जगमोहन रौतेला
उत्तराखण्ड बनने के दो दशक बाद प्रदेश सरकार को यहाँ के किसी लोकपर्व की सुध आई है। प्रदेश सरकार ने 2021 के सार्वजनिक अवकाशों में 20 साल बाद लोकपर्व हरेला को शामिल किया है। उत्तर प्रदेश के समय भी ऐसा नहीं था, उस समय भी यहाँ के लोकपर्वों घुघुतिया, फूलदेई ( फूल संक्रान्त ), हरेला और इगास पर सार्वजनिक अवकाश भले ही न होता हो, लेकिन स्कूलों में बच्चों की छुट्टियॉँ अवश्य होती थी। उत्तराखण्ड गठन के बाद इन लोकपर्वों पर स्कूलों में होने वाली छुट्टियों को भी बंद कर दिया गया। ऐसा किस साजिश और किसकी सलाह पर किया गया ? यह आज तक रहस्य ही है ।
इन लोकपर्वों में से घुघुतिया, हरेला और फूल संक्रान्त पूरी तरह से बच्चों के त्योहार हैं। उत्तर प्रदेश के समय बच्चे इन लोकपर्वों पर स्कूलों की छुट्टियाँ होने से पूरे उल्लास के साथ इन्हें मनाते थे और इनके बारे में जानकारी रखने के साथ ही भावनात्मक तौर पर अपनी सांस्कृतिक पहचान से जुड़े इन लोकपर्वों को एक तरह से आत्मसात भी करते थे पर उत्तराखण्ड बनने के बाद यहाँ की सांस्कृतिक पहचान से जुड़े इन लोकपर्वों पर स्कूलों की छुट्टियाँ रद्द हो जाने से पिछले 20 वर्षों में जो नई पीढ़ी तैयार हुई, वह अपने इन लोकपर्वों के बारे में कुछ नहीं जानती है। पिछले चार-पाँच वर्षों से जब से सोशल मीडिया का चलन तेजी से बढ़ा है तब से वह इन लोकपर्वों पर आधारित फोटो व स्लोगन को फारवर्ड कर के इन्हें ‘सेलीब्रेट’ करती है । सोशल मीडिया में फारवर्ड-फारवर्ड खेलने के बाद भी वह अपनी सांस्कृतिक पहचान से जुड़े इन लोकपर्वों के बारे में उस तरह गहराई से नहीं जानती है जिस तरह से उसकी पूर्ववर्ती पीढ़ियाँ अपने तीज-त्योहारों के बारे में जानती व समझती थी। इन लोकपर्वों के बारे में इस पीढ़ी का अपना ज्ञान बहुत ही उथला और चलताऊ किस्म का है।
घुघुतिया त्यार उत्तराखण्ड के कुमाऊँ अंचल की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान का त्योहार है जो हर वर्ष मकर संक्रान्ति और उसके अगले दिन मनाया जाता है। मकर संक्रान्ति के दिन सरयू पार वाले और संक्रान्ति के अगले दिन सरयू वार वाले घुघुतिया त्यार मनाते हैं। मकर संक्रांति को पूरे देश में सूर्य नारायण के उत्तरायण होने के पर्व के रूप में मनाया जाता है। उत्तराखण्ड के कुमाऊँ अंचल में यह एक लोक पर्व का रूप ले लेता है । इसे यहाँ घुघुतिया त्यार, पुषूड़िया त्यार व उत्तरैंणी त्यार भी कहते हैं। संक्रांति के पहले दिन मसांत से ही इस त्यौहार की तैयारी शुरु हो जाती है। आटे को गुड़ के पानी के घोल में गूँथा जाता है। उसके बाद उसकी छोटी-छोटी लोइयों को एक विशेष आकार में ढाला जाता है जो एक तरह से हिन्दी के चार के अंक की तरह होते हैं। इन्हें घुघुते कहते हैं। इसी कारण कुमाऊँ में मकर संक्रांति को घुघुतिया त्यार कहते हैं। घुघुतों के अलावा पकवानों में डमरू, तलवार, ढाल, दाड़िम के फूल व खजूरे भी बनाए जाते हैं। इन पकवानों को एक धागे में पिरोया जाता है जिसे घुघुते की माला कहते हैं।
संक्रांति के दिन प्रातः काल उठकर बच्चे नहाते हैं। नहाने के बाद अक्षत-रोली लगाकर घुघुते की माला बच्चों के गले में डाली जाती हैं। साथ की कुछ घुघुतों को एक पत्तल में लेकर बच्चे छतों में चढ़ जाते हैं और इन पकवानों को खाने के लिए कौवो को ‘काले कौव्वा, काले कौव्वा – घुघुती माला, खाले कौव्वा’ कहकर बुलाते हैं। इसे एक लोकगीत की तरह भी बच्चे लगातार बोलते जाते हैं —
‘काले कौव्वा का-ले ! का-ले !
