यह लेख अक्टूबर 2011 में ‘नैनीताल समाचार’ अखबार में प्रकाशित हो चुका है। इसे ‘नैनीताल समाचार’ की वेबसाइट में एक बार पुन: प्रकाशित किया जा रहा है।
लेखक: उत्तराखंडवासी, प्रस्तुति: ताराचन्द्र त्रिपाठी, सौजन्य: ब्रिटिश लाइब्रेरी, लन्दन
(यह लेख सन् 1920 में डाँग श्रीनगर निवासी श्री गोविन्दप्रसाद घिल्डियाल, बी.ए. डिप्टी कलेक्टर, उन्नाव द्वारा लिखित और विश्वंभरदत्त चन्दोला द्वारा गढ़वाली प्रेस, देहरादून से प्रकाशित पुस्तक ‘गढ़वाली राजपूतों की सैनिक सेवा’ के परिशिष्ट 2 के रूप में प्रकाशित है। लेख के अन्त में लेखक ने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि अल्मोड़ा अखबार का ‘उत्तराखंडवासी’ और ’गढ़वाली का ‘अनुभव’ एक ही व्यक्ति हैं।)
कूर्माचल के बहुत से लोगों में यह साधारण विश्वास है कि किसी आश्विन संक्रान्ति को कुमय्यों ने गढ़वाल को जीता था। इसके उपलक्ष में प्रत्येक बरस उस दिन कुमय्ये लोग होली जलाते हैं। 9 अप्रेल 1917 के अल्मोड़ा अखबार में एक ’भालसौ’ महाशय ने यह लिखा है-
”एक बार झिझाड़ के जोशियों ने जब कि चन्द को गद्दी से उतार कर गैयड़ा को राजपाट दे दिया था, गैयड़ा और खतड़ू (गढ़वाल की ओर के सेनाध्यक्ष) के बीच युद्ध हुआ। आश्विन संक्रान्ति के दिन लोहबा के निकट खतड़ू हराया गया। इस शुभ समाचार की सूचना अल्मोड़ा भेजने के लिए दूधातोली, दूनागिरी इत्यादि पर्वतों में आग जलायी गई। पहिले पहल यह खतड़ू लोहबा और अल्मोड़ा के बीच मनाया जाता था। अब कुमाऊँ प्रदेश का त्यौहार है।’’
यद्यपि कुमय्ये लोग ऐसा मानते हैं। आश्चर्य है कि गढ़वाली इस बात को निर्मूल समझते हैं। जब कि किसी देश के दो पक्षों के बीच बराबर कई वर्षों तक लड़ाई होती रहती है, जैसी कि गढ़वाल और कुमाऊँ के बीच लगी रही, तो यदि वास्तव में कूर्माचल निवासियों का ऐसा कहना सच्चा होता तो इसे स्वीकार करने मे गढ़वालियों को कुछ भी आपत्ति नहीं होती। ऐसी लड़ाइयों में हार-जीत तो होती रहती है। कूर्माचली लोग ही कहते हैं कि उनका वीर शिरोमणि पुरषु पन्त गढ़वालियो से ग्यारह बार हारा और एक बार जीता। यदि यह खतड़ुवा गढ़वाल जीतने का उत्सव वास्तव में होता तो गढ़वाली कुमय्यों (सरकारी नौकर इत्यादि को) अपने देश में कभी भी मनाने नहीं देते। अपनी प्यारी जन्मभूमि की प्रतिमा न जलाने देते। दंगे-फसाद की नौबत आ जाती। गढ़वाली बराबर उसे उपेक्षा की दृष्टि से देखते आये हैं।
मेरी, ऐतिहासिक, भाषा और जाति संबंधी प्रश्नों के विषय में अनुसंधान की कुछ रुचि कभी-कभी रही है। मुझे कई वर्षों तक समस्त कुमाऊँ का भ्रमण करने का अवसर मिला है। उस समय मुझे कुमाऊँ गढ़वाल के इतिहास, जाति इत्यादि के विषय में कई नवीन वार्ताएँ विदित हुईं। कुछ की छाप मेरे हृदय पटल पर अंकित है और कुछ के नोट मेरे पास पैंसिल से लिखे पड़े हैं। उन्हीं पैसिल के नोटो की सहायता से मैं यह लेख लिखता हूँ।
