नवीन जोशी
फिरोजाबाद के बन्ने मियां 86 साल की उम्र में छह साल पहले अल्लाह को प्यारे हो गए थे. 93 साल के फरहत मीर खान महीनों से बिस्तर पकड़े पड़े हैं. 90 साल के सूफी अंसार हुसेन दिल्ली के एक अस्पताल से इलाज कराकर चंद रोज़ पहले घर लौटे हैं. इन सबके नाम पुलिस ने नोटिस भेजा है कि उनसे जिले की शांति को खतरा है. गिरफ्तारी से बचने के लिए उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश होकर जमानत करानी होगी. फिरोजाबाद पुलिस ने ऐसे करीब 200 लोगों को चिह्नित किया है जिन्हें संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान शांति के लिए खतरा बताया गया है.
कानपुर में 20 दिसम्बर के नागरिकता कानून विरोधी प्रदर्शन में 13 लोग गोली लगने से घायल हुए थे. इनमें सभी मुसलमान हैं. इनमें तीन की अस्पताल में मौत हो गई थी. घायल होने वालों में तीन नाबालिग हैं. पुलिस ने उनके नाम निषेधाज्ञा का उल्लंघन करने, हिंसा और तोड़फोड़ करने के लिए एफआईआर दर्ज कराई है.
आईआईटी कानपुर में नागरिकता कानून संशोधन के विरुद्ध शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दौरान छात्रों ने फैज़ अहमद फैज़ की मशहूर नज़्म ‘देखेंगे हम भी देखेंगे’ गाई, जिसे हिंदू धर्म विरोधी होने की शिकायत पर जांच के लिए कमेटी गठित की गई है. (यह वही लोकप्रिय नज़्म है जिसे जाने कितनी बार उत्तराखण्ड में भी जन आंदोलनों के दौर में गाया जाता रहा है. गिर्दा ने इसका आसान हिंदी में रूपांतरण भी किया था.)
सम्भल में प्रदर्शन के दौरान तोड़फोड़ और हिंसा फैलाने के लिए 17 लोगों के खिलाफ पुलिस ने विभिन्न धाराओं में पुख्ता रिपोर्ट दर्ज़ करके जांच-पड़ताल शुरू कर दी है लेकिन 23 साल के मुहम्मद फीरोज़ की गोली लगने से मौत की एफआईआर मात्र औपचारिक और कच्ची है.
उत्तर प्रदेश की ये चंद तस्वीरें पिछले एक पखवारे के दौर की हैं. ऐसी बहुत सी सूचनाएं हैं. कुछ मीडिया में आई हैं, कुछ बिल्कुल नहीं. संशोधित नागरिकता कानून के विरोध में प्रदर्शनकारियों का उत्तर प्रदेश में जबर्दस्त दमन हुआ और अब भी हो रहा है. मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने खुद ‘दंगाइयों से बदला’ लेने की घोषणा की. उसके बाद उनकी पुलिस बेलगाम हो गई है.
सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि इस दमन में पुलिस का क्रूर साम्प्रदायिक चेहरा खुलकर सामने आया है. एक नहीं, कई दृष्टांत हैं जिनमें पुलिस के बड़े अधिकारी तक आरएसएस या ‘ट्रोल आर्मी’ की भाषा बोलते देखे-सुने गए हैं. एक वायरल वीडियो में मेरठ के एसपी सिटी मुस्लिम बहुल इलाके में काला-पीला फीता बांधे प्रदर्शनकारियों को डपटते हुए कह रहे हैं कि ‘इस देश में नहीं रहना तो पाकिस्तान चले जाओ. खाते यहां का हो और गाते कहीं और का.’ कानपुर में पुलिस जवान मुस्लिम मोहल्लों में प्रदर्शनकारियों को खदेड़ते हुए उन्हें ऐसी गालियां दे रहे हैं, जिन्हें लिखा नहीं जा सकता. एक और वीडियो में एक पुलिस अधिकारी मंच से मुसलमानों को लानत भेज रहे हैं कि तुम लोग कैसी औलादें पैदा करते हो जिनको काबू में नहीं रख सकते? मुस्लिम-बहुल मुहल्लों में घुस कर बाहर खड़ी गाड़ियां तोड़ते पुलिस कर्मियों के कई वीडियो सामने आए हैं.
उत्तर प्रदेश के बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, मुरादाबाद, रामपुर, अलीगढ़, आजमगढ़, बनारस, कानपुर, गोरखपुर, आदि शहरों से गम्भीर शिकायतें आई हैं कि पुलिस ने मुसलमानों के घरों में घुसकर मारपीट-तोड़फोड़ की, सामान लूटा और बिजली-पानी के कनेक्शन काट दिए. भाजपा नेता, मंत्री और वरिष्ठ अधिकारी इन हरकतों का बचाव कर रहे हैं.
