कप्तान सिंह
उत्तराखंड विधानसभा के लिये पांचवाँ चुनाव 14 फरवरी को प्रस्तावित है। आम तौर पर उत्तराखंड को राजनीतिक रूप से जागरूक प्रदेश के रूप में जाना जाता है। अपने चुनाव परिणामों से उत्तराखंड की जनता ने बार-बार पूर्वानुमानों के विपरीत सत्ता का परिवर्तन कर ही उत्तराखंड की यह विशेष पहचान बनाई है। यहाँ जीतने के लिए कौन सा कारक महत्वपूर्ण है, यह भी लगातार अनिश्चित रहा है। लेकिन चुनाव परिणामो को प्रभावित करने वाला सबसे महत्वपूर्ण कारक है, ‘उम्मीद और असंतोष’।
उत्तराखंड का आम मतदाता अपनी सरकारों से ‘उम्मीद’ करता है कि दूरस्थ पहाड़ों तक सरकार की उपस्थिति हो, स्कूलों में मास्टर हों और स्वास्थ्य के हाल चिंताजनक न हों। लेकिन ऐसा कर पाना किसी भी सरकार की न तो प्राथमिकता में रहा है और न ही ऐसा संभव हो पाया है। ‘उम्मीद’ के टूटने पर ‘असंतोष’ का भाव उत्तराखंड के मतदाताओं के भीतर प्रबल रूप से दिखाई देता है, जो सत्ता परिवर्तन का कारण बनता है।
जनता की पसंद क्या है, यह कभी निश्चित नहीं रहा है। यहां विकास भी प्रायः मुद्दा नहीं बनता। यदि विकास को मानक माना जाता तो 2007 में प्रदेश में 3 सिडकुलों की स्थापना से औद्योगिक विकास का जो अतुलनीय रास्ता नारायण दत्त तिवारी सरकार ने तय किया था, उसके बाद जनता को अगले चुनाव में कांग्रेस को अस्वीकार नहीं करना चाहिये था। उससे भी महत्वपूर्ण परिघटना है, 2002 में ऐसी कांग्रेस के हाथों में सत्ता की चाभी दे देना, जिसका पूरे प्रदेश में अपना संगठन भी नहीं था। 2012 में केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस के ऊपर 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले के दाग लग चुके थे, दूर-दूर तक ‘खंडूरी है जरूरी’ का नारा गूंज रहा था। तब भारतीय जनता पार्टी की वापसी तय लग रही थी। लेकिन स्वभाव से बगावती उत्तराखंड की जनता ने आधे प्रतिशत मतों के अंतर से सरकार बदल दी। कांग्रेस को 33.75 प्रतिशत तो भाजपा को 33.25 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। 2016 में सर्वाेच्च न्यायालय के संरक्षण से हरीश रावत ‘लोकतंत्र के प्रहरी’ के रूप में स्थापित हुए। चाल-खाल, लोकल-वोकल, मडवा, झंगोरा ,रामदाना जैसे स्थानीय उत्पादों की ताकत से वे एक पहाडी ब्रांड एम्बेसेडर के रूप में उपस्थित हुए थे। चारों ओर से लग रहा था जैसे उनकी वापसी की तैयारी है, मगर हरीश रावत के हिस्से में पराजय आई ।
अनपेक्षित चुनाव परिणाम उत्तराखंड का राजनीतिक चरित्र है। यहां की जनता के मूड को हमेशा ‘बंद पत्तो की बाजी’ की रूप में देखा जाता है। यहां पूर्वानुमान लगाना कठिन है। लेकिन 2017 के चुनाव परिणाम को छोड़ दिया जाए तो मतदाताओं का रुझान कांग्रेस और बीजेपी के पक्ष में लगभग स्थिर रहा है। 32 से 36 प्रतिशत तक मतदाता भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के पास लगातार बना रहा है। 2 प्रतिशत मतों का बदलाव यहां सत्ता परिवर्तन का कारण बनता रहा है, लेकिन हरिद्वार तथा उधम सिंह नगर, जहाँ के मतदाताओं का स्वभाव उत्तर प्रदेश से मिलता है, में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की उपस्थिति भी पूर्व में लगातार बनी रही है। 2017 को छोड़, बहुजन समाज पार्टी को हमेशा 11 से 12 प्रतिशत तक मत प्राप्त होते रहे हैं। 2017 में 5 प्रतिशत मतदाता बहुजन समाज पार्टी से और लगभग 8 प्रतिशत मतदाता समाजवादी पार्टी तथा उत्तराखंड क्रांति दल आदि दलों से छिटककर जब भाजपा की ओर मुड़े, तो कांग्रेस के मतों में मात्र आधे प्रतिशत की कमी के बावजूद उसकी सीटों में 25 की में कमी हो गई। भाजपा को रिकॉर्ड 57 सीटों पर विजय हासिल हुई।
2017 के चुनाव को भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे पर केंद्रित कर दिया था, जिससे सारे चुनाव पूर्वानुमान ध्वस्त हो गये और बड़ी संख्या में अलग-अलग राजनीतिक दलों के मतदाता भाजपा की ओर खिंच आया।
