वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
शुरूआत तो यहां से करनी ही होगी कि बलिहारी इनवेस्टर आपको दुनिया दियो दिखाय। किन्तु हां जहां एक तरफ लेख लिखने तक होटलों में उत्तराखंड सरकार के रोड शोज की श्रंखला अहमदाबाद में भी जारी थी दूसरी तरफ देहरादून के प्रबुद्ध नागरिक 2 नवम्बर 2023 को देहरादून की स्मार्ट सिटी की दुर्दशा, जगह-जगह बेतरतीब खुदी सड़कों व अन्य मसलों पर चिंता जाहिर कर रहे थे। ऐसा नहीं है कि बाबूओं या मंत्रियों ने राज्य की चिंताजनक भू स्थितियों का जिक्र निवेशकों से नहीं किया तो आप ये न समझें कि निवेशकों को इनका पता नहीं होगा। पूरी दुनिया में ही 2013 की केदार आपदा , फरवरी 2021 की जाड़ों में ही दर्दनाक रेणी ग्लेशियल आपदा, 2023 जोशीमठ भूधंसाव की खबरें देखी व सुनी गईं थी। यदि आपका निवेशक इन पृष्ठभूमि में आपकी इन परिपेक्षों में औद्योगिक नीति पर सवाल नहीं करता है तो समझ लीजिये वह उत्तराखंड के प्रति संवेदनशील नहीं है। ऐसे निवेशकों के साथ बढ़ना खतरनाक राह पर बढ़ना होगा। किसी भी परियोजना निवेश के लिये आग्रह करने के प्रस्तुतिकरण में परियोजना स्थल के बारें में कम से कम एक दो पैरा लिखे ही जाते हैं। अन्यथा उन जानकारियों के लिये सवाल किये ही जाते हैं। पांच छः सितारा रोड शोज में ऐसा हुआ था कि नहीं, राज्य सरकार के बाबुओं, मंत्रियों या मुख्यमंत्री से सवाल किये थे कि नहीं ये तो वही भग्यवान जानेंगे जो उन रोड शोज में हाई टेबुलों में बैठे थे।
पर्यावरणीय प्रदूषण की ही तरह पारिस्थितिकीय हानि न हो इसके लिये अपने भवनों सड़कों आदि के लिये निवेशकों को भूगर्भीय व भूजलीय वैज्ञानिक सर्वेक्षण कराया जाना आवश्यक होना चाहिये। छः हजार एकड़ लैंड बैंक की बात सारे निवेशकों के बताते रहे। निवेशकों ने भी शायद ही पूछा होगा कि ये पहाड़ में हैं या तराई में या किसी नये बसाये जाने वाले शहर में ? या कोई कृषि भूमि है जिसका लैंड यूज परिवर्तन करना होगा। जल स्त्रोत कितने दूर हैं आदि आदि ?
जानने योग्य रहेगा कि उत्तराखंड सरकार ने ऐसी कौन सी शर्तें इनवेस्टर्स के साथ अनुबंधों में लगाई है जिससे आश्वस्त हुआ जा सके कि उनके द्वारा निवेशित उद्योग उत्तराखंड की अति संवेदनशील पारिस्थितिकी को प्रभावित नहीं करेंगे। परन्तु ये तो तभी हो सकता था जब संवेदनशील क्षेत्रों का या उन क्षेत्रों का जिनका हवाला उसने छः हजार एकड़ के लैंड बैंक में दिया है उनका बेस लाइन आंकड़े पारिस्थितिकीय इंडीकेटर्स के साथ तैयार किया जाता। यदि ऐसा नहीं किया गया है तो कम से कम अभी भी उन लैंड बैंकों के आंकड़े तैयार करिये। तभी तो जाना जा सकेगा कि उद्योगों से स्थानीय पारिस्थितिकी में किस तरह के परिवर्तन आये हैं। यदि लगातार ऐसा होगा और मामला न्यायालयें में जाता रहेगा तो जो पारिस्थितिक हानि कई गुणा बढ़ जायेगी उसके आंकलन व क्षतिपूर्ति के लिए भी मानक तय किया जान चाहिए।