ले कौव्वा पूड़ी मैंकें दे सुनैकि पूड़ी
ले कौव्वा ढाल, मैंकें दे सुनैकि थाल
ले कौव्वा तलवार,मैंकें बणें दे होश्यार
ले कौव्वा घुघुत, मैंकें दिजा सुनक मुकुट’
बच्चे कौवे को बुलाने के साथ ही हर पकवान के लिए उससे कुछ न कुछ माँगते हैं। जैसे कौव्वा तू पूरी ले ले लेकिन इसके बदले में हमें सोने की पूरी देना। कौव्वा तू हमारी घुघुते की माला ले ले लेकिन इसके बदले हमें सोने का मुकुट देना। तू ढाल ले ले लेकिन हमें सोने की थाल दे जा। कौव्वा तू हमारी तलवार ले ले लेकिन इसके बदले हमें होशियार बना देना।
बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी इस त्यौहार की बैसब्री से प्रतिक्षा रहती है। बड़े जहाँ गंगा स्नान के लिए तीर्थों में जाते हैं, वहीं बच्चों को घुघुते की माला गले में डाल कर कौव्वों को बुलाने का इंतजार रहता है। बच्चों में आपस में यह होड़ भी रहती है कि सवेरे सबसे पहले उठकर कौन कौव्वों को बुलाता है। घुघुते और दूसरे पकवानों को नाते-रिश्तेदारों में भी बाँटा जाता है। कुमाऊँ के सबसे बड़े तीर्थ बागेश्वर में संक्रांति के दिन बहुत बड़ा मेला भी लगता है। सरयू और गोमती नदी के संगम पर हजारों लोग पवित्र स्नान करते हैं। बागेश्वर में गंगा स्नान के बारे में एक कहावत भी प्रचलित है – ‘द्याप्त द्यखण जोगेश्वर और गंग नाण बागेश्वर’. अर्थात् देवता देखने हों तो जागेश्वर मन्दिर जाओ और गंगा नहाना है तो बागेश्वर जाओ।
इसी तरह चैत्र महीने की संक्रान्ति के दिन कुमाऊँ व गढ़वाल दोनों अंचलों में बच्चे सवरे नहाने के बाद छोटी-छोटी टोकरियों में फूल, चावल लेकर गाँव की हर देहली में ‘फूलदेई छम्मा देई, दैणी द्वार भर भकार’ कहते हुए फूल व चावल अर्पित करते हैं। जिसके बाद बच्चों को उपहार के तौर पर चावल, गुड़ और रुपए मिलते हैं। गढ़वाल में तो पूरे चैत्र महीने बच्चे हर रोज ऐसा करते हैं। इसी तरह दीपावली के बाद इगास का त्योहार पूरे गढ़वाल में बहुत ही हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। क्या प्रदेश सरकार उत्तराखण्ड की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान वाले इन लोकपर्वों पर भी सार्वजनिक अवकाश की घोषणा करेगी ? सवाल छुट्टी का नहीं, इन लोकपर्वों के सम्मान का है। जब स्कूलों में छुट्टियाँ ही नहीं होंगी तो बच्चे अपने त्योहारों को मनायेंगे कैसे ? और कैसे अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ेंगे ?