नवीन जोशी
हाल ही में प्रकाशित अपनी किताब ‘ये मन बंजारा रे’ (सम्भावना प्रकाशन, हापुड़) में गीता गैरोला ने एकाधिक बार लिखा है कि ‘पहाड़ों से ऊर्जा लेने और रूटीन ज़िंदगी की ऊब खत्म करने के लिए’ वे अक्सर ‘आवारागर्दी’ करने निकल पड़ती हैं। सच यह है कि इन यात्रा संस्मरणों को पढ़ते हुए उत्तराखण्डी समाज, पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं की स्थितियों, धर्म एवं आस्था की मजबूत जकड़नों, उजड़ते गांवों, विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के अनियमित दोहन, सड़क के साथ पहुंचती अपसंस्कृति, नशे के फैलते तंत्र और इस सब के बावजूद बचे रह गए पहाड़ी भोलेपन का गहरा अध्ययन और स्मृति में देर तक बने रह जाने वाले शब्द-चित्र सामने आते रहते हैं। उनकी आवारागर्दी वास्तव में अपने समाज का संवेदनशील अध्ययन साबित होती है।
गीता गैरोला आज स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता, बराबरी, अधिकार और परम्परा की जकड़ से मुक्ति की पैरोकारी और उसके लिए संघर्ष करने वाला नाम है। उनके बचपन के संस्मरणों (मल्यों की डार) और कविताओं (नूपिलान की मायरा पायबी) में भी यह स्वर बराबर उपस्थित रहा है। उल्लेखनीय बात यह है कि उनके ये तेवर स्त्री-विमर्श के बौद्धिक फैशन, सेमिनारी बहसों या नारों से नहीं आए हैं। इन्हें उन्होंने कुछ अपने पारिवारिक जीवन और बाकी सुदूर गांवों में भटकते हुए अनेक ज़िंदगियों का साक्षी बनकर अर्जित किए हैं।
घुमक्कड़ी उनका प्रिय शौक है। अधिकतर यात्राएं बिल्कुल अचानक और ‘जहां रात हो जाए वहीं डेरा डाल देने’ के निश्चिंत भाव से की गई हैं। इस आवारागर्दी में अक्सर ही कमल जोशी (उसके नाम से पहले स्व लिखने का मन नहीं करता) जैसा खिलंदड़ा लेकिन संवेदनशील यायावर और छायाकार उनके साथ होता है। सड़क मार्ग से दूर दुर्गम क्षेत्रों की यात्राएं पैदल हुई हैं। खाना मांग कर खाया है। रातें ग्रामीणों के घरों, मंदिरों, बाबाओं-संन्यासिनियों के मठों और कहीं-कहीं कामचलाऊ टेंटों में बिताई गई हैं। चलते-रुकते और ठहरते हुए ग्रामीण स्त्री-पुरुषों से सुख-दुख लगाया गया है। हर यात्रा और प्रत्येक पड़ाव में गीता स्त्रियों से मिलना-बतियाना कतई नहीं भूलती हैं, वह उत्तराखण्ड के दुर्गम गांव हों, श्रीनगर (कश्मीर) की डल झील का बोट हाउस हो, केरल के गांव हों, छत्तीसगढ़ में बस्तर के इलाके या फिर रत्नागिरि (महाराष्ट्र) के गांव। अधिकतर यात्राएं उत्तराखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में हुई हैं।
1987 में जब गीता ने गोपेश्वर के कॉलेज से चंद साथियों के साथ तुंगनाथ की पैदल यात्रा की थी, उससे पहले वे सामान्य अर्ध ग्रामीण-अर्ध शहरी मध्यवर्गीय लड़की थीं। विवाह से पहले तथा बाद में युवतियों के हिस्से आने वाली वर्जनाएं, उपेक्षाएं, ताने, गुलामियां, वगैरह उनके भी हिस्से में रहीं। बस, दादा जी एक सीख बचपन से साथ चली आई थी कि न खुद गलत करना है और न गलत सहना है। इस एक सीख ने गीता गैरोला को आम