किन्तु यदि एक जिम्मेदार पारिस्थितिकीय संवेदनशील नियमित आपदा झेलते राज्य के मुख्य सेवक या अन्य लोक सेवक होने के बावजूद निवेशक को स्पष्ट शब्दों में आप से यह सुनने को नहीं मिल रहा है कि राज्य में पारिस्थितिकी व पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले उद्योगों पर सख्ती बरती जाती है क्योंकि राज्य में ग्लेशियर टूट रहे हैं, भूस्खलन के नये नये क्षेत्र बन रहे हैं, फ्लस फ्लड लगातार आ रहे हैं, शहर धंस रहे हैं और वनों में जैव विविधिता हानि से लगातार मानव वन्य जीव संघर्ष बढ़ रहे हैं। तपे तपाये इनवेस्टर्स आपका बॉडी लैंगवेज पढ़ कर समझ जाते हैं कि आप चाहते हैं कि इन्वेस्टर आपकी छवि सुधारने के लिये या आपकी राजनैतिक स्पर्द्धा के लिये समिट में आने का आपका निमंत्रण स्वीकार कर ले। जिससे आपको आने वाले चुनावी माहौल में राजनैतिक बढ़त मिल सके। ऐसे में होटलों में हुये तथाकथित रोड शोज में वो अपने मुंह का जायका क्यों खराब करेगा। निवेशक क्यों कहेगा आ बैल मुझे मार। यह संदेश तो उसके पास आपकी मेहमान भक्ति से पहुंच ही गया कि यदि सरकारी धूप में रह कर वह प्रकृति के साथ बेरहमी करेगा तब भी उसका ज्यादा कुछ नहीं होने वाला है। निवेशक का रूप लिये भूभक्षी निवेशकों की भी कमी नहीं रहती है। ऐसे में उद्योगों के नाम पर भू उपयोग में आसान बदलाव नहीं होना चाहिये। जिन औद्यागिक प्रयोजनों के लिये भूमि ली गई है या दी गई है उस पर कड़ी निगरानी होनी चाहिये। यदि ऐसा न हुआ तो सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक दीर्घावधि नुकसान होने की संभावनाओं से इन्कार भी नहीं किया जा सकता है।
कोई भी एम ओ यू पत्थर की लकीर नहीं होता है। यदि ईमानदारी से हो तो हर एम ओ यू में यह उल्लेख होता है कि किन-किन स्थितियों में किन शर्तों के साथ अनुबंध खत्म किया जा सकता है। उत्तराखंड के संदर्भ में तो इसमें पर्यावरणीय व पारिस्थितिकीय हानि स्थानीय जन के हक हकूक पर चोट की बात होनी चाहिये। हकीकत तो यह है कि राज्य में एक नहीं कई उदाहरण हैं जब समर्थवानों ने, चाहे वह सरकार का अंग हो या बड़ा उद्योग उसने स्थानीय जन के पारम्परिक रास्तों, पानी के स्रोत, जंगल आदि तक पहुंचने के रास्ते बंद कर दिये।
किसी भी चुनाव में पांच साल के लिए चुनी गई प्रजातांत्रिक सरकारें सरकार के तौर पर कोई भी अनुबंध नैतिक रूप से केवल जनता का प्रतिनिधित्व करते हुए कर सकती है। यदि आने वाली सरकार न माने तो क्या होगा ? कहीं ये तो अनुबंध में नहीं ही होगा कि आने वाली सरकार भी इन अनुबंधों को राज्य की जनता के विरोध पर भी जारी रखेगी। उनके पास अनुबंध की शर्तों पर पुनर्विचार का अधिकार ही नहीं होगा। वैसे कुछ माह पहले चिंताजनक समाचार थे कि राज्य में ऐसे नियमतः संशोधन हो रहे हैं कि एक खास सीमा से अधिक धनराशि के निवेश करने वालों को राज्य सरकार जो सुविधायें या रियायतें देगी उसकी जानकारी नहीं ली जा सकेगी। जनता, जिसके पैसे पर रोड शो होते हैं, निवेशकों की आवभगत की जाती है उसे यह जानने का हक है कि सरकार ने जिन बातों पर सहमति दी हैं वो क्या हैं। पांच साल की सरकारें स्थानीय जन के भविष्य व संसाधन दांव में नहीं लगा सकती हैं। वे जन हितों व जन सेंसाधनों की केवल ट्रस्टी भर हैं। मालिक नहीं। प्रजातंत्र में जनता सर्वोपरी है।
