व्योमेश चन्द्र जुगरान
देश की राजधानी दिल्ली में उत्तराखंडियों के सांस्कृतिक-साहित्यिक मंचों पर प्राय: नदारद रहने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय हाल में गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में आयोजित एक साहित्यिक कार्यक्रम का हिस्सा बना। शांति और अहिंसा का संदेश देते सभागार में एक ऐसे ‘हत्यारे’ पर बात हो रही थी जिसे सरकारी संरक्षण में ‘खून’ की इजाजत हासिल है और जो अब पहाड़ के भीड-भाड़ वाले शहरों को कर्फ्यू जैसे हालात में झोंकने का सबब बनता जा रहा है।
हमें याद है उत्तराखंड के शांत पहाड़ों में 1994 के रामपुर तिराहा कांड के बाद जब पहली बार एहतियातन कर्फ्यू लगा तो दूर-दराज के गांवों की महिलाओं के लिए ‘कर्फ्यू’ शब्द मेले में बिक रहे किसी अजूबे सामान की तरह था और वे कौतूहलवश निकटस्थ बाजार में इसे ‘देखने/खरीदने’ चली आती थीं। काफी मशक्कत के बाद भी वे नहीं समझ पातीं थी कि हिंसा व दंगा रोकने के लिए कर्फ्यू लगा है जिसमें लोगों के सड़कों पर निकलने की मनाही है।
आज उस घटना के तीस साल बाद उसी भोली-भाली पहाड़ी महिला के लिए कर्फ्यू का अर्थ महज इतना बदला है कि यह दंगों के लिए नहीं, बल्कि आदमखोर बाघ के लिए लगता है। ताजा उदाहरण बदरी-केदार यात्रा मार्ग का अहम पड़ाव और खूब भीड़-भाड़ वाला श्रीनगर शहर है जहां नरभक्षी गुलदार भरी दोपहर घूम रहे हैं। इस जानवर ने अलग-अलग वारदातों में दो बच्चों को सरेआम मार डाला और कुछ महिलाओं को जख्मी कर दिया। ताजा वारदात में 5 अप्रैल को श्रीकोट में गुलदार सात वर्षीय बच्ची को उठा ले गया और लोगों के शोर मचाने पर झाडि़यों में जख्मी कर छोड़ गया। इससे पूर्व पौड़ी के रिखणीखाल क्षेत्र में भी आदमखोरों के खिलाफ जिला प्रशासन को कर्फ्यू लगाना पड़ा था। समझा जा सकता है कि पहाड़ के लिए खतरा कितना संगीन है।
हालांकि गांधी शांति प्रतिष्ठान में आयोजित कार्यक्रम मुख्यत: ‘अलकनंदा’ पत्रिका के स्वर्णजयंती विशेषांक और इसके संस्थापक हिन्दी कथा साहित्य के मूर्धन्य हस्ताक्षर स्वर्गीय श्री स्वरूप ढौडियाल की स्मृति पर केंद्रित था लेकिन इसमें पहाड़ की क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं और उनके सामाजिक सरोकारों पर भी समानांतर विमर्श चला। पहाड़ में मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच चल रहे संघर्ष और इसके परिणामस्वरूप जनधन व पशुधन की अपार हानि इसी विमर्श का हिस्सा था। इसमें ख्यातिप्राप्त साहित्यकारों के साथ उन विशेषज्ञों ने भी हिस्सा लिया जो वन्यजीवों के कारण पहाड़ों में उत्पन्न संकट के खिलाफ डटकर खड़े हैं।
अब तक करीब चार दर्जन आदमखोर गुलदारों को अपनी बंदूक से ढेर कर चुके जाने-माने शिकारी और वन्यप्रेमी जॉय हुकिल पौड़ी से आए थे। उन्होंने पहाड़ में आतंक का पर्याय बन चुके इस जानवर (गुलदार) के बारे में बारीक से बारीक जानकारी दी और जंगल के अपने हैरतअंगेज अनुभव साझा किए। जॉय ने कहा कि उन्हें कभी-कभी इस जानवर पर दया आती है। बाकी वन्य पशु तो जंगली घासपात और कंदमूल इत्यादि खाकर भी अपना काम चला लेते हैं मगर इसने तो मांस ही खाना है। प्रकृति ने इसे ऐसा ही बनाया है। अब यदि सरकारें इसका संरक्षण करना चाहती हैं तो उसके भोजन का इंतजाम भी सरकारों को ही करना होगा।
वन्यजीवों के कारण मानवीय संकट पर जनहित याचिकाओं के माध्यम से अदालतों में लड़ाई लड़ रहे अनु पंत ने बताया कि अदालतें यदि सरकार को निर्देश देती हैं तो बीच में खड़ी नौकरशाही लीपापोती कर सारी कोशिशों पर पानी फेर देती है। नैनीताल हाईकोर्ट ने गुलदारों, सूअरों और बंदरों के कारण हो रही जनधन की हानि पर विशेषज्ञों की कमेटी बनाने और रिपोर्ट तलब करने के निर्देश दिए तो ऐसी कमेटी बना दी गई जिसमें तितली म्यूजियम चलाने और जंगल सफारी कराने वाले व्यवसायियों को पैनल में ले लिया गया। अनु ने बताया कि कोर्ट में सरकार की ओर से पेश अधिवक्ता शासकीय आंकड़ों से हवाले से वन्यजीवों के कारण होने वाली मौतों का आंकड़ा बहुत चालाकी से छोटा कर देते हैं। इसके लिए वे वन्यजीवों में गुलदार के अलावा सांप, बिच्छू, बंदर, भालू, सूअर, नीलगाय इत्यादि का एक बड़ा कुनबा खड़ा कर देते हैं। जाहिर है इन जीवों की संख्या के अनुपात में मौतों का आंकड़ा छोटा हो जाता है।