युवतियों से क्रमश: कुछ अलग बनाना शुरू किया। मायका हो या ससुराल, दफ्तर या बाजार या सड़क या कोई गांव और अनजाना परिवार, वे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने लगीं। वे लिखती हैं कि “सन 1987 से मेरे पंख उगने शुरू हुए।” उसके बाद का उनका जीवन इन्हीं उगते एवं मजबूत होते पंखों की मनचाही उड़ान है। उड़ान दर उड़ान गीता की दृष्टि पैनी होती रही और वे नदी-जंगल-पहाड़-आदमी-औरत-पशु-पक्षी और मिटी-पत्थर के भीतर भी देखना सीखती रहीं। ‘ये मन बंजारा रे’ की यात्राएं इन्हीं उन्मुक्त उड़ानों में गहरे तक देखे हुए का आख्यान हैं।
इसी दृष्टि का कमाल है कि प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर क्षेत्रों में की गई हैं यात्राओं में भी प्रकृति वर्णन नहीं मिलता। गीता की नज़र घाम तापते हिम शिखरों पर पड़ती तो है लेकिन अधिक देर तक वहां टिकी नहीं रहती। होता यह है कि “परिवार, समाज, धर्म के साथ संतान पैदा न कर सकने की शारीरिक कमी की सताई गई” और “गोठ में रम्भाती गाय, दूध के लिए रम्भाता बछड़ा, घास बांधने का इंतज़ार करती रस्सी, घर के अनगिनत कामों की याद से दौड़ती-भागती” महिलाएं उनके दिमाग में खदबद करने लगती हैं। उन्हें सौंदर्य दिखता है वहां जहां छांछ के बर्तन में मुंह डाल चुकी बकरी को वे उस परिवार के बच्चे की तरह पाती हैं और उसकी जूठी की गई छांछ मजे से पी जाती हैं, इस दुर्लभ आनंद का अनुभव करते हुए कि “पहाड़ी लोग अपने खेत, पशु, पेड़-पौधों से ऐसा ही तादात्म्य बनाकर अपने कठोर जीवन में रस घोलते हैं।” वे रास्ते चलते पेड़ों को कौली (आलिंगन) भरती हैं, उनसे बात करती हैं और कभी कल-कल-छल-छल बहती नदी को पतली धार बनी देखकर विकास के विद्रूपों पर दुखी होती है।
गीता बहादुर महिला हैं। रूढ़ियों से भिड़ती और उन्हें तोड़ती हैं। प्रत्येक बारह साल बाद होने वाली ‘नंदा राजजात यात्रा’ (मायके आई बेटी नंदा को कैलाश ससुराल भेजने का महत्त्वपूर्ण धार्मिक पर्व) में एक सीमा के बाद स्त्रियों का जाना वर्जित था। सन 2000 में गीता कुछ अन्य युवतियों के साथ यात्रा में अंत तक शामिल होकर महिलाओं के लिए वर्जित वह द्वार तोड़ आईं, विरोध को इस तर्क से ध्वस्त करते हुए कि “नंदा भी तो औरत है माई जी, औरत होने के नाते उसको भी जरूर माहवारी होती होगी। एक औरत (देवी) का इतना सम्मान और दूसरी तरफ जीती जागती औरतों के लिए यात्रा को वर्जित करना कहां का न्याय है।” इससे पहले हनोल के महासू मंदिर में प्रवेश करने का उनका प्रयास सफल नहीं हो पाया था। हर असफलता के बाद गीता और ताकतवर होती रहीं।
