राजीव लोचन साह
वर्ष 1991 में कांग्रेस की तत्कालीन नरसिंहाराव सरकार ने निजीकरण और आर्थिक उदारीकरण का जो चक्र शुरू किया था, उसने इधर 360 डिग्री की यात्रा पूरी कर ली है। उससे पहले जीवन बड़ा सरल था। पीने का पानी जल सप्लाई की टोंटियों से मिल जाया करता था। सरकारी नौकरियों में पेंशन होती थी। प्राथमिक स्वास्थ्य और प्राथमिक शिक्षा की सुविधायें लगभग मुफ्त में मिल जाया करती थीं। फिर चीजें बदलनी लगीं। सरकार ने तय कर लिया कि वह इन जिम्मेदारियों से हाथ खींच लेगी। लोगों का भला अब बाजार यानी बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों के माध्यम से होगा। पक्की नौकरियाँ खत्म कर दी जायेंगी और पेंशन का तो कोई स्थान ही नहीं रहेगा। शिक्षा-स्वास्थ्य निजी हाथों में होगा। आपकी जेब में पैसा हो तो आप उसका उपभोग करें, न हो तो आप अशिक्षित रहें या जल्दी मर जायें। सत्ता में रहने वाली पार्टियों में तो इस निजीकरण और उदारीकरण को लेकर पूरी सहमति थी। इसीलिये चाहें कांग्रेस की सरकार हो या कि भाजपा की, ये नीतियाँ आगे बढ़ती रहीं। जनता के एक बड़े वर्ग में इन नीतियों को लेकर क्षोभ और असंतोष था, मगर उसका प्रतिरोध बहुत कारगर नहीं हो सका। सरकार को जब लगता कि जनता का गुस्सा बहुत अधिक बढ़ गया है, तो कई बार उसने हाथ खींच लिये। सबसे ताजा उदाहरण किसान आन्दोलन का है, जहाँ सबसे जिद्दी मानी जाने वाली नरेन्द्र मोदी की सरकार को भी किसानों के सामने झुक कर तीन कृषि कानून वापस लेने पड़े। मगर यह सिलसिला थमा नहीं है। इधर 14 जून को दो बड़ी घटनायें घटीं। पहले सरकार ने सैन्य सेवाओं के लिये ‘अग्निपथ’ योजना घोषित की। फौज में सिर्फ सार साल के लिये रोजगार देने वाली इस योजना का अगला कदम यह भी हो सकता है कि भावी युद्धों में सेना भी किराये पर ली जाने लगे। उसी रोज भारत गौरव योजना के अन्तर्गत भारत की पहली निजी ट्रेन कोयम्बटूर से लेकर साईं नगर शिरडी तक दौड़ी। उदारीकरण की दौड़ निरन्तर तेज हो रही है।