राजू सजवाण
‘डाउन टू अर्थ’ से साभार
सीड़, राजस्थान के उदयपुर जिले का एक गांव। देखने में यह राजस्थान के अन्य गांवों की तरह ही हैं, लेकिन जैसे ही आप गांव के थोड़ा अंदर पहुंचते हैं तो आप ठिठक जाएंगे। सड़क के एक ओर लगा बोर्ड आपका ध्यान बरबस ही खींच लेगा, जिस पर लिखा कि ग्रामदानी गांव सीड़ और इस बोर्ड के ठीक दूसरी ओर दिखेगा एक भवन, जहां लिखा है- ग्राम स्वराज भवन।
राजस्थान के उदयपुर शहर से लगभग 80 किलोमीटर दूरी पर स्थित गांव सीड़ वल्लभ नगर विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आता है। यह गांव महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज्य परिकल्पना की एक मिसाल है। गांधी के ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए आचार्य विनोवा भावे ने जिन गांवों को चुना था, उसमें से एक गांव है-सीड़। इन गांवों को ग्रामदानी गांव कहा जाता है।
क्या है ग्राम दान
ग्रामदान 1951 में गांधीवादी विनोबा भावे द्वारा शुरू किए गए भूदान आंदोलन का विस्तार है। भूदान का मतलब था, बड़े भूस्वामियों द्वारा भूमिहीनों के लिए भूमि का दान, लेकिन ग्रामदान का अर्थ है- पूरा गांव अपनी जमीन को एक आम ट्रस्ट के तहत रखेगा, जिसे ग्राम सभा या ग्राम समिति कहा जाता है। इसके बाद गांव के बाहर या ग्रामदान में शामिल नहीं हुए गांव के व्यक्ति को जमीन नहीं बेची जाएगी, लेकिन भू-स्वामी इसकी खेती जारी रख सकते हैं और लाभ उठा सकते हैं।
विनोबा भावे, जिन्हें महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू करते समय अपना पहला सत्याग्रही चुना था देश में, खासकर तेलंगाना क्षेत्र में असमान भूमि स्वामित्व को लेकर हो रही हिंसा से बहुत परेशान थे।
हैदराबाद से 40 किलोमीटर दूर पोचमपल्ली गांव में, एक जमींदार के युवा बेटे रामचंद्र रेड्डी ने जब भावे के समक्ष अपने गांव के भूमिहीन लोगों को अपनी जमीन का हिस्सा दान करने की पेशकश की। तब भावे ने फैसला किया कि वह पूरे भारत के भूस्वामियों को प्रेरित करेंगे कि वे स्वेच्छा से अपनी भूमि का एक हिस्सा भूमिहीनों को दान कर दें। इसे उन्होंने ‘भूदान’ आंदोलन का नाम दिया।
अगले कुछ वर्ष के बाद अपनी भूदान पदयात्रा के दौरान उन्हें अहसास हुआ कि लोगों को ग्रामदान के लिए प्रेरित किया जा सकता है। उन्होंने गांव के लोगों को अपनी जमीन को एक ट्रस्ट के पास रखने की अपील की और व्यवस्था की कि हर व्यक्ति न केवल भूमि का एक छोटा सा हिस्सा बल्कि उनकी आय का 1/40वां हिस्सा ट्रस्ट को दान करे, जिससे भूमिहीनों का भला हो सके।
भावे के ग्राम दान आंदोलन ने समुदाय में सभी को समान अधिकार और जिम्मेदारियों का अहसास कराया और उन्हें स्वशासन की ओर बढ़ने के लिए सशक्त बनाकर प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का मार्ग प्रशस्त किया।
आज, भारत के सात राज्यों में 3,660 ग्रामदान गांव हैं, जिनमें से सबसे अधिक ओडिशा (1309) में हैं। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में ग्रामदानी गांव हैं।
इनके अलावा असम में भी ग्रामदानी व्यवस्था थी, लेकिन सितंबर 2022 में असम सरकार ने असम ग्रामदान अधिनियम, 1961 और असम भूदान अधिनियम, 1965 को निरस्त कर दिया। उस समय तक असम में 312 ग्रामदान गाँव थे।
