राजशेखर पन्त
स्वतंत्रता के पचहत्तर वर्ष बाद भी यदि किसी लेखक को अपनी पुस्तक की प्रस्तावना कुछ इस तरह शुरू करनी पड़े- “इस पुस्तक में भारत की वह तस्वीर उभरती है जो अक्सर छिपाई जाती है।” तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सब कुछ ठीक नहीं है। …
कुछ तस्वीरों का बदरंग रह जाना एक अलग बात है, पर उन्हें ‘छुपाने’ की कोशिश निश्चित ही इस सच को रेखांकित करती है कि वो जो इसे छुपा रहे हैं उन्हें मालूम है कि इन तस्वीरों के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए था; कि इनको बदरंग छोड़ देने के जिम्मेदार वे स्वयं हैं। पर, बावज़ूद इसके न तो इनके अंदर इस अनुत्तरदायी आचरण के लिए कोई पश्चाताप होता है और ना ही इस बदहाली के प्रति कोई संवेदना।
महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, कर्नाटक, बुंदेलखंड और राजस्थान के सुदूर अंचलों पर की गई बारह न्यूज़ स्टोरीज से इतर शिरीष खरे की किताब ‘एक देश बारह दुनिया’, जिसे मुझे बहुत पहले ही पढ़ लेना चाहिये था, देश के किसी भी हिस्से में हाशिये पर खड़े एक आम हिंदुस्तानी का बयान है।
मुझे इस किताब में मेरा ‘पहाड़’ दिखाई देता है, जिसे मैं बचपन से जानता हूँ। बेला, मीरा बेन, दयाल सिंह या फिर झोलेमुक्का खांडेकर और कालूराम को ढूंढने के लिए मुझे कमाठीपुरा, संगम टेकरी, चुटका या बागलिंगा नहीं जाना पड़ता। ये हाशिये पर सिमटे वो प्रारूपी चरित्र हैं जो हमारे आसपास हमेशा, हर जगह मौजूद रहते हैं।
किताब के आख़िरी पन्नों में कहीं लेखक की स्वीकारोक्ति -“मेरी हर अच्छी रिपोर्ट उस जगह की होती है जहां पीड़ा, दुखों का पहाड़ होता है…” वास्तव में इस दस्तावेज़ में समेटे गए सम्पूर्ण कथ्य को परिभाषित करती है। रिपोर्टिंग से ऑब्जेक्टिविटी की अपेक्षा होती है, पर मेलघाट, सूखती हुई नर्मदा या फिर कमाठीपुरा पर रिपोर्टिंग के लिए ऑब्जेक्टिव होने से ज्यादा इम्पेथैटिक होना जरूरी है।
कालूराम बेलसरे से मिलने से पहले लेखक का यह समझना कि “किसी पत्रकार के लिए हत्या की धमकी ही सबसे बड़ी चुनौती हो सकती है” सच में एक स्वतःस्फूर्त अभिव्यक्ति है, कुछ देर ठहर कर पाठक को बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर करती है यह… वो इसलिए क्योँकि “दर्द को लगातार झेलते हुए लिखना वाकई आसान काम नहीं है।” खासकर तब जब, “जख्मों को खुला छोड़ना और नए जख्मों के लिए जगह देकर लिखना” लेखक का स्वभाव न हो। पराये दर्द से दो-चार हो कर, उसे शिद्द्त से महसूस करते हुए, आत्मसात करते हुए जब आप किसी खूबसूरत जगह की यात्रा पर होते हैं तो खूबसूरती का आकर्षण पृष्ठभूमि में चला जाता है, “खुले आसमान को देखने के मकसद से आकाश की ओर देखना” तब याद नहीं रहता और, “मौत के आंकड़े पहाड़ों से कहीं ऊंचे” हो जाते हैं।
यही नहीं तब “चिंताओं को मेकअप की गहरी परतों से ढके” कमाठीपुरा के दड़बेनुमा कोठों में सिमटे चेहरों को देख कर कागज़ के फूल, पाकीज़ा या उमरावजान की वहीदा रहमान, मीना कुमारी या रेखा “हवा” हो जातीं हैं और सामने लटकी रह जाती है “मंटो की काली सलवार।”
कुछ इसी तरह पर्यावरण की फैशनेबल चिंता में आकंठ डूबी सेमीनारों और किसी अंग्रेज़ी मैगेज़ीन के ग्लॉसी कवर पर छपे अमेजन के जंगल या फिर रॉयल बंगाल टाइगर के चित्र को देख कर आपके मन में बेतुके सवाल उठने लगते हैं, “जंगल के आदिवासियों का होना भी अच्छे पर्यावरण का प्रतीक नहीं समझा जा सकता?”…. “जाती हुई राजो और पूसाराम के साथ लौटती हुई मीरा” को देख कर, जो कि एक निरंतरता का हिस्सा भर हैं, आप इस सच को शिद्दत के साथ महसूस करने लगते हैं कि “अदालत के रास्ते पर चल कर क्या ये गाँव के रास्ते पर चल सकेंगी?”… परेशान करने वाला है यह सवाल, जिसका उत्तर, “सुबह ही पता चलेगा… लेकिन सुबह होने में अभी देर है…।”
