कमलेश जोशी
वर्षों से बहस चली आ रही है कि प्रकृति में जहर घुलता जा रहा है. प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है. पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है. जंगलों की कटाई के साथ-साथ आग लगने की घटनाएँ बढ़ रही हैं. नदियॉं प्रदूषित होती जा रही हैं. ग्लेशियर पिघल रहे हैं. महासागर कचरे के ढेर से पटे जा रहे हैं. मालदीव जैसे छोटे-छोटे द्वीप बढ़ते जल स्तर की वजह से डूबने की कगार पर हैं. जलीय जीव तेजी से विलुप्ति की ओर बढ़ रहे हैं. पीने के पानी की समस्या बढ़ती जा रही है. बाढ़ और सूखे की मार से दुनिया के कई हिस्से त्रस्त हुए जा रहे है. प्लास्टिक और इलेक्ट्रॉनिक कचरे से अलग समस्याएँ पैदा हो रही हैं. ऋतुएँ अपनी प्रकृति बदल रही हैं. प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है. हिमालय की चोटी तक कचरे का ढेर पहुँचा दिया गया है. ऐसी ही और भी सैकड़ों समस्याएँ मानव जनित हैं जो हमने प्रकृति में पैदा की हैं.
इन समस्याओं को लेकर पिछले कई वर्षों में दुनिया भर के देशों ने खूब ढोल पीटा है और इनके निदान के लिए अरबों डॉलर खर्च कर 1992 के क्योटो प्रोटोकॉल से लेकर 2019 में स्पेन में आयोजित COP 25 (UN Climate Change Conference) तक न जाने कितनी ही बैठकें कि गई लेकिन दुनिया के अलग-अलग देशों ने अपने हितों का हवाला देते हुए कई बार उन बाध्यताओं को मानने से इनकार कर दिया जो इन बैठकों की अहम शर्तें थी. जिसका परिणाम यह हुआ कि ये समस्याएँ सुलझने की जगह और ज्यादा उलझने व बढ़ने लगी. वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों के बार-बार चेतावनी देने के बावजूद दुनिया भर के देश ऑंख मूँद कर बैठे रहे. कुछ देशों ने पर्यावरण संरक्षण के प्रयास किये भी तो वो ऊँट के मुँह में जीरा ही साबित हुए.
दुनिया के सारे विकसित व विकासशील देश हमेशा इसी होड़ में लगे रहे कि दुनिया भर में चल रही विकास की रेस में कैसे खुद को बनाए रखना है. इस रेस में प्रकृति के जिन-जिन अवयवों की बलि देनी थी उन सबकी बलि देकर भी सारे देश अथाह विकास के मोर्चे पर डटे रहे. आर्थिक विकास और तकनीकी विकास पर इतना जोर दिया गया कि सतत विकास की बड़ी-बड़ी बातें बेईमानी लगने लगी. प्रकृति पर विजय पाने की इंसान ने वो हर संभव कोशिश की जो वो कर सकता था. आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस से लेकर कृत्रिम बारिश, टेस्ट ट्यूब बेबी व रोबोटिक्स आदि तक इंसान ने वो सब कुछ बना डाला जो अकल्पनीय सा लगता था. अपनी इस बौद्धिक ताकत पर इंसान को इतना गुमान हो गया कि उसे लगने लगा कि वह प्रकृति को भी काबू कर सकता है.
प्रकृति बीच-बीच में बाढ़, सूखा, भूकंप, सूनामी व महामारी के रूप में कई बार इंसान को चेतावनी देती रही कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ अच्छा नहीं है लेकिन विकास की रेस में अंधे हो चुके तमाम देशों को ये चेतावनी हर बार छोटी ही लगी. प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव तक तो इंसान संभला रहा लेकिन जैसे ही इन आपदाओं से उसने पार पाया वह पुन: उन्हीं कामों में मसगूल हो गया जिसकी चेतावनी प्रकृति ने उसे न करने को दी थी. पिछले दो दशकों में महामारियों की जैसे बाढ़ सी आ गयी है. स्वाइन फ्लू, सार्स, बर्ड फ्लू, इबोला वायरस, निपाह वायरस और अब कोरोना वायरस ने दुनिया को हिला के रख दिया है. पुरानी कुछ महामारियों का प्रभाव तो दुनिया के कुछ हिस्सों तक ही सीमित रहा लेकिन इस बार प्रकृति बुरी तरह नाराज हैं और इंसान को सबक सिखा के ही दम लेना चाहती है. कोरोना वायरस दुनिया के लगभग हर देश में दस्तक दे चुका है.
चीन और अमेरिका कोरोना वायरस को लेकर एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप कर रहे हैं लेकिन गलती चाहे किसी की भी हो प्रकृति ने इस बार दंड सामूहिक रखा है. हमारे खान-पान की अप्राकृतिक आदतों व प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ने की हमारी हर दिन की कोशिशों को देखते हुए इस बार प्रकृति ने नेचुरल लॉकडाउन का ऐलान कर दिया है. दुनिया भर की सरकारें अगर इस महामारी पर विजय पा सकती तो वो एक बार फिर प्रकृति को ठेंगा दिखाते हुए अपनी बादशाहत साबित करने की कोशिश जरूर करतीं. लेकिन इस बार सरकारी लॉकडाउन का आदेश सिर्फ इसलिए हुआ है क्योंकि सरकार के ऊपर भी एक बड़ी सरकार है और वह है नेचर की सरकार. कहते हैं जब प्रकृति अपने में आ जाती है तो अच्छे अच्छों के पसीने छूट जाते हैं. हमें इस चेतावनी को समझते हुए भविष्य के लिए संभल जाना चाहिये.
कुछ भी हो पूरी दुनिया थम सी गई है और प्रकृति पिछले कई दशकों में मानव द्वारा दिये गए अपने घावों को भर रही है. हवा में फैला वाहनों और जहाजों से निकलने वाला जहर लगभग खत्म सा हो गया है जिस वजह से पंछी स्वच्छंद आकाश में चैन की साँस ले रहे हैं. फैक्ट्रियों व कल कारखानों के बंद होने की वजह से नदियॉं, महासागर व उनमें रहने वाले जलीय जीव एक बार फिर नए जीवन का एहसास कर रहे हैं. जल, जंगल, जमीन और पहाड़ सब तरोताजा महसूस कर रहे हैं. ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे प्रकृति ने अपने सिस्टम को रीबूट कर दिया है.
प्रकृति ने घर में रहकर इंसान को सोचने के लिए भरपूर समय दे दिया है. इंसान इस चेतावनी से कितना सचेत होगा ये तो नहीं पता लेकिन इतना जरूर है कि जो गलतियॉं उसने आजतक की हैं उनके बारे में सोचेगा जरूर. रईस और अमीरजादे देशों व लोगों की गलतियों का परिणाम आज पूरी दुनिया भुगत रही है और उस पर भी भारत जैसे देश में निचले तबके का गरीब इंसान इस महामारी की चपेट में आने के खतरे के साथ-साथ दो जून की रोटी के लिए भी तरस रहा है. प्रकृति की इस मार से दुनिया भर की सरकारों व लोगों को जागना ही होगा और भविष्य में ऐसी मार न पड़े उसके लिए प्रकृति के साथ खिलवाड़ करना भी बंद करना होगा.