जंगली जानवरों से खेती-किसानी को बचाने की जिद में पहाड़ों पर डेरा डाले और प्रशासन तक लगातार अपनी बात पहुंचा रहे सामाजिक कार्यकर्ता सुधीर सुंदरियाल और उदित घिल्डियाल ने पहाड़ में जनधन और पशुधन हानि के मद्देनजर एक प्रेशर-ग्रुप बनाने पर जोर दिया। श्री सुंदरियाल ने बताया कि वे जंगली जानवरों से खेती-किसानी और जानमाल की रक्षा के लिए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के हाथों में बीस सूत्री ज्ञापन सौंप चुके हैं। इसमें गुलदारों की गणना, उन पर कॉलर आईडी लगाना, मौजूदा कानूनों में बदलाव, गांवों बस्तियों-स्कूलों के आसपास जंगली झाडि़यों का सफाया, जानवरों से होने वाली मौतों पर कम से कम 25 लाख का मुआवजा और वन विभाग को यथोचित मात्रा में पिंजरे और अन्य लॉजिस्टक सामग्री उपलब्ध कराना इत्यादि शामिल है। उदित घिल्डियाल ने बताया कि अनेक पश्चिमी देशों में हिंसक वन्यजीवों के संतुलित संरक्षा का प्रावधान है। असंतुलन की स्थिति में सरकार न सिर्फ ‘बैलेंस हंटिंग’ की इजाजत देती है, बल्कि हंटर्स को इनामस्वरूप डॉलरों से भी नवाजती है। इस कड़ी में उन्होंने खासकर ऑस्ट्रेलिया और वहां के राष्ट्रीय पशु कंगारू का उदाहरण दिया जिनकी अनियंत्रित संख्या को रोकने के लिए सरकार बैलेंस हंटिंग की इजाजत देती है।
कार्यक्रम के प्रथम सत्र में दिल्ली से प्रकाशित ‘अलकनंदा’ पत्रिका के स्वर्णजयंती विशेषांक का विमोचन हुआ। सत्र के मुख्य वक्ता जाने-माने कथाकार, आलोचक और पत्रकार महेश दर्पण थे। अस्सी के दशक में वह टाइम्स समूह की पत्रिका सारिका में एक कहानीकार व पत्रकार के रूप में हिन्दी कथा साहित्य की अमरबेल के गुल्म थे। तब उनकी नजर में खासकर पहाड़ के तीन ऐसे संघर्षशील कथाकार थे, जिन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से न सिर्फ इस अमरबेल को सींचा, बल्कि उसे एक नई ऊंचाई पर भी पहुंचाया। वे थे- सर्वश्री स्वरूप ढौंडियाल, बल्लभ डोभाल और विद्यासागर नौटियाल।
बकौल महेश दर्पण, स्वरूप ढौंडियाल एकदम अलबेले थे जिन्होंने हिंदी कथा साहित्य को अनेक कहानियां दीं। उनकी कम से तीस ऐसी कहानियां हैं जो उन्हें एक आला दर्जे के कथाकार के रूप में स्थापित करती हैं। श्री दर्पण के अलावा कथाकार राजा खुगशाल, गजेन्द्र सिंह, प्रताप सिंह, भारतीय तटरक्षक बल के पूर्व महानिदेशक राजेन्द्र सिंह, पांच बार राष्ट्रीय पदक से अंलकृत दिल्ली पुलिस के विशेष सेल में नियुक्त सहायक आयुक्त ललित मोहन नेगी और भारतीय विदेश व्यापार विभाग के पूर्व संयुक्त निदेशक महेश चन्द्रा ने भी सत्र को संबोधित किया। सत्र का कुशल संचालन वरिष्ठ पत्रकार सुषमा जुगरान ध्यानी ने किया।
हिन्दी की क्षेत्रीय पत्रिकाओं में जनसरोकार के प्रश्न पर महेश दर्पण ने शेखर पाठक के ‘पहाड़’ का हवाला दिया और कहा कि शेखर यदि संसाधनों की सीमा को समझते हुए ‘पहाड़’ को सालाना प्रकाशित करते हैं तो इसमें क्या हर्ज है। इसी कड़ी में वरिष्ठ लेखक राजा खुगशाल ने अलकनंदा के अलावा देहरादून से निकल रही ‘युगवाणी’ पत्रिका और ‘नैनीताल समाचार’ की भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि ये पत्र-पत्रिकाएं पहाड़ के जन सरोकारों को उचित अभिव्यक्ति दे रही हैं। समाज के हित में इनका सतत प्रकाशन जरूरी है। हम सबको मिलकर इन्हें हर तरह की ताकत देनी होगी।