अलग-अलग राज्यों के अपने-अपने अधिनियम हैं, लेकिन ग्रामदान अधिनियम की कुछ प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं:
- गांव के कम से कम 75 प्रतिशत भूस्वामियों को भूमि का स्वामित्व ग्राम सभा को सौंप देना होगा। ऐसी भूमि कम से कम गांव की 60 प्रतिशत भूमि होनी चाहिए। कुछ राज्यों में यह प्रतिशत कुछ कम है। जैसे- राजस्थान में गांव की कुल भूमि में से कम से कम 51 प्रतिशत भूमि ग्रामसभा को दान करनी होगी।
- आत्मसमर्पण की गई भूमि का पांच प्रतिशत गांव में भूमिहीनों को खेती के लिए वितरित किया जाता है, लेकिन इस जमीन को पाने वाले लोग बिना ग्रामसभा की अनुमति के उसे हस्तांतरित नहीं कर सकते। बाकी जमीन दाताओं के पास ही रहती है; वे और उनके वंशज इस पर काम (खेती आदि) कर सकते हैं और लाभ उठा सकते हैं। लेकिन वे इसे गांव के बाहर या गांव में ऐसे व्यक्ति को नहीं बेच सकते जो ग्रामदान में शामिल नहीं हो।
- ग्रामदान में शामिल होने वाले सभी काश्तकारों को अपनी आय का 2.5 प्रतिशत समुदाय को योगदान देना चाहिए।
- लगभग सात दशक बाद ग्रामदानी गांव किस स्थिति में हैं, यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने महाराष्ट्र और राजस्थान के 10 ग्रामदान गांवों की यात्रा की। जिनके बारे में सिलसिलेवार रिपोर्ट की जाएगी। आज पढ़िए उपरोक्त
गांव सीड़ की कहानी
लगभग एक हजार आबादी वाले सीड़ गांव में वैसे तो किसी भी परिवार के पास जमीन का मालिकाना हक नहीं है, लेकिन गांव में कोई भी ऐसा परिवार नहीं है, जो भूमिहीन हो। मतलब, हर परिवार के पास इतनी जमीन है कि वह अपने परिवार के भरणपोषण के लिए खेती कर रहा है।
इसके बाद विनोबा पूरे देश में घूम-घूम कर ग्रामीणों को ग्राम दान के लिए प्रेरित करने लगे। विनोबा देश भ्रमण करते-करते उदयपुर के वल्लभनगर कस्बे में पहुंचे। जहां उनकी मुलाकात सेठवाना गांव के युवा कार्यकर्ता रामेश्वर प्रसाद से हुई।
रामेश्वर प्रसाद के साथ तब कई गांव के लोग थे। विनोबा ने इस दल से ग्राम दान करने की अपील की। “1959 की बात है। मैं अपने साथियों के साथ विनोबा जी से मिलने गया। विनोबा जी ने हमसे पूछा कि जितने भी लोग आए हैं, क्या उन सब हाथ के बुने कपड़े पहने हैं। मैंने विनोबा जी को बताया कि ये सभी किसान हैं। खेतों में कपास उगाते हैं और उसी कपास को धुनकर गांव के ही बुनकरों से अपने लिए कपड़े बनवाते हैं।
यह सुनकर विनोबा बहुत खुश हुए और उन्होंने कहा कि जिस तरह कपड़ा काम में लिया है, उसी तरह अपनी सारी आवश्यकता की चीजें गांव में बने हुए हों, ताकि गांव का पैसा गांव में ही रहे। गांव का स्वावलंबी बनाओ, गांव को एक परिवार बनाओ। गांव में प्रेम कायम करो और गांव में ग्राम स्वराज कायम करो। विनोबा जी का यह हुक्म हमें मिला और हमने इसकी पालना शुरू कर दी।” रामेश्वर प्रसाद यह बात कहते-कहते कहीं खो से जाते हैं।
रामेश्वर प्रसाद के प्रयासों से ही गांव सीड़ के साथ-साथ गोपा की भागल, हरियाखेड़ा, मंगरी फल्ला ने भी ग्राम दान का संकल्प पत्र भर दिया।
1954 में राजस्थान ने राजस्थान भूदान यज्ञन अधिनियम बना दिया था। जब विनोबा भावे ने ग्रामदान की पहल की तो 1960 में राजस्थान में राजस्थान ग्रामदान कानून पारित कर दिया गया।