इस बीच मैंने इस खंतड़ुवा के विषय में भी अनुसंधान और पूछताछ (तहकीकात) की है। मैं एक बार आश्विन संक्रान्ति को अल्मोडा़ जिले में नेपाल की सरहद पर शोर में रहा था। खंतड़ुवे में क्या-क्या होता है ? लोग क्या-क्या रीतियाँ बरतते हैं ? मैंने इसका निरीक्षण किया। मैंने देखा कि भादों की मासान्त को हरी घास दूर-दूर से लाकर इकट्ठा किया गया और गायों को खूब खिलाया गया। फिर दूसरे दिन अर्थात् आश्विन की संक्रान्ति को प्रत्येक गाँव या उसकी बाखली में एक लंबी लकड़ी जमीन में गाड़ी गयी (कहीं-कहीं वह मासान्त के रोज गाड़ी जाती है)। उसके आसपास घास और लकड़ी का ढेर किया गया, जिसे लोग खंतड़़वा कहते थे। कहीं-कहीं इसे कथड़कू कहते हैं। जहाँ तक लोगों ने मुझ से कहा खतड़ू का अर्थ उस वस्तु से होता है जो दुःखदायी हो। कथड़कू का भी प्रायः वही अर्थ होता है।
साँझ के समय लकड़ी के मशाल बनाये गये और लोग उन्हें गौशालाओं में जहाँ गायें रहती थीं, ले गये और उससे वहाँ थोड़ी देर उजियाला किया गया। इन जलती हुई मशालों को दिखाने के समय ‘निकल बुड़ी पस नरायन’ (निकल बुराई बस नारायण) कहा जाता था। (देश में कहीं-दीवाली दीवाली के रोज सूप बजाया जाता है और लोग यह कहते हैं ‘ईश्वर आव दरिद्र भाग’ या ‘सीप निकस कराइन पैठ’ इत्यादि)। कहीं-कहीं लोग निकल भुइयाँ (रोग व्याधि) पस नरायन भी कहते हैं। कहीं निकल कथड़कू कहते हैं। इससे पहले गोबर के ढेर में घास या काँस या दोनों की एक मोटी त्रिशूल सी बनाकर खड़ी की गयी थी। उसमें फूल गुँथे हुए थे। इसको लोग ‘बुड़ी’ कहते थे। ऐसी ही एक ‘बुड़ी’ मकानों के ऊपर छतों में भी डाली गयी थी। तब खतड़वा में आग लगाई गई और बुड़ी उसमें डाली गयी। वहाँ पर चूड़े, अखरोट, ककड़ी, दाडि़म आदि लोग ले गये थे। वे खतडु़वा में चढ़ाये गये थे। फिर आपस में लोगों ने इन्हें नैवेद्य की तरह बाँट खाया। एक दाडि़म का दाना मुझे भी मिला था। लोग मशालें हाथ में लेकर ‘भैलो रे भैलो, भैलो खतडु़वा’ करके चिल्लाते थे। ‘गाय लै जीती खतड़ की हार’ (गाय की जीत खतड़ की हार) और ‘गाय पड़ी खेल खतड़ पड़ो भेल’ ( गायों को चैन पड़ा खतड़ गढे़ में गिरा), ‘लिपि ले घसि ले गाय को धरम ले’ ( लीपो पोतो गाय का धर्म लो) इत्यादि भी कहते हैं। कहीं-कहीं (काली कुमाऊँ में) ‘गाय की जीत कथड़कू हार मार कथड़कू को दो चार’ भी कहते हैं।
