शम्भू राणा
पिछले सात-आठ महीनों में हमने और चाहे कुछ न किया हो पर कुछ खब्त जरूर पाल लिए हैं अच्छी आदतों के नाम पर। तकरीबन यही सब हमने पहले भी किया है और आगे भी करते रहेंगे। जब-जब जरूरत पड़ती है तब कोई ‘अदृश्य शक्ति‘ हमसे यह करवा लेती है।
हम नई आदतों को कभी शौकिया अपनाते हैं तो कभी मौत के डर से, कभी सेहत के नाम पर और यदा-कदा देश तरक्की कर रहा है सोच कर राष्ट्रवाद के नाम पर। यह खेल समय-समय पर चलता रहता है। इस बार खेल बड़ा है और थोड़ा जटिल भी। इस बार डर मौत का है और सच में लोग मर भी रहे हैं। इस खेल मे मरने वालों का योगदान बड़ा महत्त्वपूर्ण होता है। उनके मरने से ही हमारे भीतर डर का संचार होता है।
बात को ज्यादा लम्बा खीचने से कुछ हासिल नहीं होगा, थोड़ा-सा पीछे मुड़ कर देख लेते हैं। एक समय हमने एक के बाद एक ताबड़तोड़ विश्व सुन्दरियां संसार को दीं। फिर एकाएक हिन्दुस्तान ने सुन्दरियों का जैसे उत्पादन बन्द कर दिया। विश्व सुन्दरियां हमारे देश में तब तक पैदा होती रहीं जब तक हमने अनगिनत किस्म के तेल-फुलेल-लोशन-क्रीम चुपड़ना नहीं सीख लिया। एक लोशन घर से निकलते समय पोतते हैं तो दूसरा घर लौट कर। इनके बिना अब जीवन व्यर्थ है।
ऐसे ही एक दफा हमें घेंघा रोग ने आ दबोचा। हर आदमी को अपनी गर्दन पर सेर भर अदृश्य मांस की पोटली लटकती महसूस होने लगी। हमने तब भी बड़ी वफादारी से नमक का हक अदा किया, तब से हम एकदम साफ-शफ्फाक दूध-सा सफेद नमक खाते हैं और देखिए एकदम घेंघा मुक्त हैं।
हर मर्ज की दवा हर बार कुछ परोपकारी लोग खोज ही लेते हैं और वह दवा हमारी जरूरी दवाओं की फेहरिश्त में जुड़ जाती है। हम दवा की स्पेलिंग रट लेते हैं और साॅल्ट भी। डाॅक्टर कहता है- दवा मुझे दिखा कर जाइएगा।
ड्रोप्सी नाम की भी एक बला हमारी छाती पर चढ़ बैठी थी कुछ साल पहले। घमासान का रण पड़ा। न जाने कितने लोग खेत रहे थे तब भी। तब भी हमें लगा कि यम के कारिन्दे कभी भी हमारी डोर बैल बजा सकते हैं। पढ़ी-लिखी जनता बड़ी समझदार थी साहब तब भी। उसने ठंडे दिमाग से काम लिया और तलने-भूनने के काम आने वाले उस तेल को ही अपनी रसोई से लात मार कर हमेशा के लिए बाहर कर दिया जिस में ड्रोप्सी थी। इस तरह ड्रोप्सी का समूल नाश कर डाला। तब से वह बला फिर कभी सपने तक में नहीं आई। आज की तारीख में कोई अगर चाहे भी तो ड्रोप्सी से नहीं मर सकता।
यह सब होता रहा है और ईश्वर ने चाहा तो आगे भी होता रहेगा, और भला ईश्वर क्यों नहीं चाहेगा कि आप स्वस्थ रहें, बचे रहें, इस विविध रंगी संसार को देखने के लिए और इतिहास रचने के लिए।
मौजूदा दौर में हमारे पास शर्मिन्दा होने और मुंह छिपाने के दूसरे कई कारण मौजूद हैं जिन पर हम खुद को गौरवान्वित मइसूस कर रहे हैं। मगर नकाबपोश हमें किसी और कारण से बना दिया गया है। इस घुटन भरे माहौल में हमारी सांसें किसी और वजह से घुट रही हैं। हम खुशी से घुट रहे हैं। अजब समय है कि आदमी पिट कर हंस रहा है- वाह क्या मारा!
ठीक ऐसे ही चुल्लूभर पानी में डूब मरने की और भी कई वजहें हैं। मगर हम दिन भर में न जाने कितने चुल्लू अल्कोहल हाथों में पोत रहे हैं। जिसके पास से गुजरिए वही ठर्रा पिए जान पड़ता है। जिनको अल्कोहल का नाम सुनकर भी पाप लग जाता है, ऐसे लोग भी इन दिनों अच्छी-खासी मात्रा में इसे अप्रत्यक्ष रूप से अपनी नस-नाड़ियों में पहुंचा रहे हैं।
इसी तरह का और भी काफी-कुछ हम बेखुदी में कर रहे हैं, डर रहे हैं। तिल-तिल कर मर रहे हैं और मर-मर कर जी रहे हैं।
जैसा कि किसी परम ज्ञानी ने कहा कि आपदा में अवसर भी होता है। यहां वाकई एक अवसर है। अगर हम चाहें तो इन दिनों अछूत होने की पीड़ा को महसूस कर सकते हैं। ऐसा अवसर फिर शायद हमारे जीवन में न आए। इस पीड़ा को हम जी तो रहे ही हैं, इन दिनों क्यों न दिल की गहराइयों से महसूस भी करते चलें।
एक और खब्त इन दिनों जो हमारे सर पर सवार है उसका नाम इम्यूनिटी है। इंसान ने इतने किस्म के काढ़े इतिहास में शायद ही कभी पिए होंगे। गिलोय नाम की वनस्पति की तो मानो कजा आ गई है। लगता है उसे बचाने के लिए एक और चिपको आन्दोलन करना पड़ेगा। इस काढ़े के खब्त ने कइयों को बैठे-ठाले अल्सर जैसी न जाने कितनी बीमारियां उपहार में दे डाली हैं। जिसे देखिए अपना इम्यूनिटी सिस्टम मजबूत कर रहा है। लगता है जैसे काढ़ा ही वह एकमात्र चीज है जिससे यमराज को कुछ डर लगता है।
यह खब्त अगर कुछ समय और यूं ही जारी रहा तो हो सकता है जल्दी ही हमें सुगर-बी पी की तर्ज पर एक नए मर्ज का नाम कुछ यों सुनने को मिले कि फलाने की तो इम्यूनिटी जानलेवा हद तक बढ़ गई है। काबू ही में नहीं आ रही। डाॅक्टर ने हायर सेंटर रेफर कर दिया है।
कुल मिला कर हम समय-समय पर इसी तरह नए मर्ज, नई दवाएं और नया बाजार खड़ा कर देते है और मजे की बात तो यह होती है कि हमें इस सब में अपने योगदान का जरा भी भान नहीं होता। सच में हम कितने मासूम होते हैं!