डॉ करुणा शर्मा
कहानी साहित्य जगत की ऐसी महत्वपूर्ण विधा है जिसे बच्चा भी पढ़ना चाहता है और बड़ा भी, सामान्यजन भी पढ़कर आनंदित होता है और विद्वज्जन भी। आजकल कहानी की एक नई विधा ’लघु कथा’ की ओर आकर्षण बढ़ा है, कारण है अन्य गतिविधियों में व्यस्त रहने के कारण पढ़ने के लिए न मिलने वाला समय। यदि ऐसे में कोई ’लघु कथा’ सामने आ जाए तो पाठक व्यस्तता में भी समय निकालकर पढ़ लेता है और कथा सचमुच मर्मस्पर्शी होती है तो उसके बारे में चिंतन-मनन कर आनंदित भी होता है और यदि उसके मर्म में कोई शिक्षा छिपी हो तो अनजाने ही शिक्षित भी हो जाता है।
आज मेरे सामने आया मितेश्वर आनंद जी का पहला कहानी संग्रह ’हैंडल पैंडल’। इसका शीर्षक ही चौंकाने वाला था। उत्सुकता हुई इसके बारे में पढ़ने की और पढ़ने पर पता चला कि इसमें कहानियाँ भी हैं और लघु कथाएँ भी हैं। कहानियाँ भी लंबी हैं लेकिन इतनी लंबी भी नहीं कि बैठे-बैठे ही रह जाएँ। ’काव्यांश प्रकाशन, देहरादून’ से प्रकाशित 19 कहानियों से भरपूर यह कहानी संग्रह 108 पृष्ठों में समा गया है। इससे ही अंदाज लगाया जा सकता है कि कहानियाँ बहुत बड़ी नहीं हैं।
’ठिठुरते भगवान’, ’ये कहाँ जा रहे हम-1’, ’कबाड़ी वाला’, इन्हें लघु कथा कहा जा सकता है क्योंकि ये कथाएँ मर्म पर ऐसा प्रहार करती हैं कि व्यक्ति सोचने पर विवश हो जाता है। ’ठिठुरते भगवान’, में ठंड से कंपकँपाते मनुष्यों का ऐसा जीवंत चित्रण और उन्हें देख कर भी पूजा, प्रेयर और इबादत करने वालों द्वारा न देखा जाना प्रमाण बन जाता है कि उनकी पूजा, प्रेयर और इबादत मात्र दिखावा है। दरिद्रनारायण का अर्थ समझाने में और यह बताने में कि आज समाज में मानवीय संवेदनाओं को प्रचंड शीत का लकवा मार चुका है, कहानी सफल हो जाती है।
ऐसे ही ’कबाड़ी वाला’ कहानी बातों ही बातों में संकेत कर देती है कि अगर समाज में कहीं भाव और संवेदनाएँ जीवित हैं तो वह केवल गरीब तबके में ही हैं। कहानीकार लिखता है, ’उसने अपनी जेब टटोली, जो कुछ भी था, सम्राट बाबा की हथेली पर रख दिया। चलते-चलते उसने सम्राट से कहा, ’अपना ख्याल रखना बाबा।’ और इसप्रकार पितरों के श्राद्ध के अवसर पर दिया गया अपनी जेब का समस्त भंडार कबाड़ी वाले को देकर स्वयं में ही उस अत्यंत गरीब व्यक्ति को लगता है कि यथायोग्य पूजन न होने पर भी ’भाव पितरों तक पहुँच चुके थे।’ ऐसे ही ’ये कहाँ जा रहे हम-1’ में आज के मूल्यहीन हो चुके युवाओं की सोच पर जबरदस्त प्रहार किया है।
’हैंडल पैंडल’ की कहानियों के आईने में समाज का सच दिखाई देता है। ’मद्दी के रावण’ में सरकारी स्कूलों और शिक्षकों की पोल तो खोली ही गई है साथ ही ’गुंडाराज’आज किस तरह से शासन करता है, उसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी है।