अनुबंधों का क्या। पीपीपी मोड के सेवा अनुबंधें में उत्तराखण्ड में जो होता रहा है उसकी भुक्तभोगी भी जनता रही है खासकर स्वास्थ्य सेवाओं के संदर्भ में। जनता का पैसा निजि हाथें में जाये और जनता को सेवा के नाम पर मायूसी ही हाथ लगे यह तो ठीक नहीं है।
अनुबंध तो जनता के साथ सुशासन देने का भी है। फिर भी दागी मंत्री अधिकारियों पर धसक जमाये हुये हैं। हालांकि राज्य के पास अच्छी खासी सिद्ध प्रशासकीय क्षमता वाले विधायकों की बेंच स्ट्रैंथ है जिसका उपयोग वांछित है।
लौटें फिर राज्य की ओर से देश विदेश के महानगरों में सितम्बर-अक्टूबर 2023 होटलों में हुए निवेशक रोडशोज में। इनमें उद्योगपतियों ने कैसी भागीदारी कर गर्मजोशी दिखाई वो तो उत्तराखंड मीडिया में अपनी स्वतंत्र कवरेज से नहीं मालूम चला। जो कुछ छपा वो हैण्ड आउटस से ही एक सा छपा लगता है या जैसे सरकार द्वारा बताया गया। ऐसा नहीं हुआ कि उन देश विदेश के महानगरों की डेट लाइन से छपे इक्का दुक्का समाचारों को उत्तराखंड राज्य में बताया गया हो या सरकारी सूचना विभाग द्वारा ही प्रसारित किया गया हो। यदि वास्तव में होटलों के रोड शोज को देश विदेश में सुर्खियां मिली होती तो गोदी मीडिया ते सबसे पहले लपक कर उत्तराखंड में आयतित कर देता।
कुछ काम भारी धनराशि लिये हुये लौबिस्ट भी करते हैं तभी तो ऐसा होता है कि अभी बैठक शुरू भी नहीं होती है कि अनुबंधों पर हस्ताक्षर किये जाने की तस्वीरें मीडिया में दे दी जाती हैं। उनके मुंह में घी शक्कर जो लगभग अस्सी हजार करोड़ रूपये के निवेश के राज्य में आने की बात कर रहें हैं। हाथ कंगन को आरसी क्या। कुछ माह में बैंक खातों की ट्रैकिंग व उनकी प्रगति रिपोर्टों के विश्लेषण से पता चल जायेगा।
लैंड बैंक के अलावा एक बात और ताल ठोक के कही जा रही थी निवेशकों से कि राज्य में 30 से ज्यादा नीतियों में संशोधन किया है। उत्तराखंड में बाहर वालों को जमीन खरीदने की आसानी व शराब घर-घर में पहुंचाने का प्रोएक्टिव नीतियों जैसी नीतियों का भुगतान इन नीति परिवर्तनों से जनता न करे यही प्रभु से प्रार्थना है। ऋषिकेश में तो शराब की दुकान खुलने लगी थी और घर-घर में मीनी बार खुलने के समाचार तो आने ही लगे थे। ये जनता के विरोध के कारण ही रुक पाये थे।
इन्वेस्टर्स समिट उत्तराखंड 2018 को यदि याद करें तो उस समिट में उपस्थित उद्योगपतियों में अधिकांश चर्चा में वे ही चेहरे थे जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अक्सर हर तरह के ऐसे देशी विदेशी इनटूरेज में रहते थे जहां निवेशकों का रोड शो करवाना होता है। तब आज के एक बहुचर्चित उद्योगपति का विवादास्पद वीडियो भी वायरल हुआ था कि हम तो जहां प्रधानमंत्री कहते हैं वहां शामिल हो जाते हैं। हर सरकारों के ऐसे चहेते व्यवसायिक चेहरे होते हैं।
इनवेस्टर समिट के लिये कैसे-कैसे अवांछितों को आमंत्रण इस राज्य से दिया जा चुका है इसकी एक बानगी देखने के लिये जरा पुराने इतिहास में जाइये। यह तो सभी को याद होगा कि दक्षिण अफ्रिका के विवादित रहे व्यवसायी गुप्ता बंधुओं के लाड़लों की औली में होने वाली शादियों से संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरणीय खतरों की संभावनाओं के पक्ष को सुनकर नैनीताल उच्च न्यायालय इतनी गंभीर टिप्पणी कर चुका