फिर लोग खतड़ुवा की आग को घरों में ले गये (होली जलाने की आग भी कहीं-कहीं इसी भाँति लायी जाती है)। इसको लोग ‘नयी आग’ कहते हैं। किसी-किसी का यह विश्वास है कि उससे रक्षा होती है। पीछे से ‘भैले’ गोबरो के ढेर में खड़े किये गये। उस दिन गायों को अन्न भोजन भी दिया गया।
नेपाल के कुछ अंशों में भी यह त्यौहार मनाया जाता है। मैं नैपाल में थोड़ी दूर ही जा सका। मैंने नेपाल के समीपवर्ती भागों में अपनी आँख से आश्विन संक्रान्ति को खतड़ुवा जलता देखा है। मैंने कई लोगों से इसके विषय में पूछा। उन्होंने मुझसे यही कहा कि यह गाय का त्यौहार है।
सावन भादो में बरसात रहती है। घास भी प्रचुर न रहने से या खाद के कारण गाय बच्छियाँ जंगलों या खेतों में रहती हैं। आश्विन में वर्षा का लोप हो जाता है या वह कम होती है। इससे लोग गौशालाओं की सफाई करते हैं। इस अवसर पर दूध देने वाली गायों के घर आने से और उसी समय नये-नये अन्न और फल, तरकारी भी होने से आनन्द हो जाता है। कदाचित इन्हीं कारणों से गढ़वाल में भी आश्विन संक्रान्ति को कुछ त्यौहार मनाया जाता है ( यदि गढ़वाली उस दिन हारते तो त्यौहार नहीं मनाते)। उसे घिया संक्रान्ति कहते हैं। भारतवर्ष में भी उस दिन कुछ होता है।
भारतवर्ष में दीवालियों के अवसर पर घरों की सफाई की जाती है और गो पूजा होती है। गढ़वाल में दीवाली के अवसर पर भैले खेले जाते हैं। लकडि़यों के ढेर जलाये जाते हैं (इसे अंग्रेजी में Bon Fire (बौन फायर) कहते हैं। वे फाँदे जाते हैं और हाथों में लकड़ी की मशालें (भैले) नचाई जाती हैं। (भैले को अंगे्रजी में टौर्च लाइट टैटू कहते हैं। इसे महाराज नरेन्द्रशाह बहादुर के राज्याधिकार उत्सव पर 1976 (सन् 1919) विजया दशमी को टिहरी गढ़वाल में सफरमैना पलटन ने खेला था। वह बड़ा मनोरंजक था।)
उपरोक्त बातों से जो अनुभव निकलते हैं वे ये हैं –
(1) निस्सन्देह खतड़ुवा या कथड़कू गाय का त्यौहार है। यदि गढ़वाल की जीत के उपलक्ष में यह होता तो गौशालाओं में उजियाला करने का, ‘बुड़ी बनाने का और गायों का उससे कुछ संबंध नहीं रहता। लोग इस आग को घरों में नहीं ले जाते और न उसकी पूजा होती।
(2) यदि गढ़वाल की जीत के उपलक्ष में यह होता तो नेपाली लोग इसे न मानते। (लोहबा और खंसर के कुछ ग्रामों में भी खतड़ुवा मनाया जाता है।)
(3) कुमाऊँ में कोई जाति जो दीवाली आश्विन संक्रान्ति को मनाती थी और उस दिन गोपूजा करती थी और भैला खेलती थी ( इस समय कुमाऊँ में दो सलोने होते हैं, एक त्रिपाठियों का और दूसरा अन्य द्विजों का)।
(4) संभवतः यह कोई यज्ञ था जिसका अब बिगड़ कर खतड़ या कथड़कू (यज्ञ करना) जलाना शेष रह गया। आश्विन की संक्रान्ति वर्तमान समय में भी थोड़ा बहुत सर्वत्र त्यौहार के रूप से मानी जाती है।