आजादी के 75 वर्षों में भी स्त्री की स्थिति में परिवर्तन नाम मात्र को ही आया है। पितृ सत्ता आज भी समाज पर काबिज है, इसका कारण भी स्त्रियाँ स्वयं ही हैं। मेरी इस बात पर आप प्रश्न करेंगे कि ऐसा कैसे? लेकिन इसका सच जानना है तो पढ़नी होगी कहानी ’अदृश्य अंतर’ जिसे पढ़कर आप मेरी बात से सहमत हुए बिना नहीं रह सकेंगे। यदि स्त्रियों को समाज में जगह चाहिए तो उन्हें माँ, बहन, पत्नी की भूमिका में स्वयं अपनी मानसिकता में सुधार करना होगा। प्रशंसा करनी होगी कहानीकार की जिसने बिना लंबी-चौड़ीव्याख्या किए इस अदृश्य अंतर को समझा दिया।
यदि आपको एक ही कहानी में दायित्व हीनता का भाव, खेलते समय सब कुछ भूल जाने का भाव, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध और आवेश के भाव, धैर्य-अधैर्य, विजित-पराजित, खोने-पाने, हीनता और श्रेष्ठता, हास्य-व्यंग्य आदि भावों का आनंद और उनके परिणाम को एक जगह देखना है तो पढनी होगी कहानी़ ’पापा की लात’। मनोविज्ञानकी उत्कृष्ट प्रस्तुति है, ’पापा की लात’। ज्यों-ज्यों पाठक इसे पढ़ता जाता है उसके समक्ष सारी स्थिति सजीव-सी घटित होती चलती है। पाठक उसके प्रवाह में बहता ही चला जाता है लेकिन उसे जोर का झटका लगता है यह पढकर, ’सहसा धरती और आसमान ने अपनी जगह बदल ली। अचानक लगा कि धरती ऊपर चली गई और आसमान नीचे आ रहा था।’ जब तक पाठक इसका कारण समझने में अपना दिमाग लगाता,तब तक कहानीकार ने इसे कुछ यूँ स्पष्ट कर दिया, ’जिस समय मैं भीखू के कंचे पर निशाना लगाने में पूरी तरह से खोया हुआ था उसी समय पापा ने पिछवाड़े में इतनी जोर से लात मारी कि हवा में तीन सौ साठ डिग्री घूम गया।’ और अंत में संदेश प्रेषित करती कहानी, ’आज जब पलटकर देखता हूँ तो समझ में आता है कि अहं, ईर्ष्या और अभिमान पतन का कारण बनते हैं चाहे वह कंचे का खेल हो या फिर जिंदगी का…..’ इस कहानी संग्रह की सर्वोत्तम कहानी।
’हैंडल पैंडल’ इस संग्रह की सबसे बड़ी कहानी है। प्रस्तुति रोचक है और पाठक को अंत तक पढ़ने के लिए मजबूर करती है। कहानी का अंत बच्चों में आत्ममूल्यांकन क्षमता विकसित करने में मदद करता है। जहाँ श्याम सोचता है, ’इस बार उसे लगा कि उसको साइकिल चलाना नहीं आना उसकी असल गलती नहीं थी। सिंधी के पेड़ से अमरूद चोरी करना असली गलती थी। हैंडल के बजाय पैंडल पर अटक जाना उसकी गलती थी।’ उधर गोपू की मनोदशा, ’सिंधी के अमरूद चुराना गलत तो था मगर उससे ज्यादा बुरा था श्याम को अकेला छोड़ साइकिल लेकर भाग जाना। इन दोनों से बुरा था उस्ताद की भूमिका में असफल रहना और श्याम को पैंडल तक रोककर हैंडल का कंट्रोल अपने पास रखना।’ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से लिखी गई यह कहानी भी पाठकों को अवश्य पसंद आएगी।