था कि यदि ये मामला हमारे सामने कुछ दिन पहले लाया जाता तो शायद हम इन शादियों पर रोक लगाने की भी सोच सकते थे। उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा नैनीताल हाई कोर्ट को बताया गया कि 18 से 22 जून 2019 तक हुई व्यवसायी गुप्ता बंघुओं के दो बेटों के विवाहोपरान्त औली स्कीइंग आयेजन स्थल से 370 टन कूड़ा कचरा हटवाया गया है। बताया गया कि वहा व्यवस्था न होने से इस दौरानं 200 मजदूरों ने खुले में शौच किया। किन्तु तबके भाजपा मुख्यमंत्री जी का कहना था कि ये शादियां तो मुम्बई में इसके पूर्व में इन्वेस्टर समिट में व्यवसायियों से की गई उनकी इस अपील का प्रगतिफल है कि वे लोग शादियों के लिए स्विटजरलैंड न जायें बल्कि हमारे उत्तराखंड में आयें।
आशा की जानी चाहिये कि जिन जिलों में सरकारों द्वारा बनाये गये औद्योगिक क्षेत्रों में गतिविधियां नहीं हुई हैं उनको सक्रिय करने में निवेशकों से मदद मिलेगी। छः हजारी एकड़ लैंड बैंक में इन खाली पड़े प्लौटों को भी जोड़ा जाना चाहिये।
जो भी हो राज्य को घर का जोगी जोगटा आन गांव का सिद्ध वाली परिपाटी छोड़नी होगी। राज्य में लगे उद्योग लड़खड़ा रहें हैं या बंद हो रहे हैं हालांकि स्थानीय जन अपनी उद्यमशीलता से व जोखिम लेने की ताकत से रिवर्स माइग्रेशन के स्तुत्य उदाहरण भी प्रदर्शित कर रहे हैं। समाचार था कि एक स्थानीय उद्यमी तो पहाड़ों के लिए प्राइवेट सिडकुल बनाने की योजना पर कुमाऊँ में आगे बढ़ चुके थे परन्तु सरकारी उपेक्षाओं से उद्यमियों का उत्साह मरता रहा है।
अंततः एक विनम्र अनुरोध कि इन उद्योगों के लिये सिंगल विंडो फैसीलिटी जनता की राजधानी गैरसैण में देने का प्रयास करिये। इससे वह दिन जल्दी ही आयेगा जब राज्य में उत्तराखंड ग्लोबल इनवेस्टर्स समिट की जगह उत्तराखंडी ग्लोबल इनवेस्टर्स समिट होगा व राज्य के युवा वास्तव में 70 प्रतिशत रोजगार की आशा इन उद्यमों में करेंगे।
जन महत्व का सवाल यह भी है कि यदि आमंत्रित निवेशकों के लिये छः हजार एकड़ के लैंड बैंक बनाये जा सकते हैं तो चार सौ से ज्यादा आपदा जोखिमों को झेलते गांवों के पुनर्वास या जोशीमठ जैसे भू धंसाव भूस्खलनों को झेलते शहरों के लिये लैंड बैंकों को बनाने में तत्परता क्यों नहीं आ रही हैं ? जोखिम भरे स्कूल हैं जोखिम भरे खेती के क्षेत्र भी हैं।
उत्तराखण्ड सरकार ने आने वाले ग्लोबल समिट 2023 का थीम पीस टू प्रौसपेरिटी रखा है। इससे ज्यादा आवश्यक है पीस थ्रू प्रौसपेरिटी चमंबम जीतवनही चतवेचमतपजल सम्पन्नता से शांति भी अर्जित हो। यदि निवेशक सम्पन्नता के लिये प्रकृति को अशांत कर दे, आपदाओं को उत्प्रेरित कर दे तो उस संपन्नता का क्या। उत्तराखंड में तो विनाशकारी पर्यटन रोको विप्रो की मांग श्रीनगर गढ़वाल में कुछ पर्यटन अध्येयताओं द्वारा तभी शुरू हो गई थी जब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा था। आज भी लोग यही चाहते हैं। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंथेनियो गुटेरेस का कहना भी यह रहा है कि हम जलवायु आपदा से तभी निकल सकते हैं यदि हम प्रकृति के साथ शांति स्थापित करें। प्रकृति से विरोध में रह कर प्रगति न करें।