(5) संभवतः कथड़कू और बूड़ी कोई पौराणिक राक्षस हों, जो गायों को तंग करते हों और वे इस दिन मारे गये हों। या वे किसी पशुओं के संक्रामिक रोग के चिह्न हों।
फिर भी बहुत से कुमय्यों का ऐसा विचार क्यों हो गया कि यह खतड़वा उनका विजयोत्सव है। इसका समाधान यह है कि खतड़ एक प्रसिद्ध ग्रामीण उपनाम है जो कुछ गढ़वाली क्षत्रियों का होता है। जैसे अंगे्रजों का ‘टौमी’ जो कि कथड़कू, खतड़, खतड़वा, खतड़ू से मिलता जुलता है। पहाड़ी प्रबल कल्पना शक्ति ने यह जोड़ दिया। यह कहावत गढ़ ली और यह फैलते-फैलते बण आग (जंगल की आग) सी फैल गयी।
हम लोग अंधविश्वास के लिए नामी हैं। हम पहाडि़यों की कल्पना शक्ति विवेचना शक्ति से बढ़ी रहती है। इसी कारण भोलानाथ, गंगानाथ, नारसिंह, गोरिल, परी, आँछरी इत्यादि का हम लोगों पर आधिपत्य कुछ जमा हुआ है। जितनी भी ऐतिहासिक पुस्तकें गढ़वाल-कुमाऊँ के विषय में लिखी गयी हैं, उनमें यत्र-तत्र कल्पना शक्ति की प्रधानता पायी जाती है। अब लोगों का ध्यान सत्य की ढूँढ पर गया है और कई प्रसिद्ध घटनायें जो पहले ऐतिहासिक समझी जाती थीं, अब कपोल कल्पना सिद्ध हो चुकी हैं। अर्थात् मेरे कूर्माचली भाइयों की यह कल्पना भी धीरे-धीरे लोप हो जायेगी।
मेरा यह जो लेख है, केवल सूचक मात्र है। शिक्षित कुमय्यों का कर्तव्य है कि इसका तत्व सार निकालें। मोह निद्रा में न रहें। यदि अधिकतर अनुसंधान किया जाय तो कदाचित यह प्रकट हो जायेगा कि बुड़ी क्या है ? (मेरी समझ मे तो यह दरिद्रा का नाम है)। कथड़कू, खतड़ क्या है ? जो रीतियाँ इसमें मनाई जाती हैं, उनका क्या आशय है ? कैसे इस त्यौहार का श्रीगणेश हुआ ? इत्यादि।
कुमाऊँ में अच्छे राजनीतिज्ञ, राजा और दीवान रहे हैं। यह मानना कि यह त्यौहार गढ़वाल विजय के उपलक्ष में मनाया जाता है, उनकी राजनीतिक बुद्धि पर धब्बा लगाता है। इससे यह प्रकट होता है कि कूर्माचलियों को गढ़वालियों ने बड़ा तंग किया और एक बार अंधे के हाथ बटेर लग गयी तो उन्होंने उस अवसर को विजयोत्सव में परिणत कर दिया। जो बात कभी न हो सके और एक बार हो जाय उसका ही ऐसा आनन्द मनाया जाता है या किसी बड़े मार्के की घटना के लिए ऐसा किया जाता है।
यदि सचमुच कुछ कूर्माचल वासियों का यह विचार हो कि यह त्यौहार गढ़वाल लोहबा की जीत के लिए मनाया जाता है, तो उन्हें उसे बन्द कर देना चाहिए। क्योंकि अब समय है कि गढ़वाल और कुमायीं एक हो जायें। तभी उनका दुःख दूर हो सकता है और तभी उनकी उन्नति हो सकती है। यदि गढ़वाल-कुमाऊँ के इतिहास पर निष्पक्ष भाव से विचार किया जाय तो यह अकाट्य प्रमाणों से सिद्ध हो सकता है कि अधिकांश गढ़वाली और कुमाउनी एक ही लोग थे।