एक बार नन्हीं गीता ने अपनी दादी के सामने दादा का दिया ज्ञान बघारा था- “दादा जी कहते हैं, फूलों के रंग और पत्तों का हरापन सूरज उन्हें अपने इंद्रधनुष से देता है।” दादी गहराई से मुसकराई थी- “लाटी छोरी, तेरे बाबा को क्या पता रंग और हरापन सूरज देता है, पर चमक और खुशबू जनानियों के गीतों से आती है।” इन यात्राओं में गीता बार-बार देखती है कि इस सृष्टि में चमक और खुशबू भरने वाली जनानियों का जीवन खुद बहुत बदरंग और फीका है। उनका साक्षात्कार पंद्रह वर्ष में दूसरे बच्चे की मां बनने वाली ‘औरत’ से होता है, अपने पति को ‘खा’ चुकी बाईस साल की माई (जोगन) से होता है, बाप द्वारा चार सौ रु में बेच (ब्याह) दी गई लड़की से होता है, पति द्वारा अलकनंदा में धकेल दे गई लेकिन जीवित रह गई गर्भवती से होता है, जीप में चुपचाप आंसू बहाती उस युवती से होता है जो सहानुभूति का स्पर्ष पाते ही फूट-फूट कर रोने लगती है और ऐसी अनेक महिलाओं से जब वे उनकी दुख भरी कहानियां सुनती हैं तो सभी एक जैसी लगती हैं। तभी कहती हैं कि “औरतों की कहानियां कभी पुरानी होती ही नहीं।”
संयोग ही है कि ‘ये मन बंजारा रे’ पढ़ने से ठीक पहले मैने ‘उत्तराखण्ड की महिलाएं-स्थिति और संघर्ष’ (नवारुण प्रकाशन) नामक किताब पढ़ी थी। उसमें महिलाओं की जिन-जिन स्थितियों का उल्लेख हुआ है, गीता अपनी यात्राओं में उन स्थितियों को जीती हुई स्त्रियों से मुलाकात कराती हैं। इन पन्नों से गुजरना साबित करता है कि ‘इस देवभूमि में आज भी महिलाओं की जगह नहीं बन पाई है।”
यात्रा-वृतांतों का मुख्य स्वर महिला सम्मान और अधिकार है लेकिन उनकी नज़र से विकास की विसंगतियां, तबाह पर्यावरण, प्रकृति और इनसान के टूटते रिश्ते, मानवीय संबंधों का विघटन और उजड़ते गांवों की पीड़ा को भी गम्भीरता से देखती है। बर्षों बाद जब वे पिता और बहनों के साथ अपने छूटे हुए गांव की यात्रा करती हैं तो एक वीरान, खल्वाट, खण्डहर पहाड़ उनके सामने आता है- “आखिर में हम अपने घर गए…. वहां तो एक खण्डहर खड़ा था जिसके दरवाजे की कुण्डियों में ताले लगे थे पर छत टूट गई थी। दीवारें ढह गई थीं।” यह आज के पहाड़ की निर्मम सच्चाई है। वे उस सवर्ण मानसिकता की पर्तें भी उघाड़ती हैं जो “पहाड़ों से समुद्र के किनारों तक बिना एक दूसरे की भाषा समझे बिना बिल्कुल एक जैसी है।”
अनेक बार उदास कर देने वाले ये संस्मरण कोरी भावुकता से भरे नहीं हैं। गीता बदलाव के लिए लड़ने की जरूरत को रेखांकित करना नहीं भूलतीं। यह जानते हुए भी कि वर्षों से होते आ रहे आंदोलनों से इच्छित परिवर्तन नहीं हुआ है, वे नोट करती हैं कि “लोगों के प्रयासों से समाज के अंदर कोई परिवर्तन हुआ या नहीं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, पर प्रयास और जुनून हमेशा जारी रहने चाहिए जो आज भी मौजूद है और जुनून भी बना हुआ है।”
पिछले कई साल से कैंसर से लड़ने के साथ-साथ आंदोलनों में बराबर भागीदारी और यात्राओं का जुनून बचाए हुए बहादुर गीता को सलाम। सलाम कमल की यादों को भी जो इन संस्मरणों में खूब बोलता रहता है, जिसके खींचे फोटो आवरण से लेकर भीतर के पन्नों तक फैले हैं। भीतर के फोटो और बेहतर छपाई की मांग करते हैं, और कमल का नामोल्लेख भी। आवरण खूबसूरत बना है।
- ये मन बंजरा रे– गीता गैरोला। प्रकाशक- सम्भावना प्रकाशन (7017437410) पृष्ठ-232, मूल्य- 300 रु
One Comment
Prem Prakash Singh
Bahut sundar aalekh Naveen ji