इस पृष्ठभूमि में 2022 के चुनाव परिणाम काफी हद तक राष्ट्रीय और प्रदेश स्तर पर बदल चुके राजनीतिक परिदृश्य पर निर्भर करते हैं, जिसकी सही-सही व्याख्या कर पाना आज भी कठिन है। मोटे तौर पर देखा जाए तो सांस्कृतिक और हिंदू राष्ट्रवाद का नारा अब 2017 और 2019 की तरह प्रभावी नहीं है। चुनाव आचार संहिता लागू होने से पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बार देहरादून तथा हल्द्वानी में जो सभाएं कीं, उसमें 2017 के उन विकास के वादों को ही दोहराया गया, जिसे जनता पहले सुन चुकी थी। अर्थात् सरकार के पास पिछले 5 सालों में कोई बड़ी उपलब्धि बताने के लिए नहीं है। जबकि तीन-तीन मुख्यमंत्री बदले जाने के बावजूद उत्तराखंड में जमीनी हालातों में ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ है। पर्वतीय क्षेत्र में शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था बदहाल है। 2016 के बाद 2021 के आखिर में रोजगार के विज्ञापन युवाओं के आक्रोश को कम करने की बजाय बढ़ाने को काफी हैं,े क्योंकि इन 5 सालों में लाखों युवा ‘ओवरएज’ होकर नौकरी के अवसर गँवा चुके हैं।
राज्य में सामान्य तौर पर बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी जिन 15 प्रतिशत तक मतो को अपने पक्ष में करती है, वह मुस्लिम और जाटव संप्रदाय के मतदाता होते हैं। इस चुनाव में बसपा तथा सपा उस उत्साह और तेवर के साथ चुनाव में मौजूद नहीं हैं। इसका प्रभाव उनके प्रदर्शन में भी दिखाई ही देगा, लेकिन इस बीच आम आदमी पार्टी ने उत्तराखंड में लगातार भरोसा बढ़ाने के लिये सक्रिय राजनीति की है। उनकी चुनाव सभाओं में अच्छी भीड़ है। इस बार जब चुनाव प्रचार मैदान से अधिक सोशल मीडिया में लड़ा जा रहा है, तो यह तर्क भी आम आदमी पार्टी के पक्ष में जाता है। इससे उम्मीद बनती है कि जो 8 से 10 प्रतिशत मतदाता सपा और बसपा से छिटक कर भाजपा से जुड़ा, वह अब निराश है। उसकी फिर से वापसी की उम्मीद है। इसमें से कितने बड़े वर्ग को ‘आम आदमी पार्टी’ अपनी ओर मोड़ पाएगी, इस पर उत्तराखंड की राजनीति का गणित छुपा है।
यदि ‘आप’ 8 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त करती है, तो इसका नुकसान सीधे तौर पर कांग्रेस को ही पहुँचेगा।
उत्तराखंड के चुनाव को प्रभावित करने वाले जो अन्य तात्कालिक कारण दिखाई दे रहे हैं उनमें तराई के 6 सिखबहुल विधानसभा क्षेत्र हैं, जो अभी भाजपा के कब्जे में है। यहां किसान आंदोलन उसे नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा।
2017 में जिस 13 प्रतिशत मत की भाजपा में वृद्धि हुई, उसमें यशपाल आर्य, हरक सिंह रावत, सतपाल महाराज और सुबोध उनियाल आदिें क्षत्रपांे के निजी प्रभाव के मत भी शामिल हैं। यशपाल आर्य और हरक सिंह की बीजेपी से वापसी के बाद इसमें कांग्रेस के पक्ष में 50 प्रतिशत की वापसी होना तय है।
दिसंबर मध्य में हरिद्वार में आयोजित धर्म संसद में दी गई नफरती भाषणों की प्रतिक्रिया उत्तराखंड में अधिक नहीं देखी गई है। इसके विपरीत सोशल मीडिया में धर्म संसद की आलोचना अधिक हुई है। इससे इस बार चुनाव में धार्मिक आधार पर गोलबंदी के आसार भी कम दिख रहे हैं। कोरोना का प्रबंधन, बेरोजगारी और तीन -तीन मुख्यमंत्री का प्रयोग भारतीय जनता पार्टी की ‘एंटी इनकंबेंसी’ को बडा रहा है। भाजपा के कोर वोटर 30 प्रतिशत के आसपास हैं। 3 से 5 प्रतिशत प्रभावित होने वाले वोटर हैं। जो 13 प्रतिशत वोटर 2017 में बड़े थे, यदि वे इस बार भाजपा से तटस्थ हो गये तो भाजपा की मुश्किल बढ़ जाएगी। भाजपा की विजय इस बात पर निर्भर करती है कि जो 13 प्रतिशत नए मतदाता उसके साथ 2017 में जुडे, उनमें से 10 प्रतिशत से अधिक की वापसी न हो और आम आदमी पार्टी को 8 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त हो जाएं। यदि ऐसा होता है तो भारतीय जनता पार्टी की वापसी की संभावनाएं बनी रहती हैं, अन्यथा त्रिशंकु विधानसभा की भी संभावना है।
पंजाब में चरणजीत चन्नी को मुख्यमंत्री बनाए जाने, यशपाल आर्य की कांग्रेस में वापसी तथा बहुजन समाज पार्टी के कमजोर होने से अनुसूचित जाति के मतों का बड़ा प्रतिशत कांग्रेस की ओर झुकेगा। किसान आंदोलन का भी लाभ कांग्रेस को मिलने की संभावना है। यदि कांग्रेस अपने पिछले मतदान प्रतिशत को 5 प्रतिशत से अधिक सुधार लेती है, तो कांग्रेस के बहुमत से सरकार बनाने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
दूर से खुला और आसान दिख रहा उत्तराखंड का विधानसभा चुनाव समीकरणों की दृष्टि से उलझा हुआ है। कुल मिलाकर अभी बाजी के पत्ते बंद हैं और चुनाव रोचक होने की संभावना है।