भुवन चन्द्र पंत
लोकपर्व वैशाखी (विखौती) का दिन 14 अप्रैल 1997, सुबह दस -साढ़े दस बजे का समय रहा होगा, मैं अपने दफ्तर में बैठा ही था, एक उड़ती खबर आई कि दिल्ली से नैनीताल आ रही एक यात्री बस नैनीताल से एक किलोमीटर पहले कूड़ाखड्ड के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गयी है। दूसरे ही क्षण यह भी सुनने में आया कि दुर्घटनाग्रस्त घायलों में तुषार तिवारी भी शामिल हैं, जो प्रेस के कार्य से दिल्ली से नैनीताल लौट रहे थे। मैं ऑफिस छोड़कर सीधे बी0डी0 पाण्डे अस्पताल पहुंचा, उनकी कुशल क्षेम जानने। जब अस्पताल के जनरल वार्ड में उनके बेड को तलाश रहा था, पीछे से आवाज आई – ’पन्त जी किसे ढूँढ रहे हैं ? मैं यहाँ हूँ।’ मैं तिवारी जी को देखता हूँ, उसी धीर-गम्भीर मुद्रा में अस्पताल के बेड पर लेटे तिवारी जी ने चेहरे पर मन्द मुस्कान बिखेरी। एक पांव में सन्तुलन बनाने के लिए वजनी पत्थर लटकाये हुए, उनके चेहरे से कहीं नहीं लग रहा था, कि वे इतने बड़े हादसे से गुजर कर आये हैं। थोड़ा लम्बी सांस खींचकर बोले, ईश्वर का शुक्रिया मैं बच गया, वरना जैसे बस लुढ़की बचना मुश्किल था। उनकी इस जिन्दादिली पर आश्चर्य स्वाभाविक था। वो आगे खुद ही बताने लगे कि ड्राईवर को हल्की झपकी आई और बस लुढ़ककर कई फीट नीचे खाई में गिर गयी। उनके एक पांव में बड़ा फ्रैक्चर आ गया था लेकिन वह इनकी इच्छाशक्ति का ही करिश्मा था कि लगभग दो-तीन माह तक बैसाखी के सहारे चलकर वे रोजमर्रा की जिन्दगी में मशगूल हो गये।
तब से उनके साथ निकटता और भी बढते गयी। दफ्तर के बाद प्रायः जब बाजार उतरना होता तो जनता प्रेस में उनके साथ बैठना एक आदत में शुमार हो गया। खूब इधर-उधर और घर-परिवार की बातें होती। यानि उनके और मेरे बीच घर-परिवार की कोई बातें छिपी नही थी। लेकिन एक बात उनकी ओर से हमेशा छिपी रही, जो तब उजागर हुई जब वे इस दुनियां को छोड़कर जा चुके थे और वो बात थी उनके नाट्यकर्मी व्यक्तित्व की। जब उनके निधन पर मैंने पोस्ट डाली तो सबसे पहले नगर के प्रख्यात रंगकर्मी अनिल धिल्डियाल ने बताया कि शुरूआती दौर में वे एक नाट्यकलाकार भी रहे और इसी बात को मोहर लगायी नगर के ही रंगकर्मी व पत्रकार उमेश तिवारी विश्वास की फेसबुक पर डाली टिप्पणी ने। जिसमें उमेश तिवारी विश्वास ने उनके द्वारा नैनीताल में नाट्य परम्परा पर लिखी गयी अपनी पुस्तक में पृष्ठ 48 पर तुषारकान्त तिवारी का भी जिक्र किया है। बात सन् सत्तर के शुरूआती दशक की है, जब नैनीताल नगर के कुछ युवाओं द्वारा ’तराना’ संस्था के अन्तर्गत ’एकायन’ बैनर तले कई नुक्कड़ नाटकों का मंचन किया। एक और ‘द्रोणाचार्य’ तथा ’नदी’, ‘नाव और मुसाफिर’ जैसे नाटकों के माध्यम से अपने दमदार अभिनय से रंगमंच की दुनियां में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। नहीं पता, तुषार तिवारी ने बाद में किन परिस्थितियां वश रंगमंच की दुनियां से अलविदा कर लिया ? यह भी समझ से परे है कि तुषार तिवारी जैसा मुंहफट इन्सान कैसे अपने इस व्यक्तित्व को छुपा कर रख पाया।