’रमेश कचरा’ में सफाई कर्मचारी रमेश का रेखाचित्र प्रस्तुत करता कहानीकार, ’झाड़ीनुमा रूखे बाल, थोड़ी बड़ी हुई दाढ़ी, आगे को निकला चेहरा, बाहर की ओर आता हुआ निचला जबड़ा। एक प्रश्नचिह्न के समान मेरुदंड, सिकुड़ी हुई छाती, आगे को झुका हुआ शरीर। एक पुरानी बुशर्ट, निक्कर और पुरानी चप्पल पहने हुए सामने दिखाई पड़ता रमेश कचरा।’ जो इस बात को ध्वनित कर रहा था, ’मानो मन में कहीं गहरी दबी हतोत्साहन की भावना, जिल्लत और उससे उपजा आक्रोश बरबस चेहरे से झलक रहा हो।’ कहानी यह भी बताती है कि यदि कोई व्यक्ति कठोर होता है तो उसके पीछे परिवार अथवा समाज द्वारा किया दुर्व्यवहार भी एक बड़ा कारण होता है। किंतु यदि उससे कोई दूसरा व्यक्ति प्रेम और अपनेपन के भाव से बात करता है तो उसका मन भी पिघलने लगता है। अत्यंत कठोर और कभी न मुस्कराने वाले रमेश से अमन जब आत्मीयता से बात करता है तब उसमें छिपे आत्मीयता, मानवीयता और कोमलता के भाव धीरे-धीरे फूटने लगते हैं और ’अब जब भी अमन को ऑफिस जाते समय रमेश बिल्डिंग के बाहर दिखाई देता तो वो अमन की तरफ हाथ उठाकर मुस्करा देता।’
राजनीति की चर्चा में आज अधिकांश लोग रुचि लेते हैं लेकिन पक्ष और विपक्ष को लेकर परस्पर हुई चर्चा कब गंभीर विवाद का रूप धारण कर ले, कब पारस्परिक रिश्तों में फूट पड़ जाए, कब क्रोध अपनी सीमा तोड़कर बुद्धि, विवेक, संयम जैसे गुणों को अपने साथ बहा ले जाए, इसकी जीवंत प्रस्तुति है कहानी ’आपका क्या कहना है भाई साहब।’
लगभग सभी कहानियों में शिक्षा अप्रत्यक्ष रूप से छिपी हुई है जो साहित्य की सार्थकता को व्यक्त करती है। कहीं तो कहानीकार स्वयं शिक्षित करता है, कहीं वह घटनाओं के माध्यम से और कहीं पात्रों के आत्ममूल्यांकन द्वारा संदेश देता है। भाषा सरल और सहज है लेकिन अभिव्यक्ति अभी और कसावट की माँग करती है।
महाभारत के प्रसंग उदाहरण के रूप में कई जगह देखे जा सकते हैं, जैसे कौरवों के बीच कर्ण; मानो महाभारत में अर्जुन से अंतिम युद्ध कर रहा कर्ण हो; अर्जुन के साथ मार्गदर्शक के रूप में स्वयं केशव आदि-आदि। पहाड़ी भाषा की झलक भी कहीं-कहीं देखने को मिलती है जैसे भतोड़ना, ठहरे आदि। जहाँ-तहाँ कहावतों का प्रयोग भी देखा जा सकताहै जैसे होनहार बिरवान के होत चीकने पात, हिम्मते ए मर्दां तो मदद ए खुदा आदि। सूक्तियों के रूप में भी कुछ विचार दर्शनीय हैं जैसे ईर्ष्या मनुष्य की बड़ी दुश्मन है; बदला लेने की भावना जब प्रबल होती है तब इंसान को कुछ नहीं सूझता आदि। कहीं लयात्मकता से कहे गए वाक्य कहानीकार में कवित्व की संभावना ढूँढ़ने लगते हैं जैसे ’ठंड में काँपते हुए भोलेनाथ ही उसे एकमात्र सत्य दिखाई दिए। कड़वा सत्य, झूठ से हारा हुआ सत्य, मनुष्य की धूल फाँकती चेतना पर आधात करता हुआ सत्य, आज की दोगली जिंदगी की निर्लज्जता पर हँसता हुआ सत्य।’
इसप्रकार मितेश्वर आनंद द्वारा रचा गया यह पहला कहानी संग्रह प्रमाण है इस बात का, ’लेखन मानवीय संवेदनाओं, अनुभवों और चेतना की प्राणवायु है जिसके बिना मनुष्य होने के मायने निरर्थक हो जाएँगे।’ ’हैंडल पैंडल’ समाज के सच से रूबरू भी कराता है, मनोरंजन भी करता है, गुदगुदाता भी है और कहीं-कहीं व्यंग्य की मार भी करता है, लेकिन कोरी कल्पना में नहीं, जीवन और कल्पना के बीच संतुलन स्थापित करता हुआ। इसके साथ ही यह भी घोषित करता है कि कहानीकार में और भी अधिक उत्कृष्ट कोटि के सृजन की संभावनाएँ छिपी हुई हैं।