भाजपा शासित राज्यों में ‘हिंसा फैलाने वालों’ के नाम पर शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों का दमन किया गया. उत्तर प्रदेश इसमें सबसे आगे रहा. सबसे ज़्यादा 20 मौतें उत्तर प्रदेश में हुईं हैं. कई जगह पुलिस ने गोली चलाई लेकिन पुलिस महानिदेशक कहते रहे कि पुलिस ने गोली नहीं चलाई. बाद में जब कुछ जिलों के पुलिस अधिकारियों ने माना कि गोली चलानी पड़ी तो पुलिस महानिदेशक ने पुलिस का बचाव करते हुए कहा कि आत्मरक्षा में गोली चलानी पड़ी. पुलिस के निशाने पर मुसलमान और वे एक्टिविस्ट विशेष रूप से हैं, जिन्हें ‘अर्बन नक्सल’ कहा गया है. मेरठ एसपी का ‘पाकिस्तान चले जाओ’ कहना और कानपुर में मुसलमानों के लिए घोर अपशब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्हें मारना-पीटना साबित करता है कि पुलिस मुसलमानों के प्रति नफरत से भरी हुई है और उसका खुलेआम प्रदर्शन कर रही है.
दागों के समय प्रादेशिक पुलिस बलों का साम्प्रदायिक चेहरा पहले भी सामने आया है. इस बार हिंदू-मुस्लिम दंगे नहीं हो रहे. जनता नागरिकता कानून का लोकतांत्रिक विरोध कर रही है. प्रदर्शनकारी कोई समुदाय-विशेष नहीं हैं. वे असहमत जनता का एक बड़ा हिस्सा है. शासन-प्रशासन का उसे हिंदू-मुस्लिम नज़र से देखकर एक वर्ग-विशेष का नफरत के साथ दमन करना अत्यंत विचलित करने वाला है.
ऐसा लगता है जैसे पुलिस को ऐसा करने के निर्देश मिले हुए हों. वर्ना क्या वजह है कि पुलिस के खिलाफ अत्याचार, दमन और प्रताड़ना और जबरिया गिरफ्तारी की शिकायतें सुनने-जांचने की बजाय उसे सीधे क्लीन चिट दे दी गई है. मरने वालों और घायलों में मासूम बच्चे, किशोर, और रोजी-रोटी की तलाश में निकले गरीब-गुरबे भी हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने प्रदेश सरकार की निंदा की तो मुख्यमंत्री ने जवाब में हिंसा के वीडियो आयोग को भिजवा दिए. हिंसा किसने की, और भाजपा शासित राज्यों में ही हिंसा क्यों हुई, इस पर भी खूब सवाल उठे हैं. लाठी-गोली चलाती पुलिस के साथ सादे कपड़ों में हथियाबंद लोग देखे गए. ये कौन थे? इसकी निषप्क्ष जांच नहीं हो रही. प्रदर्शनकारियों को बदनाम करने और सबक सिखाने के लिए ही हिंसा नियोजित थी, ऐसे आरोप कैसे साफ होंगे?
प्रदर्शकारियों के दमन में योगी सरकार ने सभी लोकतांत्रिक मर्यादाएं ध्वस्त कर दी हैं. शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन नागरिकों का संवैधानिक अधिकार है लेकिन योगी सरकार ने पूरे प्रदेश में निषेधाज्ञा लगाकर इसे न केवल रोका बल्कि बर्बर दमन भी किया. स्वयं मुख्यमंत्री ने प्रदर्शनकारियों को ‘दंगाई’, ‘बलवाई’, ‘अराजक-असामाजिक तत्व’ कहा और एक को भी नहीं बख्शने और बदला लेने की चेतावनी दी. नागरिकता कानून के विरोध को मुसलमानों और मुस्लिम-परस्त पार्टियों तथा अर्बन नक्सलों की हिंसा बता कर उनसे दुश्मनों की तरह निपटा गया. लखनऊ में पूर्व आई जी एस आर दारापुरी और संस्कृतिकर्मी दीपक कबीर को भी दंगा भड़काने के आरोप में जेल में डाल दिया. 77 साल के कैंसर रोगी दारापुरी जी को घर से गिरफ्तार किया गया. उन्होंने फेसबुक पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन की अपील की थी.
दमन के पहले दौर के बाद अब गिरफ्तार तथा चिह्नित लोगों को आर्थिक दण्ड की वसूली और सम्पत्ति जब्त करने की नोटिसें दी जा रही हैं. लखनऊ में 152 लोगों से कुल 2.54 करोड़ रु वसूलने की नोट्सें भेजी गई हैं. बिजनौर में 19.70 करोड़ रु की 43, सम्भल में 15 लाख रु की 26, कांपौर में 10.97 कर्ड़ रु की 15,रामपुर में 14.86 करोड़ रु की 28 और मुज़फ्फरनगर में 56.40 लाख रु वसूलने के लिए 40 नोटिसें भेजी गई हैं. नोतिस का ज़वाब देने के लिए सात दिन का समय दिया गया है. उसके बाद सम्पत्ति-ज़ब्ती की कार्रवाई करने चेतावनी दी गई है.