“राजस्थान में ग्राम दान” के लेखक एवं कुमाराप्पा ग्राम स्वराज्य संस्थान के निदेशक अवध प्रसाद कहते हैं कि 1965 तक कुल 426 ग्रामों के ग्रामदान संबंधी संकल्प हुए। एक्ट के अनुसार ग्रामदानी गांवों की जिम्मेदारी भी भूदान बोर्ड पर आई, लेकिन अलग से ग्रामदान बोर्ड के गठन की कार्रवाई काफी धीमी गति से चली, जिसकारण ग्राम दान अभियान तेजी नहीं पकड़ पाया।
परंतु 1971 में एक बार फिर राजस्थान में ग्रामदान अभियान ने तेजी पकड़ी, जिसके बाद पुराने अधिनियम को खारिज राजस्थान ग्राम दान अधिनियम 1971 लागू किया गया। राजस्थान का ग्रामदान अधिनियम देश के अन्य राज्यों के कानूनों के मुकाबले सबसे मजबूत बताया जाता था।
सीड़ और उससे सटे तीनों गांव गोपा की भागल, हरियाखेड़ा, मंगरी फल्ला को राजस्थान ग्राम दान अधिनियम 1971 के तहत ग्रामदानी अधिसूचित कर दिया गया। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा 1991 में प्रकाशित किताब “हरे भरे गांव की ओर” में लेखक अनिल अग्रवाल व सुनीता नारायण सीड़ के बारे में लिखते हैं कि केवल यही एक गांव देश में हमने ऐसा देखा, जहां भूमि के इस्तेमाल की पूरी योजना और उसे लागू करने के नियम बने हुए हैं।
सार्वजनिक भूमि को दो श्रेणियों में बांटा गया है। पहली श्रेणी की भूमि में चाराई और पत्तियां तोड़ना वर्जित है। दूसरी श्रेणी की भूमि पर चराई की जा सकती है, लेकिन पत्तियां तोड़ना या पेड़ों को नुकसान पहुंचाना मना है।
गांव वाले साल में एक बार घास काटते हैं। किताब में 1987 के सूखे का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि सूखे के उन दिनों में भी 80 बैलगाड़ी घास काटी गई थी। बाजार में उस समय उस घास की कीमत 50 हजार रुपए थी। यह घास सब परिवारों में बराबर बांटी गई थी। गांव में न केवल सार्वजनिक बल्कि निजी जमीन पर खड़े पेड़ों को काटने की भी मनाही थी और ग्रामसभा से पूछ कर ही पेड़ काटे जा सकते थे।
सभा भी तभी अनुमति देती थी, जब पेड़ की लकड़ी का इस्तेमाल घरेलू उपयोग के लिए किया जाता हो। सीड़ की सीमा में 800 बीघा में फैला वन क्षेत्र भी आता है। जिस पर वन विभाग की नजर है और ग्राम सभा से यह वन क्षेत्र विभाग के हवाले करने का दबाव डालता रहता है, लेकिन ग्रामसभा इसका जमकर विरोध करती है।
ग्रामसभा के वर्तमान अध्यक्ष बाबरू राम कहते हैं कि जंगल हमारे अधिकार क्षेत्र में आते हैं, हम इसे सरकार को नहीं देंगे। यह जंगल गांव वालों ने खुद ही तैयार किया था। अपने हाथों से पेड़ लगाए थे। जब वन विभाग के कर्मचारी इस पर कब्जा करने आए तो गांव के हर व्यक्ति ने इसका विरोध किया। इस विरोध में महिलाओं की भूमिका प्रमुख रही।
स्वास्थ्य विभाग से रिटायर हो चुके किशन लाल मीणा कहते हैं कि हम तो पढ़ते थे, तब ग्रामदान शुरू हुआ। ग्रामदान मतलब खुद का प्रशासन, जितने अधिकार व बजट पंचायत को मिलते हैं, उतने ही एक ग्रामदानी गांव को भी मिलते थे। ग्रामदानी गांव घोषित होने के बाद सीड़ में चार-पांच ट्यूबवेल लगे, काफी काम हुआ। ट्रैक्टर भी दिए गए। लिफ्ट सिंचाई की योजना भी शुरू हुई, जिसने गांव वालों की खेती में बहुत मदद की।