मध्य भारत के गांव-देहात “जहां जीवन जटिल है पर मृत्यु के बहुत से कारण हैं” कुछ भोले से प्रश्नों के सबब बन अंतर्मन को छू जाते हैं, “हिंसा की परछाई में प्रेम कैसे पनपता होगा?” “उस जगह का पिता अपनी बच्ची को कोई कहानी कैसे सुनाता होगा?”…पर प्रेम पनपता है, कहानियां सुनाई जाती है; क्योँकि ये जीवन का पर्याय हैं, जीवन से जुड़ी सुविधाएं नहीं। लेखक बताना चाहता है यह कि “ज़िंदगी और सुविधा के बीच एक को चुनना हो तो आदमी ज़िंदगी को चुनेगा।”
लाल रंग की साड़ी में लिपटी हताश जमनाबाई की विवशता निश्चित ही झकझोरती है आपको, जब याद दिलाया जाता है कि, “प्रेम और क्रांति” के प्रतीक रहे लाल रंग की यह साड़ी जमनाबाई जैसे लोगों की दशा से “मेल नहीं खाती।” …पर जिंदा रहने तक आस तो बनी ही रहनी चाहिए।
नर्मदा के उद्गम के साथ बहती “एक ओर धारा” जिसमें शामिल है “…निश्छल भावनाओं के बीच घुसपैठिये आधुनिकता, विध्वंस के बिंब और कुछ ध्वनियां” देश की कमोबेश हर नदी की धारा की कहानी है।
अपने गाँव-कस्बे की नदी में तैरती “चिंता की लहरों” को आप चाहें तो देख सकते हैं। यह सच है कि नर्मदा की तरह देश की किसी भी नदी को “मरते हुए देखना” उसके आँचल से बेदखल हुए रहवासियों की “नियति बन चुकी है।” पर क्या विकास की इबारत लिख रहे उन लोगों ने जिन्होंने इन बारह दुनियां के अलावा भी बहुत सी तस्वीरों को छुपाया है और जो नीति नियंता बन कर सब कुछ “परोसने को तैयार हैं… ये लीजिये नर्मदा; ये लीजिये उसके जंगल, पहाड़ियां” क्या कभी समझ सकेंगे कि “नदी के समानांतर इसके विशाल जंगल और समृद्ध जल-संग्रहण क्षेत्र को आत्मसात करते हुए आबाद छोटे गावों को नापना भी नदी की यात्रा होती है”… “डूबे हुए जलाशय में तैरती चिंता की लहरें ” उन्हें नहीं दिखतीं। वो कभी नहीं समझ सकते कि “विस्थापन का अंत वापसी नहीं होता।”
देश की इन बारह प्रतिनिधि तस्वीरों को अपनी यात्राओं के दौरान आत्मसात करने वाले शिरीष खरे कहते हैं “कुछ लोगों को किताबें व्यापकता की ओर ले जाती हैं। मुझे इस तरह की यात्राएं।” शिरीष के इसी आत्मकथ्य ने इस शानदार किताब को गढ़ा है। ये यात्राएं वापस अपने ठिकाने पर पहुंचने के साथ खत्म नहीं होतीं। इनके बाद शुरू होती है “विचारों की यात्रा” जो “दृष्टिकोण तय करती है।” यहां यह भी जानना ज़रूरी है कि “यात्रा से लौटते हुए हमारा शरीर तो साथ लौटता है पर, मन तुरंत नहीं लौटता। बहुत दिनों बाद लौटता भी है तो पूरा नहीं लौटता है।”
इस क़िताब को पढ़ कर मुझे लगता है कि यही अटका हुआ मन एक देश बारह दुनियां जैसे दस्तावेज को गढ़ने का बाइस बनता है, और इसी अटकाव-भटकाव के चलते ऐसे बिंब ज़ेहन में उभरते हैं जो आपको बहुत दिनों तक परेशान कर सकते हैं। …..”असल में रोटी की गोलाई देश की सीमाओं से परे है, और मजूरी यहां की सबसे बड़ी देशभक्ति” जैसी व्यंजना बस यूं ही स्थापित हो गयी मान्यताओं को एक झटके में तोड़-फोड़ डालती है।
स्वतंत्रता दिवस की पचहत्तरवीं वर्षगांठ पर शिरीष की ‘एक देश बारह दुनिया’ एक उदास पर ज़रूरी क़िताब बन जाती है जिसे अमृत महोत्सव के सारे उत्साह, सारी उमंग के बावजूद जल्द से जल्द पढ़ा जाना/महसूस किया जाना चाहिये।