घर पर निकम्मे पतियों के अत्याचार झेलती हैं…पुरुष प्रधान समाज की अपरिहार्यता।
कोंतली कथा में कुमाउनी (ग्रामीण) जीवन की भरपूर झांकी मिलती है…घर,खेत खलिहान,चरागाह, पशुपालन,वस्त्र,भोजन तथा व्यंजन (स्थानीय जड़ी बूटियों की महक लिये हुए),सामाजिक विषमतायें तथा विकृतियां,रीति-रिवाज,अंधविश्वा स,रुढ़िवाद,व्यसन, यौन उत्पीड़न,
कानाफूसी,घरेलू हिंसा,पलायन की त्रासदी..सभी कुछ एक बड़े कैनवस पर उकेरा हुआ ।
उपसंहार के रूप में त्यूनरा और सिमकनी के बीच प्रतीकात्मक संवाद समूची समस्या को संशलेषित करने तथा लेखिका के कवि मन को भी भाव देने में सफल है।
लेखिका ने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा इसी क्षेत्र बिताया है ,या कहें जिया है,और इस नाते इस समूचे सामाजिक/आर्थिक जलजले की प्रत्यक्षदर्शी रही हैं..इस नाते उपन्यास का शीर्षक ‘आंखों देखी’ भी हो सकता था।
इस कथानक को आंकड़ों का आवरण पहना दिया जाये जो ये एक सार्थक शोध प्रबंध बन सकता है ।
उपन्यास की भाषा सरल और सहज है।कथानक की मांग के अनुरूप कुछ विशुद्ध कुमाउनी शब्दों/मुहावरों और संदर्भित समाज में प्रचलित गालियों का समावेश स्वाभाविक है।
कुल मिलाकर एक ऐसी कृति जो पाठक को बांधे रखती है ।