जब कोई इन्सान दुनियां छोड़कर जाता है तो उससे जुड़ी पुरानी से पुरानी यादें भी एक बार तरोताजा हो जाती हैं। बात वर्ष 2011 की है, मेरा बेटा दिव्यान्शु सेप्टीसेमिया से ग्रसित होकर कलकत्ता के अपोलो हास्पिटल कें आईसीयू में भर्ती था। मैं नैनीताल से बिना किसी को बताये कलकत्ता उसके पास था और एक रेस्ट हाउस में रहकर उसकी देखभाल कर रहा था। लोग परेशान न करें, इसलिए मैंने अपना मोबाइल भी स्विच्ड ऑफ किया था। जब मैं उसी रेस्टहाउस के कॉमन डायनिंग रूम में नाश्ता कर रहा था, तो रिसेप्शन से डायनिंग हॉल में एक आवाज गूँजी, ’कोई बी0सी0 पन्त नाम का है क्या यहाँ ?’ दरअसल इस नाम से कोई दूसरी तरफ से फोन पर बात करना चाह रहा था। नाम सुनते ही मैं चौंका और ध्यान में एक ही बात आई कि कहीं बेटे की तबियत ज्यादा खराब न हो गयी हो। ज्यों ही काँपते हाथों से फोन उठाया उधर से तुषार तिवारी जी बेटे की तबियत का हाल जानने फोन कर रहे थे। मुझे ताज्जुब हुआ कि कहाँ से उस रेस्ट हाउस का नंबर उन्हें मिला और कैसे वे मुझसे जुड़ पाये ? इस फोन से मुझे जो ऊर्जा और भरोसा मिला, उसे ताउम्र नहीं भुला पाऊंगा।
प्रेस में उनके साथ कभी-कभी घण्टों बैठना होता। उनके मित्र भी उन्हीं की तरह बेवाकी में कम न थे, सिवाय मेरे। अपने कुछ बचपन के मित्रों से उनकी गाली-गलौंच वाली लट्ठमार भाषा मेंं भी संवाद हुआ करते, लेकिन शब्द भले ही असहज कर दें, लेकिन उनमें बेहद भावनात्मक लगाव होता। कभी एक दूसरे की बात को दिल से लगा लें, ऐसा तो होता ही नहीं था। कभी ऐसा भी होता कि प्रेस बन्द करने के बाद हम साथ-साथ बाजार को निकलते। वे सीधे अपने घर जयलाल साह बाजार न जाकर, मल्लीताल के बीच की बाजार में अपने बालसखा प्रताप रावत के रैस्टोरेन्ट में जाते और खुद फ्राईपैन ढूंढ कर अपने लिए चाय बनाते। यह उनका हर शाम का शगल था। प्रताप रावत जैसे लड़कपन के मित्रों के साथ भी उनके तू-तड़ाक वाले संबोधनों के साथ संवाद होते।
कोई एक माह पूर्व ही जब मैं दिल्ली में था, तो उनका फोन आया था, जिसमें उन्होंने अपनी तबियत का हवाला देकर बताया था कि अस्थमा के कारण अपने घर जयलाल साह बाजार से बी0डी0 पाण्डे अस्पताल जाने तक के लिए उन्हें बाइक की जरूरत पड़ने लगी है। 15 जनवरी 2022 की सुबह यह मनहूस खबर आई कि इस बीच कोविड की गिरफ्त में भी आ जाने से उनका आकस्मिक निधन हो गया है। सन्तोष इस बात का है कि वे अपनी दोंनो पुत्रियों की शादी अपने हाथों कर अपनी जिम्मेदारी निभा गये हैं। ऐसे बेवाक व साफगोई से अपनी बात कहने वाले इन्सान को जल्दी भुला पाना संभव नहीं है ।