संजीव भगत
पहाड़ वालों की हल्द्वानी बसने की ख्वाहिश ने इस छोटे से शहर को उत्तराखण्ड के वीआईपी शहर में तब्दील कर दिया है। कुमाऊँ के अलावा देश भर में फैले पहाड़ियों की भी एक चाहत हमेशा रहती है कि उनके पहाड़ के पुश्तैनी गाँव में उनके रहने की ठौर हो न हो लेकिन हल्द्वानी में उनके पास सर छुपाने की छत जरूर हो । अगर एक अदद छत न भी हो तो एक प्लाट (भूखण्ड) जरूर हो ।हल्द्वानी में रहने वाले लोगों को लगता है कि वे अभी ठेठ पहाड़ी ही हैं ।
ये शहर जो पहाड़ो की छोटी-मोटी ज़रूरतें पूरी करते हुए कुमाऊँ का सबसे बड़ा व्यावसायिक शहर बन गया । इस सफर को पूरा करने में और कस्बे से शहर बनने का ये सफर लगभग आधे दशक का है। 1980-85 के दौरान हल्द्वानी के लोग इलाज कराने नैनीताल जाते थे । पढ़ाई को मुख्य केन्द्र ही नैनीताल था । अब पासा पलट गया है । धीरे -धीरे इस शहर की आबादी और सुविधाएं बढ़ती चली गयी । दर्ज़नों स्कूल, मेडिकल कालेज, प्राइवेट अस्पताल खुल गये । बहुमंजिली इमारतें ,शोरूम, और हाउसिंग सोसायटी बन गयी । शहर लगभग चालीस वर्ग किलोमीटर तक फैल गया । ये शहर प्लाटों (भूखंड) का शहर बन गया।
सरकारी कर्मचारियों, फौजियों व देश भर से रिटायर कर्मचारियों का ठिकाना बन गया । देश भर में फैले रिटायर कर्मचारियों को ये लगता है कि वे यहां सुरक्षित हैं और जीवन के अंतिम समय में उन्हें यहाँ कोई न कोई सहारा दे ही देगा। इस शहर में लोग रोजगार के लिए कम अपना बुढ़ापा बिताने के लिए ज्यादा बसते हैं। कुमाऊँ भर के सरकारी कर्मचारी, शिक्षक इसी शहर में रहकर अपनी नौकरी करते हैं। अब बूढे मां-बाप के साथ उनके बच्चे नहीं रहते , वे रोजगार के लिए परदेश की उडान भर लेते है और हताश निराश बूढ़े लोग हल्द्वानी के प्राइवेट डाक्टरों के आसान शिकार बनते हैं ।
पहले लोग भाबर में घाम तापने आते थे और दो चार महिने रह कर वापस लौट जाते थे अब जो भाबर आया वो यहीं का होकर रह गया । रामगढ़, मुक्तेश्वर ,भीमताल के आसपास के इलाके के सैकड़ो गाँव वालों की जमीनें भाबर में भी हैं। वो दोनों जगह खेती करते थे उनके स्थाई आवास पहाड़ में और अस्थाई आवास भाबर में होते थे । अब इन लोगों ने अपना पारिवारिक ढाचा और बंटवारे इस तरह से कर लिये है कि कुछ पहाड़ में और कुछ भाबर में स्थाई रूप बस गये हैं।
कुमाऊँ के अधिकांश विधायकों और सांसदों की नेतागिरी भी इसी शहर से चलती है । इस समय भी दर्जन भर से अधिक विधायकों के साथ-साथ ब्लाक प्रमुख भी इसी शहर में अपना आशियाने बनाये हुए हैं। नेतागिरी चलाने के लिए अखबार की जरूरत होती है और कुमाऊँ के सभी बड़े दैनिक अखबार यही से निकलते हैं। देश में बनने वाली सभी गाड़ियों के शोरूम और सर्विस सेन्टर भी इसी शहर में हैं। कुमाऊँ की सबसे बड़ी फल और अनाज मण्डी भी यहीं है। कुमाऊँ के पहाड़ी जिलों में उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद भी एक भी फल और अनाज मण्डी नहीं बन सकी । अब शायद जियो मण्डी खुल जाय।
यूँ तो हर जगह की तरह इस शहर में भी सैकड़ो कमियां हैं । फिर भी ये शहर अपना सा लगता है । पहाड़ों की अधिकांश जरूरतें पूरी करता है । तभी पहाड़ की लड़की का एक सपना हल्द्वानी में घर बसाना भी होता है ।
अव्यवस्थित हल्द्वानी के लगातार फैलने के बाद भी यहां रहने पर महानगर वाली फीलिंग नहीं आती । छोटा -मोटा शहर लगता है। इलाज और पढाई के लिए बाहर भागना ही मजबूरी है। शहर में एक बेहतरीन लाइब्रेरी नहीं है। थियेटर के लिए कोई जगह नहीं है।
ये कहानी देश के दूसरों कस्बों और छोटे शहरों की भी हो सकती है , लेकिन पहाड़, भाबर और तराई के मैदान को जोड़ने वाला वाला ये इकलौता सबसे बड़ा शहर है।
उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद इस शहर का प्रशासनिक रूतबा थोड़ा घट गया है । अब जाड़ों में जिला न्यायालय का कैम्प हल्द्वानी नहीं आता । हल्द्वानी शहर व तहसील में सबसे बड़े प्रशासनिक अफसर एसडीएम का ही स्थाई कार्यालय है। आयुक्त, पुलिस उपमहानिरीक्षक, जिलाधिकारी व वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के कैम्प कार्यालय तो हैं। लेकिन जब उच्चतम न्यायालय के जज नैनीताल बैठते हैं तो उन्होंने इन अधिकारियों के कैम्प कार्यालयों को लगभग निष्क्रिय कर दिया है। अधिकांश कैम्प कार्यालय अब आवासीय परिसर में तब्दील हो चुके हैं।
उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद समाज कल्याण, वन विभाग, श्रमायुक्त , डेयरी विकास, प्रशिक्षण एंव सेवायोजन के राज्य स्तरीय कार्यालय तो है लेकिन ये कार्यालय भी आधे-अधूरे हैं। इनका मुख्य तामझाम देहरादून में ही है । अफसर भी वहीं टहलते हैं।
उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद हल्द्वानी में नेताओं की तो भरमार हो गयी लेकिन काम करने वाली ब्यूरोक्रेसी को ये शहर नहीं लुभा सका।
फोटो इंटरनेट से साभार